पुरुषार्थ के अनुसार यथायोग्य सफलता मिलती हैं -ज्योतिष कुमार

*पुरुषार्थ के अनुसार यथायोग्य सफलता मिलती हैं -ज्योतिष कुमार*
*ज्ञान प्राप्ति के बाद अभिमान उत्पन्न हो जाना स्वाभाविक है। परंतु इसका निवारण भी आवश्यक है। उपाय है ईश्वर समर्पण।
सभी लोग अपने जीवन में उन्नति करना चाहते हैं। पुरुषार्थ भी करते हैं। ईश्वर की कृपा से सबको पुरुषार्थ के अनुसार यथायोग्य सफलता भी मिलती है।
जब किसी व्यक्ति को, ज्ञान प्राप्ति आदि किसी कार्य में सफलता मिलती है, तो उसे अभिमान भी उत्पन्न हो ही जाता है। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। यह तो स्वाभाविक प्रक्रिया है। परंतु यदि इस अभिमान को दूर न किया जाए, इसे नष्ट न किया जाए, तो यह बहुत बड़ा विनाश भी कर सकता है।
जैसे टाइफाइड बुखार आदि शारीरिक रोग शरीर को खोखला कर देते हैं । उनका वैद्यकीय चिकित्सा से निवारण करना आवश्यक हो जाता है। उसी प्रकार से काम क्रोध लोभ ईर्ष्या अभिमान आदि दोष भी आत्मा के रोग हैं। ये भी आत्मा को खोखला कर देते हैं। इसलिए इनका निवारण अथवा विनाश करना भी बहुत ही आवश्यक है।
इनके निवारण का क्या उपाय है?
इनका उपाय है ईश्वर समर्पण करना।
ईश्वर समर्पण कैसे किया जाता है?
इसका उत्तर है — कि आप इस प्रकार से सोचें।
एक — हमें शरीर मन बुद्धि इंद्रियाँ धन बल ज्ञान आदि जो कुछ भी मिला है, वह ईश्वर की कृपा से मिला है । ईश्वर की कर्म फल व्यवस्था से मिला है। हम अपने कर्मों का हिसाब किताब स्वयं नहीं रख सकते। इतना हमारा सामर्थ्य नहीं है। इसलिए ईश्वर ही हमारा हिसाब किताब रखता है, इस बात को स्वीकार करना।
दूसरी बात — जो हम कर्म करते हैं, जिन शरीर मन बुद्धि विद्या आदि साधनों से कर्म करते हैं , ये सब साधन भी ईश्वर द्वारा हमें दिए गए हैं। हम इन साधनों को बना नहीं सकते , इनकी रक्षा आदि भी नहीं कर सकते।
तीसरी बात — ईश्वर के दिए सामर्थ्य से जो भी हम कर्म कर पाते हैं, वे सब कर्म हम ईश्वर के समक्ष प्रस्तुत करते हैं। और ईश्वर का बहुत आभार / धन्यवाद करते हैं । और निवेदन करते हैं, कि *हे ईश्वर आप ही अपनी न्याय व्यवस्था से हमारे कर्मों का उचित न्याय पूर्वक फल दीजिए। हमारा सामर्थ्य तो बहुत थोड़ा है । न के बराबर ही है। आप हमें सब प्रकार से सुख दीजिए। हमारी रक्षा कीजिए। हमारे इस शत्रु अभिमान का नाश कर दीजिए। इसी प्रकार से और भी जो काम क्रोध लोभ ईर्ष्या आदि दोष हैं, उन सब का भी आप नाश कर दीजिए। हम आपकी छत्रछाया में ही रहना चाहते हैं। आप हम पर अपनी कृपा बनाए रखिए। यही हमारी आप से प्रार्थना है।
इस प्रकार से सोचने से आपके अभिमान काम क्रोध लोभ आदि सभी दोष दूर हो जाएंगे, और आप सभ्यता नम्रता सेवा परोपकार दान दया आदि गुणों सहित बहुत आनंद से अपना जीवन जी पाएंगे।
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