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बदलता जा रहा है ‘जान है तो जहान’ का मुहावरा, अब ‘जहान है तो जान है’ कहने को मज़बूर- corona lockdown idiom of Jaan hai to jahan is turning Now it is jahan hai to jaan hai | business – News in Hindi

बदलता जा रहा है ‘जान है तो जहान’ का मुहावरा, अब ‘जहान है तो जान है’ कहने को मज़बूर

आर्थिक इम्युनिटी पर सोचना पड़ रहा है

विकसित देश जो इतने अमीर हैं कि अपने नागरिकों को दो चार महीने घर बैठाकर भी खाना खिला सकते हैं वे तक भयावह आर्थिक मंदी और बेरोजगारी से भयभीत हैं. और वे भी किसी तरह लॉकडाउन से पिंड छुड़ाने की जुगत में हैं.

सुधीर जैन

कोरोना की पहेली अभी भी अबूझ है. हार थक कर चिकित्सा विज्ञानी रोग प्रतिरक्षा यानी इम्युनिटी के नए रहस्य ढूंढने में लग गए हैं. सारी दुनिया कोविड का टीका खोजने में लगी है. आम आदमी को भी समझ में आने लगा है कि ज्यादा चिंता की बात नहीं क्योंकि मानव के पास प्रकृति की दी हुई एक प्रतिरक्षा प्रणाली है जो कोरोना से बचा ले जाएगी. हालांकि ये पहले से ही पता था कि संक्रामक रोगों से बचाव के लिए मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत होना जरूरी है. फिर भी नई समस्या यह है कि कोरोना से बचाव के लिए हमने जिस लॉकडाउन का तरीका अपनाया उसने कोरोना जैसी दूसरी प्राणघातक बीमारी यानी बेरोजगारी बढ़ा दी. इससे यह पता चला कि जीवन को बचाने के लिए जितनी जरूरत शारीरिक इम्युनिटी की है उतनी ही आर्थिक इम्युनिटी भी जरूरी है. पूरी दुनिया इस समय लॉकडाउन से उपजी प्राणघातक मंदी की चपेट में है. वे विकसित देश जो इतने अमीर हैं कि अपने नागरिकों को दो चार महीने घर बैठाकर भी खाना खिला सकते हैं वे तक भयावह आर्थिक मंदी और बेरोजगारी से भयभीत हैं. और वे भी किसी तरह लॉकडाउन से पिंड छुड़ाने की जुगत में हैं.

बदल गया ‘जान है तो जहान है’ का मुहावरा
कई विकसित देशों ने लॉकडाउन का फैसला करते समय इसी मुहावरे का इस्तेमाल किया था. अपने देश ने भी उसी मुहावरे को अपनाया. जब पहले दौर के लॉकडाउन की मियाद खत्म होने लगी और कोरोना काबू में होता नहीं दिखा तब ‘जान है तो जहान’ वाला मुहावरा बदला जाने लगा और नया मुहावरा आया कि जान भी जरूरी और जहान भी. बात बनानी पड़ी कि दोनों उतने ही जरूरी हैं. लेकिन कोरोना अभी भी काबू में आता नहीं दिख रहा है. ऐसे में लॉकडाउन के दूसरे दौर के बाद इस मुहावरे को फिर से बदलने की मजबूरी आन पड़ी है. अब कहना पड़ रहा है कि जहान है तभी जान है. इसीलिए मजबूरी दिखने लगी है कि आगे कुछ भी हो अब जल्द से जल्द कामधंधे शुरू कराए जाएं वरना गरीब या कमजोर तबका भूख या कुपोषण से मरने लगेगा.आर्थिक इम्युनिटी पर सोचना पड़ रहा है

पहले सोचा नहीं था कि देश के करोड़ों गरीब या मजदूर लॉकडाउन नहीं झेल पाएंगे. यानी देश की एक बहुत बड़ी आबादी की आर्थिक प्रतिरक्षा यानी इकोनोमिक इम्युनिटी कमजोर होने की बात अब पुख्ता हो गई है. आर्थिक क्षेत्र के विद्वान बता रहे हैं कि देश के असंगठित क्षेत्र के करोड़ों कामगार यानी गरीब कमजोर तबका मंदी या बेरोजगारी के भयावह रोग की चपेट में आ गया है. यानी देश की बड़ी भारी आबादी के लिए कोई आर्थिक टीका या दवाई या टॉनिक तलाशने की मजबूरी सामने आ खड़ी हुई है. ऐसे आर्थिक संक्रामक रोग को कोरोना से छोटा संकट नहीं माना जाना चाहिए.

