जेइ तो देखन आए हते कि जे मोड़ी कौन है! चंबल के सबसे महंगे डकैत मोहर सिंह की अनसुनी कहानी | Know about unheard story of chambal dacoit mohar singh dies in madhya pradesh | bhind – News in Hindi
साल 1972 में मोहर सिंह ने अपने भरे पूरे गैंग यानी 140 डाकुओं के साथ आत्मसमर्पण किया था. जयप्रकाश नारायण (Jai Prakash Narayan) और मप्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चंद्र सेठी के आह्वान पर मोहर सिंह ने अन्य कुख्यात डाकुओं (Chambal Ke Daku) के साथ हथियार डाले थे. लेकिन इससे पहले वह कथित तौर पर 400 हत्याओं व 650 अपहरणों को अंजाम दे चुका था. उसे आठ साल जेल के बाद रिहा किया गया. मोहर सिंह की अनसुनी कहानी के साथ जानें फ्लैशबैक से खास किस्से.
ऐसे शुरू हुआ था आतंक
मोहर सिंह पहली बार पुलिस रिकॉर्ड में 1958 में आया, जब वह गांव में एक रंजिश के चलते हत्या करने के बाद बीहड़ों में भाग गया था. उसके बाद 1972 तक वह चंबल के सबसे खतरनाक डाकू के तौर पर आतंक फैलाता रहा. 1970 के दशक में मोहर पर दो लाख और उसके गैंग पर 12 लाख का इनाम पुलिस ने रखा, तो चंबल के कुख्यात गैंगों ने भी मोहर का लोहा माना और वह सबसे महंगा और सबसे खतरनाक डकैत घोषित हुआ.
मोहर सिंह से जुड़े खास फैक्ट्स.
बीहड़ में बैठे बैठे दिल्ली से अपहरण
मोहर सिंह से बातचीत पर आधारित फर्स्टपोस्ट के एक लेख के मुताबिक चंबल घाटी में उससे पहले किसी डाकू सरगना ने बीहड़ में बैठकर दिल्ली के किसी रईस की ‘पकड़’ (अपहरण) की हिम्मत नहीं जुटाई थी. उस जमाने के कुख्यात मूर्ति तस्कर को डाकू नाथू सिंह के साथ मिलकर मोहर ने दिल्ली से ग्वालियर हवाई जहाज से बुलावाया. फिर ग्वालियर से चंबल के बीहड़ में बुलाकर बंधक बना लिया.
ऐसा अपहरण चंबल में पहले कभी नहीं हुआ था. 1960 के दशक में 26 लाख फिरौती वसूलने के बाद उस तस्कर को छोड़ा गया था और इस घटना ने दिल्ली तक को हिला दिया था.
दिलेरी और शेखी के कई किस्से
इसी लेख के मुताबिक मोहर ने कभी औरतों के साथ बदसलूकी न करने की कसम खुद भी खाई थी और अपने गैंग को भी दिलाई थी. साथ ही, खुले आम जेल में मुर्गा और मटन खाने, अदालत में जज के फांसी की सज़ा सुनाने पर जज को टका सा जवाब दे देने, जेल में एक पुलिस अधिकारी को पीटने और पुलिस अधिकारियों को जेल परिसर में भी चुनौती देने जैसे कई किस्से खुद मोहर सिंह के हवाले से सुनाए जाते हैं, जो उसकी दिलेरी और शेखी का बयान भी करते हैं. लेकिन एक ऐसा किस्सा भी है, जहां उसकी शेखी फीकी पड़ गई थी.
जब कल की छोकरी पड़ी भारी!
यह किस्सा 70 के दशक के आखिरी सालों का है यानी मोहर के सरेंडर के बाद के समय का. 1977—78 के दौरान दस्यु सुंदरी कमला का नाम चंबल में तेज़ी से उभरने को था, लेकिन बड़ा नहीं हो सका था. कमला अस्ल में पिछड़ी जातियों नहीं, बल्कि ब्राह्मण परिवार से आने वाली चंबल की डाकू थी और उसकी सुंदरता वाकई ऐसी थी कि यह तक कहा जा सकता था, कि सही मायनों में दस्यु सुंदरी वही थी, बाकी ज़्यादातर महिला डकैतों को तो औपचारिकता में ही दस्यु सुंदरी कहा जाता रहा.
दूसरी तरफ, उन्हीं दिनों छतरपुर के इलाकों के पास एक महिला डकैत पुलिस एनकाउंटर में मारी गई थी इसलिए भिंड ज़िले में कमला को जीवित पकड़ने के साफ निर्देश थे. उस समय उस ऑपरेशन के अधिकारी रहे तत्कालीन डीएसपी विजय वाते ने अपनी टीम के साथ कमला को ज़िंदा पकड़ लिया था और उसे भिंड कोतवाली में रखा गया था. वहां उसे देखने भारी भीड़ उमड़ी थी और संभवत: इतनी भीड़ किसी डाकू के लिए नहीं उमड़ी थी.
‘आखिर जे मोड़ी है कौन?’
पुरानी यादें ताज़ा करते हुए श्री वाते बताते हैं कि कमला का आतंक उतना नहीं था, लेकिन दस्यु सुंदरी के रूप में उसकी चर्चा बहुत थी. इसी चर्चा के कारण कोतवाली में बंद कमला को खुद मोहर सिंह भी उसे देखने आया था. जब मोहर वहां पहुंचा, तो हमने पूछा ‘तुम तो खुद इतने बड़े डाकू थे, इस लड़की को देखने क्यों आए हो?’ तब मोहर ने कहा था ‘हमने 20 साल बांकपन करो है… जेई तो देखन आए हते कि जे मोड़ी है कौन!’
— विजय वाते, रिटायर्ड आईपीएस
राजनीति में आने की कोशिशें
जेल से जल्दी रिहा किए जाने के बाद सरकार ने मोहर सिंह को 35 एकड़ ज़मीन भेंट दी. एक किसान के तौर पर उसने बाकी की उम्र गुज़ारते हुए राजनीति में आने की भरसक कोशिशें कीं. बंदूक के आतंक के कारण कभी लोगों पर उसका प्रभाव था, लेकिन बंदूक छूटने के बाद कहां वो असर रहा. महगांव में दो बार पार्षद बने मोहर की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं अधूरी ही रहीं.
कहा जाता है कि गब्बर सिंह का किरदार मोहर सिंह से ही प्रेरित था.
और आखिरकार फिल्मी तड़का
मीडिया की कई रिपोर्ट्स इस बात की तस्दीक करती हैं कि 1975 की फिल्म शोले का बेहद लोकप्रिय किरदार गब्बर सिंह और उसके संवादों की मूल प्रेरणा मोहर सिंह और उससे जुड़ी कहानियां ही रहीं. यही नहीं, 1982 में एक फिल्म ‘चंबल के डाकू’ में मोहर और डाकू रहे उसके भाई माधौ सिंह ने अभिनय भी किया था. एस अज़हर निर्देशित इस फिल्म का प्रचार भी इसी तरह किया गया था कि पहली बार असली डाकुओं को परदे पर देखा जा सकता था.
कुल मिलाकर, ज़िंदगी में जवानी का पूरा वक्त बीहड़ों और फिर जेल में गुज़ारने के बाद बाकी की ज़िंदगी मोहर सिंह ने अपनी अधूरी हसरतों के साथ गांव, पत्रकारों और बच्चों की कई पीढ़ियों को अपनी कहानियां सुना सुनाकर काटी.
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