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Big Picture with RKM: आरक्षण और संविधान का मुद्दा भाजपा सरकार के लिए बन गया हैं नासूर? आखिर PM मोदी ने क्यों किया लेटरल एंट्री पर रोलबैक?.. देखिए बिग पिक्चर

Big Picture with RKM : रायपुर। क्या मोदी 3.0 कमजोर सरकार हो गई है? क्या पीएम मोदी मजबूत विपक्ष के ज्यादा दबाव में है? क्या पीएम को अपने सहयोगियों को खुश रखकर चलना पड़ रहा हैं? क्या आरक्षण का मुद्दा सरकार के लिए नासूर बन गया है? क्या मोदी अकेले सरकार चलाने में अक्षम है? (Why did PM Modi take back the decision on lateral entry?) यह तमाम सवाल हैं जो सरकार के रोलबैक के फैसलों के बाद उठ रहे है।

ताजा मामला लेटरल एंट्री के लिए जारी किये गए विज्ञापन को वापस लेने से जुड़ा हैं। इसके बाद एक बार फिर से सवालों ने जोर पकड़ लिया कि आखिर ऐसा करने के पीछे मोदी सरकार की क्या मजबूरियाँ हो सकती है?

बात अगर मोदी सरकार के दस सालों की करें तो उन्होंने अपने दो अहम फैसले ही बदले थे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण था किसानों के लिए लाये गए बिल को वापस लेने का। इस पर टिप्पणी करते हुए पीएम ने कहा था कि शायद उनके तपस्या में कोई कमी रह गई थी जो वह अपने किसानों को समझा नहीं पाए। इसके बाद उन्होंने कई फैसले लिए जिनमें धारा 370, तीन तलाक या फिर नागरिकता संशोधन कानून। इन तीनों ही फैसलों पर पीएम मोदी अडिग रहे और उन्होंने तमाम विरोध प्रदर्शन और अवरोधों के बावजूद इन्हे वापस नहीं लिया। वे अपने इन निर्णयों के साथ अब भी बने हुए है।

पांच फैसलों पर किया रोलबैक

लेकिन बात अगर वर्तमान की करें तो मोदी सरकार को बने तीन महीने हो चुके हैं जबकि इस सरकार ने अपने पांच फैसलों को बदल दिया हैं या कहे उन्हें वापस ले लिया है। इनमें पहला था डेटा प्रोटेक्शन बिल। इस बिल पर जब उद्योग जगत की प्रतिक्रिया सकारात्मक नहीं आई तो इसे वापस ले लिया गया। (Why did PM Modi take back the decision on lateral entry?) इसके बाद सरकार ने ब्रॉडकास्ट के मसौदे से जुड़ा बिल भी लाया था जिसे वापस ले लिया गया। बात वक़्फ़ संशोधन बिल की करें तो भारी विरोध के बाद भी इस बिल को जेपीसी को भेज दिया गया। चौथा उनका निर्णय बजट से जुड़े एलटीसीजी टैक्स रिजीम से जुड़ा था। इस फैसले का भी मिडिल क्लास ने पुरजोर विरोध किया। इसे भी फाइनेंस बिल से हटा दिया गया और अब ताजा मामला लेटरल एंट्री का है। खुद सरकार के सहयोगी भी लेटरल एंट्री से सहमत नहीं थे।

लेकिन बात अगर हम लेटरल एंट्री वाले फैसले की करें तो यह सरकार का कदम सही था। लेटरल एंट्री से सरकार को विषय विशेषज्ञ मिलते हैं जो सरकार के लिए नई पॉलिसी बनाने और योजनाओं के बेहतर क्रियान्वयन के लिए मददगार साबित होते हैं। इस तरह सरकार का यह कदम सही माना जा सकता है। अब सवाल कि क्या लेटरल एंट्री की शुरुआत इसी सरकार ने की? नहीं। सबसे पहले यह दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के दौर में लाया गया था। तब उन्होंने श्वेत क्रांति के जनक माने जानें वाले वर्गीस कुरियन को एनडीडीबी का अध्यक्ष बनाया था। बावजूद इसके कि डॉ वर्गीस कुरियन कोई आईएएस नहीं थे। इसी तरह की सीधी नियुक्तियां इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में भी देखे गए है।

बात सबसे ताजा मामले की करें तो खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी लेटरल एंट्री से सरकार में दाखिल हुए थे। अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह को पहले आर्थिक सलाहकार बनाया गया फिर वित्त सचिव और फिर वह आइबीआई के गवर्नर भी बने। वित्त विभाग के पूर्व संयुक्त सचिव मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी लेटरल एंट्री के उदाहरण है। रघुराम राजन भी लेटरल एंट्री की मिशाल है और इन्होंने देश के विकास और प्रगति के लिए भी काम किया। ((Why did PM Modi take back the decision on lateral entry?)) इस तरह हम मानते हैं कि लेटरल एंट्री सरकार का बेहतर कदम था और इसमें रिजर्वेशन की भी जरूरत नहीं थी क्योंकि यह सिंगल कैडर पोस्ट थे। इस बात को खुद मोदी सरकार ने भी सामने रखा, समझाने की कोशिश की लेकिन, राजनीतिक वजहों से इस पर यह नया फैसला लिया गया।

देखा जायें तो मोदी सरकार पहले ही संविधान और आरक्षण के मुद्दे पर काफी नुकसान सह चुकी हैं। पिछले चुनाव में मिली कम सीटें भी इसकी वजह थी। विपक्ष ने जिस तरह से इन दोनों मुद्दों को भुनाया उससे भाजपा और पीएम मोदी को संकटों का सामना करना पड़ा। उनकी सीटें भी कम हुई और कई जगहों पर हार का सामना करना पड़ा।

ऐसे में अब अपने हर फैसलों पर मोदी सरकार फूंक-फूंक कर कदम रख रही हैं। देखना दिलचस्प होगा कि मोदी क्या उन फैसलों को भी वापस ले पाएंगे जिसका ऐलान उन्होंने लालकिले के प्राचीर से किया था।

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