covid-19- कोरोना काल में मजदूरों को घर बुलाने के बदले लेबर सप्लाई कर रही बिहार सरकार | covid-19-bihar-migrant-laborers-returning-from-other-states-cm-nitish-kumar-government | – News in Hindi

एक तरफ पूरे देश में रोजगार के सिलसिले में रह रहे और घर लौटने को आतुर बिहार के मजदूर सरकार से वापसी की गुहार लगा रहे थे, सरकार ने उनके लिए ट्रेनें बढ़ाने के बदले 7 मई को तड़के राज्य के खगड़िया रेलवे स्टेशन से एक ऐसी ट्रेन चला दी, जिसे हम ठेठ भाषा में ‘पलायन एक्सप्रेस’ कह सकते हैं. इस ट्रेन से कुल 222 मजदूर तेलंगाना के राइस मिलों में काम करने के लिए भेजे गए. पहले तो इस बात को हरसंभव छुपाने की कोशिश की गई. तेलंगाना से ही प्रवासी मजदूरों को लेकर आयी ट्रेन से ये मजदूर भेजे गए थे. इसके लिए तेलंगाना सरकार का वह अनुरोध पत्र वजह बनाया गया था कि उनके 1200 मजदूर बिहार के इस अंचल में फंसे हैं, उन्हें ही इस ट्रेन से भेजा जाना है.
मगर स्थानीय पत्रकारों की तत्परता से यह उजागर हो गया कि जाने वाले लोग तेलंगाना से नहीं, बल्कि बिहार के खगड़िया जिले के ही लोग थे. लोगों ने यह भी सवाल करने शुरू कर दिए कि देश के पिछड़े इलाकों में से कोसी अंचल में भला तेलंगाना के मजदूर क्यों रोजगार के लिए आएंगे? बाद में सरकार ने न सिर्फ इस बात को स्वीकार किया कि दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों के लिए चली इस स्पेशल ट्रेन से तेलंगाना के राइस मिलों को मजदूर भेजे गए हैं, बल्कि यह ढिंढोरा भी पीटा गया कि इस संकट की घड़ी में देश के कई राज्य बिहार से मजदूरों की मांग कर रहे हैं और इससे हमारी श्रम शक्ति सम्मानित हुई है. राज्य के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने बकायदा इसे लेकर बयान जारी किए जो अखबारों में छपे.
यह भी मालूम हुआ कि तेलंगाना सरकार ने बिहार से 20 हजार मजदूरों की मांग की है, ताकि उनके उद्योग धंधे चल सकें. इसके लिए बिहार के कई इलाकों में लेबर कांट्रैक्टर मजदूरों को वहां चलने के लिए प्रेरित कर रहे हैं. लॉकडाउन की वजह से गरीबी, कर्ज और दूसरी परेशानियों में फंसे मजदूर इसके लिए राजी भी हो रहे हैं और जाहिर सी बात है कि बिहार सरकार के सकारात्मक रवैये की वजह से उन्हें इस संकट की घड़ी में काम के लिए दूसरे राज्य ले जाना भी आसान हो रहा है. कहा जा रहा है कि मजदूर स्वेच्छा से जाने के लिए तैयार हैं.
मगर सवाल यह है कि इस कोरोना संक्रमण के दौर में जब लोगों को घर में रहने और अनावश्यक यात्रा करने से परहेज करने के लिए कहा जा रहा है, आखिर एक राज्य सरकार लोगों को दूसरे राज्य जाकर मजदूरी करने के लिए क्यों कह रही है. इस वक्त जब बाहर फंसा एक-एक मजदूर घर लौटने के लिए जान की बाजी लगा रहा है, तो फिर इन मजदूरों को जान-बूझकर संकट में क्यों ढकेला जा रहा है. इस वक्त जब राज्य सरकार को इन मजदूरों का संरक्षक बनना चाहिए था, इनके घरों के पास काम के बेहतर साधन उपलब्ध कराने चाहिए थे, एक राज्य सरकार का लेबर सप्लायर बन जाना और राज्य के उप मुख्यमंत्री का इसे ग्लोरिफाई करना कितना उचित है. सवाल यह भी है कि दूसरे राज्यों में फंसे लोगों के लिए चली ट्रेन को लेबर सप्लाई ट्रेन में बदलने की इजाजत किसने दी.

स्पेशल ट्रेनों से बिहार लौटे मजदूर और छात्र.
