रतनपुर

करुणा से परिपूर्ण माँ महागौरी का स्वरूप भक्तों की दुःख निवृत्ति एवं सर्वविध अभ्युदय व उद्धार के लिए है…… आचार्य पंडित झम्मन शास्त्री

रतनपुर – पंडित झम्मन शास्त्री महाराज ने बताया – करुणा से परिपूर्ण माँ महागौरी का स्वरूप भक्तों की दुःख निवृत्ति एवं सर्वविध अभ्युदय व उद्धार के लिए है। अंतस् की विकार मुक्त अवस्था निमित्त व चित्तवृत्तियों के निरोध तदन्तर परम तत्त्व की अनुभूति में माँ महागौरी का अनुग्रह सहज सहायक है। करुणा, मुदिता, मैत्री और परोपकार जैसी भावना शान्तिप्रदाता और कल्याणकारक है। करुणा का जन्म द्वैत के निधन के बाद होता है। करुणा किसी अन्य की पीड़ा को अनुभूत कर उसकी सहायता की इच्छा उत्पन्न होने की भावना है। करुणा हमारे हृदय का सर्वाधिक कोमल और मृदुतम भाव है। जब भी हमारे सामने कोई दु:खी प्राणी आता है अथवा जब भी हम किसी दु:खी व्यक्ति को देखते हैं, तो करुणा का भाव जागृत हो जाता है। हमारी चेतना उस प्राणी की तत्कालीन चेतना के तल पर पहुँच कर उसके द्वारा अनुभव किए जा रहे दु:ख को स्वयं अनुभव करती है .. “आचार्यश्री” जी ने कहा – सामान्य अवस्था में करुणा हृदय के भीतर सोई रहती है। पर जैसे ही कोई दु:खी हमारे सामने आता है, हमारे हृदय में सोई हुई वह भावना जाग जाती है, हमारा हृदय उस व्यक्ति के कष्ट की अनुभूति को जानने का प्रयास करता है। इसी को भगवान ने आत्मतुला अवस्था कहा है। करुणा और प्रेम दोनों का जन्म एक ही स्रोत से होता है वह है – मन। प्रेम तब तक करुणा के साथ रहता है जबतक उसमें स्वार्थ न आ जाए और जब स्वार्थ उत्पन्न होता है तो करुणा नहीं होती ।करुणा निश्चय ही प्रेम से बड़ी होती है और यदि प्रेम मे करुणा रहे तो प्रेम अपने चरम रूप मे सामने आता है आचार्य जी ने कहा – मनुष्य का मन अणु से भी सूक्ष्म है, इसलिए उसकी शक्ति अणु से भी विराट है। उसका कोई हिसाब नहीं लगाया जा सकता। उसका जगत अत्यंत विशाल है। उसकी क्षमताएँ अनन्त हैं। क्षण में वह आपके लिए मोक्ष का सृजन कर सकता है और क्षण में ही नरक भी पैदा कर सकता है। आपको उस शक्ति का उपयोग करना आना चाहिए। इस बात के प्रति आपको सदा सावधान रहना चाहिए कि आपका मन और आपके भाव कुमार्गी न बनें। आपके मन में क्रूरता प्रवेश न लेने पाए। अपने मन में करुणा को जन्म दीजिए, मैत्री का भाव बढ़ाइए। ये विधियाँ हैं – मन को मोक्ष में रूपायित करने की …। अष्टमी तिथी यज्ञ पूर्णाहुती मे देवी देवताओं को शाकल्य द्वारा आहुति दी जाती है कैसे शाकल्य बने अधिक मात्रा मे ,तिल हो उसका आधा ,चावल उसका आधा, जौ परयाप्त ,घृत हो गुड, शक्कर ,कमल गट्टा ,चन्दन चूरा जटामासी ,गुग्गुल धूप ये सब देवियों देवताओं को प्रिय है शास्त्री प्रमाण द्वारा ही शाकल्य बनाकर माँ भगवती को प्रशन्न करे।

पूज्य “आचार्यश्री” ने कहा – कण-कण हमें परोपकार की शिक्षा देता है। नदियाँ परोपकार के लिए बहती है, वृक्ष धूप में रहकर हमें छाया देता है, सूर्य की किरणों से सम्पूर्ण संसार प्रकाशित होता है, चन्द्रमा से शीतलता, समुद्र से वर्षा, पेड़ों से फल-फूल और सब्जियाँ, गायों से दूध, वायु से प्राण शक्ति मिलती है। पशु तो अपना शरीर भी नरभक्षियों को खाने के लिए दे देता है। प्रकृति का यही त्यागमय वातावरण हमें निःस्वार्थ भाव से परोपकार करने की शिक्षा देता है …।

पूज्य आचार्यश्री ने कहा – मानव जीवन बड़े पुण्यों से मिलता है उसे परोपकार जैसे कार्यों में लगाकर ही हम सच्ची शान्ति प्राप्त कर सकते है। यही सच्चा सुख और आनन्द है। परोपकारी व्यक्ति के लिए ये सारा संसार कुटुम्ब बन जाता है – ‘वसुधैव कुटुम्बकम्‌’। महर्षि वेदव्यास जी ने कहा है – परोपकार ही पुण्य है और दूसरों को दुःख देना पाप है। “परोपकारः पूण्याय: पापाय परपीडनम्”। अतः मानव को तुच्छ वृक्ति छोड़ कर परोपकारी बनना चाहिए। उसे यथा-शक्ति दूसरों की सहायता करनी चाहिए …।

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