अर्थव्यवस्था पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं
वैसे तो देश की माली हालत को लेकर बहस कोरोना आने के बहुत पहले ही खत्म हो गई थी. अर्थव्यवस्था के सभी पक्षकार मानने लगे थे कि हम भयावह मंदी की चपेट में आते जा रहे हैं. बेरोजगारी की समस्या बेकाबू होती जा रही है. मंदी बढ़ती जा रही थी. बाजार में मांग घटती जा रही थी . नतीजतन उत्पादन तेजी से घट रहा था. यानी जीडीपी घट रहा है. इसका समाधान यह समझा गया कि उत्पादन बढ़ाने को प्रोत्साहित किया जाए. उद्योग जगत को भारी भारी प्रोत्साहन पैकेज देकर देखे गए. लेकिन उसका असर दिखाई नहीं दिया. उसी दौरान ये अबूझ कोरोना आ गया. दुनियाभर के देश इस इमरजंसी में बस लॉकडाउन ही सुझा पाए. वही हमने भी किया और आज दिन तक की स्थिति यह है कि कोरोना से अभीतक निपट नही पाए हैं ऊपर से आर्थिक संक्रमण के मरीजों की जिंदगी बचाने के लिए आर्थिक उपचार ढ़ूढना पड़ रहा है.

प्लाज्मा थेरेपी का सिद्धांत काम आ सकता है क्या?

कोरोना के इलाज के लिए चिकित्सा जगत में प्लाज्मा थेरेपी को इस्तेमाल करके देखा जा रहा है. इसके पीछे सोच यह है कि जिन लोगों के शरीर में कोरोना से लड़ने के लिए एंटीबॉडी विकसित हो गई हैं उनके शरीर से वे एंटीबाॅडी निकाल ली जाएं और उन मरीजों के शरीर में डाल दी जाएं जो कोरोना से नहीं जूझ पा रहे हैं. सवाल है कि क्या यही सिद्धांत या तरीका आर्थिक मरीजों के इलाज में भी काम नहीं आ सकता? अगर ऐसा करना पड़े तो इस आर्थिक संकट काल में अमीरों को तैयार करना पड़ेगा कि वे अपना प्लाज्मा मरणासन्न गरीबों को दान करें. लेकिन यह काम बिल्कुल भी आसान नहीं है. हालांकि सरकार के पास ऐसे कई तरीके होते हैं कि अगर वह अपनी पर उतर आए तो किसी को पता ही नहीं चलता कि किसका प्लाज्मा निकालकर किसे चढ़ा दिया. चिकित्सा विज्ञान की भाषा में इसे पैसिव इम्युनिटी कहते हैं. अगर मानना चाहें तो बिल्कुल मान सकते हैं कि सरकारी खजाना एक तरह से अर्थजगत का प्लाज़्मा ही होता हैं.

बड़ा सवाल ये कि सरकारी खर्च बढ़ाएं कैसे
फर्ज कीजिए सरकारी खजाने से चार छह लाख करोड़ यानी जीडीपी का दो तीन फीसद निकालकर गरीबी के मरीजों के आर्थिक इलाज पर खर्च कर दिए जाएं. इस बात के पक्ष में वकालत करने वाले विद्वान लोग बताते हैं कि सरकारी खजाने से बांटी गई यह रकम देरसबेर वापस सरकारी खजाने में आ ही जाती है. तर्क ये है कि सरकार से राहत, दान अनुदान में मिले पैसे से गरीब आदमी अपनी जरूरत का सामान ही खरीदेगा. यह सामान उद्योग जगत बनाता है. इस तरह मंदी के दौर में अर्थव्यवस्था का चक्का चल पडता है, रोजगार के मौके भी बन जाते हैं. और तब उद्योग और व्यापार से वसूले टैक्स से खजाना फिर भरने लगेगा. उद्योग धंधे फलने फूलने लगेंगे. आखिर उद्योग जगत यही तो चाहता है कि बाजार में खरीददार बढ़ जाएं. अब ये अलग अलग किस्मों की सरकारों के ऊपर है कि वे उद्योग जगत को आर्थिक मदद का टाॅनिक देकर उत्पादन बढ़वाना चाहती हैं या गरीबों तक पैसा पहुंचाकर औद्योगिक माल का बाजार बढ़ाना चाहती हैं.आगे देखते हैं कि मंदी और बेरोज़गारी से निपटने के लिए कौन से देश क्या तरीका अपनाते हैं.

सवाल जोखिम का
जोखिम कहां नहीं होता. कोरोना से जान बचाने के लिए लॉकडाउन भी जोखिमभरा ही साबित हुआ. जिंदगी की हर हरकत जोखिम भरी है. बेशक जहां तक जोखिम का बचाव हो सके उसे जरूर किया जाना चाहिए. लेकिन अगर सरकार अपनी मौजूदा हैसियत से कई गुना खर्च करने का तरीका अपनाती है तो हर हाल में महंगाई आसमान छूने लगेगी. यहां बहस यह की जा सकती है कि सरकारें महंगाई से बचाव इसीलिए किया करती हैं ताकि गरीब और मझोला तबका न मर जाए. सरकारें इसे कबूल भले न करें लेकिन उन्हें पता होता है कि महंगाई को लेकर गरीब तबका इम्यून नही होता. महंगाई गरीब को फौरन ही आर्थिक रूप से बीमार कर देती है. और तब यह तबका अपनी सरकारों से भारी गुस्सा हो जाता है. कई बार गरीब लोग भी सरकारें पलट देते हैं. लेकिन गरीबों को पैसा बांटकर आई महंगाई से डरने की जरूरत नहीं पड़ती. इसका तर्क यह है कि अगर गरीबों को सीधे ही दान अनुदान दिया जाए तो वे महंगाई से तो खुद ही निपट लेंगे. अलबत्ता वैसी हालत में मध्यवर्ग और उच्चमध्यवर्ग पर थोड़ी आफत आती है. इसीलिए आधुनिक राजनीति विज्ञानी अपनी सरकारों को बताते रहते हैं कि मध्यवर्ग को कभी नाराज न करना. हालांकि यह समय किसी वर्ग की नाराज़गी या खुश होने से ज्यादा गरीबी की जान बचाने का है.

