Uncategorized

#ATAL_RAAG_महात्मा गाँधी का हिन्दू दर्शन

महात्मा गाँधी का हिन्दू दर्शन

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल

बापू के रुप में जन-जन में बसे महात्मा गाँधी स्वतन्त्रता आन्दोलन के महानायक के साथ ही हिन्दू-धर्म संस्कृति, परम्पराओं तथा धार्मिक पौराणिक ग्रन्थों और लोकमान्यताओं से गहरे जुड़े हुए थे। उनकी हिन्दुत्व के प्रति अगाध श्रध्दा का अन्दाजा हम -आप इसी से लगा सकते हैं कि – प्राणान्त के समय उनके मुख से हे! राम ही निकला। राजघाट में उनकी समाधि में भी ‘हे! राम’ ही लिखा हुआ है,जो उनकी अनन्य निष्ठा के महानतम् आदर्श बोध को सुस्पष्ट करता है। महात्मा गाँधी के विचार-दर्शन-कार्य बहुरङ्गी तथा बहुआयामी हैं जिनका व्यापक प्रभाव भारतीय मानस में दृष्टिगोचर होता है। प्रायः उनके सभी आयामों पर चर्चा-परिचर्चा तो अवश्य होती हैं। किन्तु उनके विचार-दर्शन एवं व्यक्तित्व तथा कृतित्व के मूल में जो ‘हिन्दू-दर्शन’ है। या तो उस पर जानबूझकर प्रकाश डालने का यत्न नहीं किया जाता । याकि उस ओर योजनबद्ध रुप से कोई अपनी दृष्टि घुमाने का कार्य ही नहीं करना चाहता। यदि किया भी जाता है तो चलताऊ तौर पर। जो कि उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व के मूल-आधार से जन को अनभिज्ञ रहने या उस दिशा में न बढ़ने का प्रयोजन ही समझ आता है। महात्मा गांधी का हिन्दू दर्शन और हिन्दुत्व के प्रति उनकी अनन्या निष्ठा भारतीय संस्कृति की बड़ी तस्वीर प्रस्तुत करती है। उनके जीवन से संबंधित उन्हीं वृतांतों और दृष्टांतों से गांधी जी के हिन्दू दर्शन को समझने और प्रस्तुत करने का यत्न करेंगे।

गांधी जी का जन्म एक सात्विक वैष्णव परंपरा के अनुयायी हिन्दू परिवार में हुआ। हिन्दुत्व निष्ठा के प्रति समर्पित उनके परिवार ने जो बोध दिए। संस्कार दिए। उनका व्यापक प्रभाव गांधी जी के मानस पर प्रतिबिंबित हुआ। गाँधी जी के बाल्यकाल से ही उनकी माता पुतली बाई त और घर-परिवार का धार्मिक प्रभाव उन पर पड़ा जो जीवन पर्यन्त उनमें परिलक्षित हुआ। इसका स्पष्ट उल्लेख उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ और अपने विविध भाषणों, वक्तव्यों और पत्र- व्यवहारों में समय-समय पर किया है।

गांधी जी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग’ के दसवें अध्याय में ‘धर्म की झाँकी’ में वे अपने धर्मपारायण श्रीरामचरितमानस, श्रीमद्भागवत, रामायण का श्रवण, रामरक्षास्तोत्र का पाठ,मन्दिर जाना इत्यादि का वर्णन करते हैं। बाल्यकाल में भूत-प्रेतादि के अज्ञात भय से बचने के लिए उनके परिवार में काम करने वाली नौकरानी रम्भा ने ‘रामनाम’ जप करने का सुझाव दिया, उसे गाँधीजी ने मान लिया। बाल्यकाल में भले ही उसका क्रम दीर्घ नहीं चला किन्तु रामनाम महिमा के विषय में वे लिखते हैं –
“आज रामनाम मेरे लिए अमोघ शक्ति है।मैं मानता हूँ कि उसके मूल में रम्भा बाई का बोया हुआ बीज है।”

पोरबन्दर में रहने तक वे अपने रामरक्षास्तोत्र के नित्यपाठ के नियम का भी उल्लेख करते हैं। साथ ही रामायण के परायण के सम्बन्ध में कहते हैं –

                                           “जिस चीज का मेरे मन में गहरा असर पड़ा,वह था रामायण का पारायण”

