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इस विदेशी वैज्ञानिक जिसे भारत ने विरोध के बाद गले लगाया और फिर भुला दिया – know about A foreign scientist whom India embraced after protest and then forgot | knowledge – News in Hindi

देश कोरोना वायरस (Coronavirus in India) से बुरी तरह जूझ रहा है. तमाम कोशिशों और बंदिशों के बाद भी संक्रमित लोगों की संख्‍या रोज हजारों में बढती जा रही है. इस दौरान संक्रमितों की पहचान करने के लिए डॉक्‍टरों और स्‍वास्‍थ्‍यकर्मियों से अभद्रता के कई मामले सामने आ चुके हैं. लोग बार-बार कह रहे हैं कि हमने पुरानी महामारियों (Epidemic) से कोई सबक नहीं लिया. दरअसल, देश में 1890 के दशक में जब हैजा (Cholera) फैला तो लोगों ने यूक्रेन के वैज्ञानिक डॉ. वाल्‍डेमर एम. हाफकिन (Waldemar M. Haffkine) का जबरदस्‍त विरोध किया था. बताया जाता है कि यूक्रेन के ओदेसा में जन्मे वाल्डेमर का भारत पहुंचना सिर्फ संयोग ही था. हालांकि, इसके बाद उन्‍होंने 22 साल भारत में ही गुजारे. बाद में 1964 में भारतीय डाक विभाग ने उन पर एक टिकट भी जारी किया. हालांकि, इसके बाद देश को दो महामारियों से बचाने वाले डॉ. वाल्‍डेमर को लोगों ने भुला दिया.

रूस में यहूदी होने के कारण नहीं बनाया गया था प्रोफेसर
हुआ कुछ यूं था कि डॉ. वाल्‍डेमर को 1883 में रूस (Russia) के सेंट पीटर्सबर्ग से डॉक्टरेट तो हासिल हो गई, लेकिन उन्‍हें यहूदी (Jews) होने के कारण प्रोफेसर नहीं बनाया गया. उस समय रूस में जार का साम्राज्य था, जहां किसी यहूदी को इतना बड़ा ओहदा नहीं दिया जा सकता था. इसके बाद स्विट्जरलैंड चले गए. जेनेवा में उन्हें फिजियोलॉजी पढ़ाने का काम मिल गया, लेकिन वह अपने काम से संतुष्ट नहीं हुए. इसके बाद वह अपने गुरु लुई पास्चर के पास पेरिस चले गए, पास्चर इंस्टीट्यूट में उन्हें सहायक लाइब्रेरियन का पद मिला, लेकिन उन्‍होंने वहां रहकर बैक्टीरियोलॉजी पर अपना अध्ययन जारी रखा. यहीं से उन्‍हें हैजा की वैक्सीन बनाने का जुनून सवार हो गया. हाफकिन ने वैक्सीन तैयार की और सबसे पहले मुर्गे और गिनीपिग पर परीक्षण किया और फिर खुद को वैक्सीन का इंजेक्शन लगाया. उनकी बनाई वैक्सीन के दो इंजेक्शन निश्चित अंतराल पर लगवाने होते थे. हालांकि, इसके लोगों पर इस्‍तेमाल की इजाजत नहीं दी गई.

डॉ. वाल्‍डेमर हा‍फकिन ने 42 हजार लोगों पर हैजा की वैक्‍सीन का सफल परीक्षण किया था. (फोटो साभार: हाफकिन इंस्‍टीट्यूट)

कोलकाता में लोगों ने हाफकिन की वैक्‍सीन का किया विरोध
हाफकिन वैक्‍सीन को लेकर उधेड़बुन में थे. इस दौरान उनकी मुलाकात लॉर्ड फ्रेडरिक हेमिल्टन डफरिन से हुई, जो उस समय पेरिस में ब्रिटेन के राजदूत थे. वह भारत के वाइसराय भी रह चुके थे. उस समय भारत में बड़े पैमाने पर हैजा फैल रहा था.लॉर्ड फ्रेडरिक ने उन्‍हें बंगाल पहुंचवा दिया. वह मार्च, 1893 में जब कोलकाता पहुंचे तो उन्‍हें जबरदस्‍त विरोध का सामना करना पड़ा. जर्नल ऑफ मेडिकल बायोग्राफी के मुताबिक, तब यह कहा जा रहा था कि पेरिस में प्रयोग के लिए इस्‍तेमाल किए गए बैक्‍टीरिया और भारत में हैजा फैलाने वाले जीवाणु की किस्म अलग है.