महंगाई से बचने का तरीका तो है ही नहीं
उद्योग व्यापार को तेज करवाने के लिए उद्योग जगत को आर्थिक प्रोत्साहन या भारी छूट देने से भी सरकारी खर्च बढ़ता है. उससे भी महंगाई बढ़ती है. तब भी मघ्यवर्ग और उच्चमध्य वर्ग परेशानी में आता है. यानी मौजूदा हालात में मध्यवर्ग पर तो आफत आनी ही आनी है. बस दो में एक विकल्प चुनना पड़ता है. गरीबों को राहत देने के रास्ते से आई महंगाई चुनें या निवेशकों या उद्योग जगत अतिरिक्त मदद देने से उपजी महंगाई को चुनें. रही बात मझोले तबके की तो संकट इतना अपूर्व है कि नौकरीपेशा तबके के महंगाई भत्ते भी टाले जा रहे हैं. सो यह समझ लेना चाहिए कि महंगाई से सबसे ज्यादा पिसना मझोले तबके को ही पड़ेगा. उसे अपनी थोड़ी बहुत जमा पूंजी पर ब्याज की आमदनी घटने के लिए भी तैयार रहना चाहिए.

प्रवासी मजदूरों को आईसीयू में समझा जाए
मरीज की हालत जब ज्यादा नाजुक हो जाती है तो उसे सघन चिकित्सा कक्ष यानी आईसीयू में रखा जाता है. कोरोना और उससे उपजा लॉकडाउन और उससे उपजी प्रवासी मजदूरों की मरणासन्न स्थिति हमारे सामने है. दिक्कत यह है कि अभीतक सभी प्रवासी मजदूरों का रेकाॅर्ड रखा नहीं जाता था सो इस समय किसी को कुछ भी नहीं पता कि देश में प्रवासी मजदूरों की वास्तविक संख्या क्या है. भला हो मीडिया की कुछ खबरों और तस्वीरों का जिसके आधार पर अंदाजा लग पा रहा है कि इनकी संख्या करोड़ों में है. अंदाजन कम से कम पांच करोड़ तो है ही और अगर दस पंद्रह करोड़ निकल आए तब भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए. वैसे भी गांव और कृषि में छदम बेरोजगारी के चलते हमें पता ही नहीं चला कि किस तादाद में गांव से शहरों की तरफ पलायन हो रहा था. बहरहाल लॉकडाउन से उपजे संकट के दौरान यह बात बिल्कुल उजागर हो गई है कि मजदूर और दूसरे कर्मी अब शहर से डरकर अपने घर गांव की तरफ भाग पड़े हैं. तय है कि गांव पर बेरोजगारी का बोझ अचानक बढ़ने वाला है. इसे अपनी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती माना जाना चाहिए.

इस समय बहुत दूर की नहीं सोची जा सकती
इस संकटकाल में बहुत दूर की बात तो बिल्कुल भी नहीं सोची जा सकती. चिकित्सा विज्ञानियों के अनुमानों के मुताबिक कोरोना से जल्द ही पिंड नहीं छूट पाएगा. यानी इसके पूरे आसार हैं कि हाल फिलहाल चार छह महीने तक बड़े कल कारखाने पटरी पर आने वाले नहीं हैं. और आर्थिक मदी के चलते न ही निर्माण की गतिविधियां उस रफतार से शुरू हो पाएंगी. कई महीनों तक निर्यात बढ़ाने की बात तो बिल्कुल भूल ही जाना चाहिए. और जब दो सौ करोड़ की अपनी अर्थव्यवस्था के लिए लॉकडाउन का सवा महीना ही इतना भारी पड़ गया तो आने वाले चार महीनों का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है. हालांकि यह बात भी ठीक है कि पहले जैसे हालात बहाल करने की पारंपरिक कोशिश होती रहनी चाहिए. लेकिन जब हालात असाधारण हों तो नया करने से परहेज भी ठीक नहीं है. इसीलिए यह समय ये सोचने का है कि हम बड़े उद्योगों को ही फिर से खड़ा करने का पुराना उपाय चालू रखें या लघु और कुटीर उद्योगों का नया तंत्र विकसित करने की सोचें. कुलमिलाकर इस दुविधा को दूर करने के लिए अर्थशास्त्रियों को मिलबैठकर सोचना चाहिए और सरकार को अनिमंत्रित सुझाव दे ही डालना चाहिए.

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First published: May 4, 2020, 8:41 AM IST



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