इसी अध्याय में वो अपनी धार्मिक भावना के विषय में आगे लिखते हैं -“उन दिनों कुछ ईसाई हाईस्कूल के कोने पर खड़े होकर व्याख्यान दिया करते थे।वे हिन्दू देवताओं की और हिन्दू धर्म मानने वालों की बुराई करते थे। मुझे वह असह्य मालूम हुआ। मैं एकाध बार ही व्याख्यान सुनने के लिए खड़ा रहा होऊँगा।दूसरी बार फिर वहाँ खड़े रहने की इच्छा ही न हुई। साथ ही ईसाइयों के धर्मान्तरण पर वे लिखते हैं – जिस धर्म के कारण गोमाँस खाना पड़े,शराब पीनी पड़े और अपनी पोशाक बदलनी पड़े,उसे धर्म कैसे कहा जाए? ”

उपर्युक्त उध्दृत कथनों से हम गाँधी जी और आम हिन्दू की भावनाओं तथा उसकी धर्मपरायणता में अद्भुत साम्य देखते हैं। गाँधी जी अपने धर्म व धार्मिक-पौराणिक ग्रन्थों के प्रति कितने श्रद्धावान थे। इसका सहज आंकलन हम उनके इन्हीं विचारों से ही लगा सकते हैं। वे जब विदेश के लिए निकले तो अपनी माँ की आज्ञा पालन के लिए उन्होंने विदेश में रहते हुए वहाँ की मौसमी दशाओं के उपरान्त भी न तो कभी माँसाहार किया और न ही शराब पी! न ही अण्डे का सेवन किया।

अपनी आत्मकथा के अध्याय तेरह में इस विषय में अँग्रेज मित्र के द्वारा माँसाहार की सलाह पर वे प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं ― “ इस सलाह के लिए मैं आपका आभार मानता हूँ, पर माँस न खाने के लिए मैं अपनी माताजी से वचनबद्ध हूँ। इस कारण मैं माँस नहीं खा! सकता। अगर उसके बिना काम न चला तो,तो मैं वापस हिन्दुस्तान चला जाऊँगा पर माँस तो कभी नहीं खाऊँगा।”

मातृ आज्ञा पालन के लिए यह दृढ़ता वौर त्याग की भावना के कठोर किन्तु सहज स्वीकार्य यह नियम उसी हिन्दू संस्कृति का ही भाग हैं । जो संस्कृति जीवों के प्रति दया-करुणा-ममता के साथ आचार-विचार एवं आहार में शुध्दता और सात्विकता का बोध स्वमेव अन्तर्विष्ट करती है। विदेश में रहने के दौरान जब उन्होंने गीता पाठ प्रारम्भ किया ‌। तदुपरान्त उन्हें जो अनुभूति हुई उस आधार पर श्रीमद्भगवद्गीता के सम्बन्ध में वे कहते हैं – “इन श्लोकों का मेरे मन में गहरा प्रभाव पड़ा है।उनकी भनक मेरे कानों में गूँजती ही रही। उस समय मुझे लगा कि भगवद्गीता अमूल्य ग्रन्थ है। मेरी यह मान्यता धीरे-धीरे बढ़ती गई,और आज तत्वज्ञान के लिए मैं उसे सर्वोत्तम ग्रन्थ मानता हूँ।निराशा के समय में इस ग्रन्थ ने मेरी अमूल्य सहायता की है।

आगे गांधी जी प्रथम खण्ड के उन्तीसवें अध्याय ‘निर्बल के बल राम’ में वे धर्मशास्त्रों, ईश्वर विषय प्रश्नों-आधारों की पड़ताल करते हैं। इस अध्याय में उनकी ईश्वर व उपासना पध्दतियों के प्रति दृढ़ आस्था व पूर्णविश्वास का भाव सुस्पष्ट होता है ― “मैं कह सकता हूँ कि आध्यात्मिक प्रसंगों में,वकालत के प्रसंगों में,संस्थाएँ चलाने में,राजनीति में ‘ईश्वर’ ने मुझे बचाया है। मैंने यह अनुभव किया है कि जब हम सारी आशा छोड़कर बैठ जाते हैं। हमारे दोंनो हाथ टिक जाते हैं तब कहीं-न-कहीं से मदद आ पहुँचती है।स्तुति, उपासना, प्रार्थना वहम नहीं है;बल्कि हमारा खाना-पीना,चलना-बैठना जितना सच है,उससे भी अधिक सच यह चीज है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं है कि यही सच है और सब झूठ हैं। ऐसी उपासना, ऐसी प्रार्थना, निरा वाणी-विलास नहीं होती।उसका मूल कण्ठ नहीं, ह्रदय है।अतएव यदि हम ह्रदय की निर्मलता को पा लें,उसके तारों को सुसंगठित रखें तो उनमें जो सुर निकलते हैं। वे गगनगामी होते हैं। मुझे इस विषय में कोई शंका ही नहीं है कि विकार रुपी मलों की शुध्दि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि है।पर इस प्रसादी के लिए हममें सम्पूर्ण नम्रता होनी चाहिए।”

