सबका संदेश के लिए लेखक का परिचय एक उभरती रायपुर अंचल की कलम लीड फाउंडेशन सदस्य ,निडर लेखक सामान्य युवा।
- जाने भी दो यारों …..कल रात सन् 1983 में आई एक फ़िल्म जाने भी दो यारों पहली बार देखी कुछ देर देखने के बाद लगा कि पूरी फिल्म देख लूं। अत्यंत आश्चर्य था कि 1983 में भी भ्रष्टाचार जैसे संवेदन सील मुद्दे पर यह फ़िल्म बनी है । उस समय अगर भ्रष्टाचार इस चरम पर था, और राजनीति एवम बाबूगिरी इस कदर व्याप्त थी कि पुलिस सरकार और बड़े उद्योगपतियों की उस समय भी तूती बोलती थी। कहते है सिनेमा समाज का आईना होता है, उस समय का यह सिनेमा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि अब मैं और तब मैं कोई फर्क नही है । इसका मतलब है हमारे पूर्वजों ने हमे ऐसे ही एक लूले समाज का वारिस बना दिया, जहां बिल्डर, पुलिस ,मंत्री संतरी, बाबू, सब भ्रष्टाचार में लिप्त है। जाहिर है उस समय यह बीमारी जन्म ले चुकी थी लेकिन उसका इलाज समय पर नही किया गया न सरकारो द्वारा औऱ ही हमारे समाज या समाज के ठेकेदारों द्वारा, यहाँ तक कि हमारी पुरानी पीढ़ियों द्वारा किसी क्रांति की चिंगारी को हवा नही मिली,
प्रश्न यह है कि हमने अपने 36 साल इन सब सामजिक बुराईयों के पौधों को एक विशाल वृक्ष बनने दिया और अब यह जवान वृक्ष इस अंधे समाज को कितना जकड़ चुका है। फ़िल्म में अंत में दो पड़े लिखे नायक इतने ईमानदार होने के बावजूद भी कुछ दलालों की चाल का शिकार होकर जेल में बिना जुर्म के भर दिए जाते है। आज भी हालात नही बदले हैं आम आदमी या ईमानदार आदमी का किसी भी प्रकार से अस्तित्व एक संयोग सा है या मानो ऐसे पात्र सिर्फ हसीं ओर मनोरंजन के लिए दुनिया में आये हों, गंदी राजनीति और सामाजिक कुरितियों को अंत करने में हम कछुए से भी ज्यादा मन्द है, जुर्म और आपसी रंजिश नफरत जातिवाद, पश्चिमी सभ्यता, और नशा समाज का अभिन्न अंग हो गया है। आपका प्रश्न होगा अब क्या करे ??
तो आपको में बिल्कुल नही बता पाऊंगा आप बहुत समझदार है समझ गये तो याद कीजिएगा नही तो हमे क्या “जाने भी दो यारों”घने बादलों में दबी एक धीमी बरसात