इसलिए उनकी वैक्‍सीन का भारतीयों को कोई फायदा नहीं होगा. यही नहीं, भारतीयों के महामारी को दैवी आपदा मानने ने उनकी मुश्किलों में वृद्धि कर दी थी. लोग हैजा के इलाज के लिए ऐलोपैथिक दवा नहीं लेते थे. विरोधों के बीच हाफकिन ने बंगाल में अपनी प्रयोगशाला तैयार कर ली. लेकिन, जब तक ये सब हुआ तब तक बंगाल में हैजा का प्रकोप खत्म हो चुका था. हालांकि, अवध और पंजाब में इसका प्रकोप जारी था.

42 हजार लोगों पर किया गया हैजा वैक्‍सीन का सफल परीक्षण
हैजा के कारण सबसे ज्‍यादा परेशानी सेना को हो रहा रही थी. लिहाजा, सेना ने हाफकिन से संपर्क किया और वह आगरा पहुंच गए. इसके बाद उन्‍होंने उत्तर भारत की छावनियों में घूम-घूम कर करीब 10 हजार सैनिकों को वैक्‍सीन लगाई. उनका यह प्रयोग सफल रहा. इसके बाद पूरे देश में उनकी वैक्‍सीन की मांग होने लगी. कोलकाता में हैजा लौटा तो वहां उन्हें बुलाया गया. उन्‍होंने असम के चाय बागान मजदूरों और गया की जेल में कैदियों को भी वैक्‍सीन लगाई. बहुत कम समय में उन्होंने 42 हजार से ज़्यादा लोगों को वैक्सीन दी. इसे दुनिया में किसी भी वैक्सीन का पहला सबसे बड़ा ह्यूमन ट्रायल माना जाता है. जल्द ही हाफकिन ने अपनी वैक्सीन को और बेहतर किया. इसके बाद हैजा के बचाव के लिए लोगों को सिर्फ एक ही बार इंजेक्शन लगवाने की जरूरत रह गई.

डॉ. वाल्‍डेमर हाफकिन ने प्‍लेग की वैक्‍सीन मुंबई में रहकर ही बनाई थी.

भायखला जेल के कैदियों पर किया प्‍लेग वैक्‍सीन का परीक्षण
भारत हैजा की महामारी से मुक्त हुआ तो व्यूबोनिक प्लेग ने दस्तक दे दी. प्लेग आधे से ज्यादा संक्रमित लोगों की जान ले लेता था. पहले ही अपनी काबिलियत का लोहा मनवा चुके हाफकिन को प्‍लेग की वैक्सीन बनाने की जिम्मेदारी भी दे दी गई. उन्हें मुंबई बुलाया गया और ग्रांट मेडिकल कॉलेज में उनके लिए प्रयोगशाला बनाई गई. हाफकिन अक्टूबर, 1896 में वहां पहुंचे और तीन महीने के अंदर वैक्सीन बनाकर एक खरगोश पर इसका पहला सफल परीक्षण भी कर लिया.

इस बार भी उन्होंने सबसे पहला मानव परीक्षण अपने ऊपर ही किया. इसके बाद भायखला जेल के कैदियों पर वैक्‍सीन का परीक्षण किया गया. इसके लिए 154 कैदियों को तैयार किया गया. उन्हें पहले प्लेग से संक्रमित किया गया. इस वजह से पहले ही दिन तीन कैदियों की मौत हो गई. अगले कुछ सप्ताह में कुछ और कैदियों की भी मौत हुई. लेकिन, प्रयोग को सफल माना गया. इसके बाद संक्रमण वाले इलाकों में एक हज़ार लोगों को वैक्सीन दी गई. बाद में कहा गया कि यह 50 फीसदी मामलों में ही कामयाब रही.

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