दक्षिण अफ्रीका में ईसाइयों से सम्पर्क के दौरान ईसाई मित्रों ने उन्हें ईसाइयत से प्रभावित करने के लिए कई सारी पुस्तकें दी। उन्होंने उनको पढ़ा किन्तु उनका कुछ भी प्रभाव न पड़ा। मि.कोट्स नामक व्यक्ति ने गाँधीजी द्वारा गले में धारण की गई ‘वैष्णव कण्ठी’ को तोड़ने का प्रयास किया। किन्तु गाँधीजी ने इसका प्रतिकार किया और अडिग रहते हुए अपनी माताजी की कल्याण कामना के प्रति अपनी पूर्ण श्रध्दा व्यक्त की। उन्होंने अपनी कण्ठी नहीं तोड़ी और ईसाई मित्रों द्वारा ईसाइयत स्वीकार करने के साथ ही ईसाई धर्म को सर्वोपरि मानने को भी निर्भीकतापूर्वक अस्वीकार कर दिया।

 

वे हिन्दू धर्म-संस्कृति की प्रत्येक परम्परा और पध्दति से गहरा अनुराग रखते। उनके अन्दर अपने धर्म को समझने व आत्मसात करने की पारखी दृष्टि थी । भारत की प्राच्य या यूँ कहें कि सनातन संस्कृति के मुख्य केन्द्र बिन्दु में सदैव लब्धप्रतिष्ठित रही भारतीय गुरुपरम्परा पर वे लिखते हैं – “हिन्दू धर्म में गुरूपद को जो महत्व प्राप्त है,उसमें मैं विश्वास रखता हूँ।’गुरु बिन ज्ञान न होय’। इस वचन में बहुत-कुछ सच्चाई है। अक्षरज्ञान देने वाले अपूर्ण शिक्षक से काम चलाया जा सकता है पर आत्मदर्शन कराने वाले अपूर्ण शिक्षक से तो नहीं चलाया जा सकता।गुरुपद सम्पूर्ण ज्ञानी को ही दिया जा सकता है। गुरु की खोज में ही सफलता निहित है,श क्योंकि शिष्य की योग्यता के अनुसार ही गुरू मिलता है।इसका अर्थ यह है कि योग्यता प्राप्ति के लिए प्रत्येक साधक को सम्पूर्ण प्रयत्न करने का अधिकार है और इस प्रयत्न का फल ईश्वराधीन है।

 

अफ्रीका में रहने के दौरान गांधी जी को उनके ईसाई और मुस्लिम मित्र अपने-अपने धर्म से प्रभावित करने और उसकी श्रेष्ठता के आगे नत होने के लिए बारम्बार प्रयास करते रहे। किन्तु गाँधीजी ने सबके प्रयासों में उनके द्वारा प्रदान की गईं पुस्तकें यथा -बाईबल,कुरान तथा इनके समीक्षात्मक अन्य ग्रन्थों का अध्ययन तो अवश्य किया लेकिन क्षणिक विचलित नहीं हुए। उन्हें महान शाश्वत हिन्दू धर्म के मूल्यों और सिध्दान्तों के चौबीस वर्ष की अवस्था तक में अर्जित-अनुभूत सामान्य बोध ने अडिग बनाए रखा।