सवाल यह भी उठ रहे हैं कि इस महामारी के दौर मजदूरों को दूसरे राज्य भेजने से पहले क्या राज्य सरकार ने इनके नियोक्ता से मजदूरों की सुरक्षा, ढंग के वेतन, काम के घंटों, सोशल डिस्टेंसिंग के मानकों, इनके रहने-खाने की व्यवस्था आदि के बारे में कोई लिखित समझौता किया है. या उन्हें महज तेलंगाना सरकार के अनुरोध पर खतरे में झोंक दिया है. अगर सरकार के स्तर पर मजदूरों की आपूर्ति को लेकर बातें हो रही हैं तो उनके कुछ शर्त तो होने ही चाहिए, ताकि इन मजदूरों की सुरक्षा और उनके हित सुरक्षित रहें. क्या उनके लिए बेहतर मजदूरी, रोजगार गारंटी और भविष्य की सुरक्षा को लेकर कोई बातचीत हुई. अगर नहीं तो मजदूरों की सप्लाई कर श्रम शक्ति का सम्मान होने के दावे महज दिखावा ही तो हैं.दरअसल, मजदूरों के पलायन को लेकर बिहार सरकार का अपना नजरिया कुछ अलग है. उन्हें जहां स्थानीय स्तर पर रोजगार की उपलब्धता बढ़ानी चाहिए थी ताकि लोग छोटी-मोटी मजदूरी के लिए पूरे देश में दर-दर भटकने से बचें, वह गाहे-बगाहे पलायन को बढ़ावा देती है ताकि अपने इन लोगों को रोजगार उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी से वह बचती रहे. इस कोरोना संकट में भी राज्य सरकार ने भरपूर कोशिश की कि कम से कम प्रवासी मजदूर लौट कर अपने घर आ सकें. सरकार की तरफ से बार-बार कहा गया कि जो जहां है, वहीं रहे. जब दूसरे राज्य अपने लोगों को वापस लाने के लिए अलग-अलग प्रयास कर रहे थे, तब बिहार की तरफ से कोई प्रयास नहीं हुए. जब इन मजदूरों के लिए स्पेशल ट्रेनों का परिचालन शुरू हुआ तब भी राज्य सरकार ने कोशिश की कि कम से कम ट्रेनें चले. इससे संबंधित कई खबरें सामने आ चुकी हैं.
इन तमाम उद्धरणों से साफ है कि बिहार सरकार अपने उन लोगों की जिम्मेदारी उठाने के लिए अब बिल्कुल तैयार नहीं है, जो रोजी-रोटी की तलाश में पलायन करते हैं. इस मजबूर पलायन को न्यायोचित ठहराने के लिए अब श्रमशक्ति के सम्मान के रूप में इसे ग्लैमराइज भी किया जा रहा है. इसी साल दो माह पहले उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कह चुके हैं, अगर चांद पर भी रोजगार मिले तो बिहारी वहां भी पहुंच जाएंगे. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी इसे बिहारी हुनर का सम्मान बताने की कोशिश की. मगर वे दोनों इन तथ्यों को बताना भूल गए कि बिहार के जो लोग रोजगार के लिए बाहर जाते हैं, उनमें से 90 फीसदी से अधिक अकुशल क्षेत्र के मजदूर होते हैं. जिनके मेहनताने, रोजगार और भविष्य की कोई गारंटी नहीं होती. उन्हें पांच से 15 हजार रुपए प्रति माह भर की ही आय होती है, महज इसी वजह से उन्हें अपना राज्य, अपना घर, अपना परिवार छोड़ कर हजारों किमी दूर अमानवीय स्थितियों में रहना पड़ता है.
यह कतई बिहार के मानव संसाधनों का सम्मान नहीं है, यह राज्य की गरीबी का सर्टिफिकेट है कि यहां के लिए इतने कम पैसे में देश के किसी भी इलाके में काम करने के लिए जा सकते हैं. दूसरे राज्यों में उनके लिए रोजगार, रहने और भविष्य की सुरक्षा की स्थिति कितनी लचर है, यह इस कोरोना संक्रमण के दौर में साबित हो गया है.
यह सच है कि जब पहले लॉकडाउन के दौरान बिहार के प्रवासी मजदूर लौटने लगे थे तो यहां की सरकार ने मनरेगा का काम शुरू करवाया था, ताकि कुछ लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मिले. बाद में क्वारंटाइन सेंटरों में मजदूर की कुशलता का सर्वेक्षण भी शुरू कराया गया. राज्य सरकार ने यह घोषणा भी की कि स्वस्थ होने पर इन्हें कौशल विकास मिशन की तरफ से प्रशिक्षित किया जाएगा. ये सकारात्मक घोषणाएं भरोसा जगाने वाली थीं कि शायद इस बार राज्य सरकार पलायन रोकने और स्थानीय स्तर पर रोजगार के बेहतर साधन उपलब्ध कराने के बारे में ढंग से सोच रही है.
मगर अब जिस तरह विभिन्न राज्यों को खुद सरकार लेबर सप्लाई करने में जुट गई है, उससे यह प्रतीत होता है कि ये घोषणाएं महज दिखावा थीं. बिहार सरकार इस बहाने बस अपने राज्य के रोजगार की आकांक्षी आबादी का बोझ हटाने की कोशिश कर रही है.
डिस्क्लेमरः यह लेखक के निजी विचार हैं.
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