पारस्परिक सम्वाद तथा अभिरूचियों के कारण उनकी जिज्ञासा और हिन्दू धर्म के प्रति गहन अध्ययन की इच्छा का बोध उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। वे स्वयं से प्रश्न पूँछते और भारत के विभिन्न धर्मशास्त्रियों से पत्राचार करके अपनी शंकाओं के समाधान खोजने का यत्न करते रहते। इसी दिशा में वे अपने कवि मित्र और हिन्दू-धर्म-दर्शन के मर्मज्ञ विद्वान रायचन्द भाई के समझ अपनी कठिनाइयाँ प्रस्तुत करते। गांधी जी ने उनके द्वारा सुझाई और भेजे गए कई ग्रन्थों यथा – ‘पञ्चीकरण’, ‘मणिरत्नमाला’,’योगवाशिष्ठ का ‘मुमुक्षु प्रकरण’, ‘हरिभद्रसूरि का ‘षड्दर्शन-समुच्चय’ इत्यादि का का गहन अध्ययन किया। उन्होंने ‘धार्मिक मन्थन’ अध्याय में यह स्पष्ट लिखा है कि – “ मैंने अपनी कठिनाइयाँ रायचन्द भाई के सामने रखीं। हिन्दुस्तान के दूसरे धर्मशास्त्रियों के साथ पत्र-व्यवहार भी शुरु किया।उनकी ओर से भी उत्तर मिले। रायचन्द भाई के पत्र से मुझे बड़ी शान्ति मिली। उन्होंने मुझे धीरज रखने और हिन्दू धर्म का गहरा अध्ययन करने की सलाह दी। उनके एक वाक्य का भावार्थ यह था — “निष्पक्ष भाव से विचार करते हुए मुझे यह प्रतीति हुई है कि हिन्दू धर्म में सूक्ष्म और गूढ़ विचार हैं आत्मा का निरीक्षण है दया है। वह दूसरे धर्मों में नहीं है।”

उपर्युक्त उध्दरणों,उनके जीवन प्रसंगों तथा मूल्यों के प्रति प्रतिबध्दता और हिन्दू-धर्म-दर्शन के प्रति गाँधीजी की असीम आस्था,श्रध्दा,भक्ति और दृढ़ विश्वास के महान आदर्श स्पष्ट होते हैं। महात्मा गांधी इस्लामिक और क्रिश्चियनिटी के क्रूर कन्वर्जन के पाश के विरुद्ध खड़े मिलते हैं। वो कट्टर सनातनी हिन्दू होने का बोध प्रदान करते हैं। वर्तमान समय में जब कन्वर्जन के षड्यंत्र रचे जा रहे हैं। भारत विरोधी हिन्दू विरोधी शक्तियां हिन्दुत्व और हिन्दुत्व को लांक्षित करने कुत्सित प्रयास करते हैं। ऐसे में गांधी जी का हिन्दू दर्शन एक चेतावनी के रूप में खड़ा मिलता है। गांधी जी ने अपनी धार्मिकता, आध्यात्मिकता और भारतीय धर्मग्रन्थों के अवगाहन का पथ प्रशस्त किया है। वह भारतीय समाज के लिए प्रेरणा है। महात्मा गांधी जी का हिन्दू दर्शन उन राजनेताओं और दलों के मुंह पर ही करारा तमाचा है। जो गांधी जी के नाम का अपने एजेंडे के लिए उपयोग तो करते हैं किन्तु उनके हिन्दू दर्शन को निरंतर आघात पहुंचाते रहते हैं। क्या ऐसे दल और राजनेता किसी भी प्रकार से गांधी जी के अनुयायी हो सकते हैं ? गांधी जी जिस भारतीयता और हिन्दुत्व को सहर्ष स्वीकार करते हैं। उसका पालन करते हैं। वह निश्चय ही समाज के लिए प्रेरणा है। दिशाबोध है कि हिन्दुत्व के मूल्य ही भारत की चैतन्यता के मूल स्वर हैं। महात्मा गांधी ने हिन्दू दर्शन के आत्मसातीकरण की दिशा में जो कदम उठाए थे। वो भारतीयता के युगबोध हैं। गाँधी जी हिन्दू दर्शन से अपने प्रारम्भिक परिचय के साथ ही जो महान सन्देश देते हैं। वह यह है कि भारतीयता-हिन्दू-धर्म-दर्शन -संस्कृति में ही राष्ट्र की उन्नति और मानवकल्याण का सिध्द बीजमन्त्र समाहित है। हमें बस उसी हिन्दुत्व के मूल यानी ‘स्व’ की ओर कदम बढ़ाने की आवश्यकता है।

~कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
( लेखक IBC24 में असिस्टेंट प्रोड्यूसर हैं)

IBC24 News : Chhattisgarh News, Madhya Pradesh News, Chhattisgarh News Live , Madhya Pradesh News Live, Chhattisgarh News In Hindi, Madhya Pradesh In Hindi

Related Articles

Back to top button