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महामारियों का इतिहास: पार्ट 1 | a history of pandemic part one | nation – News in Hindi

“विश्व इस वक्त कोरोना वायरस के कारण अस्तित्व में आई कोविड19 महामारी का सामना कर रहा है. केवल तीन महीनों में ही इस वायरस ने दुनिया की पूरी आबादी को घेर लिया है. वैज्ञानिक कह रहे हैं कि अब तक के फैलाव से हमारे मानव समाज को झकझोर देने वाले कोरोना वायरस का यदि वज़न तोला जाएगा, तो यह कुल एक ग्राम से भी कम होगा. सोचिये कि एक ग्राम के वायरस ने हमारे विकास के दंभ को घुटने पर ला दिया है. हमें यह समझना होगा कि महामारियां क्यों और कैसे फैलती हैं? क्या इसमें कोरोना की मुख्य भूमिका है या फिर हमारे समाज की? इसकी विकास और जीवन शैली की नीतियों की? यह कोई पहला वायरस नहीं है और पहली महामारी भी नहीं है. इसका शायद कोई न कोई इलाज़ खोज ही लिया जाएगा, लेकिन इससे संकट ख़तम नहीं होगा; हमारी बस इतनी इल्तजा होनी चाहिए कि हम, सभ्य समाज के रूप में, ऐसे कर्म करना अब बंद करें, जो इन वायरसों और बैक्टीरिया को महामारी फैलाने के लिए मजबूर करते हैं. #NEWS18 अपने पाठकों के लिए हमारे स्तंभकार सचिन कुमार जैन द्वारा हिंदी में लिखित ऐसे तीन आलेखों की विशेष श्रृंखला प्रस्तुत कर रहा है, जो महामारियों और उनके स्रोतों के इतिहास के बारे में सरल तरीके से गहरी जानकारी प्रदान करेगी.”

पार्ट 1- वायरस के प्रकोप और इससे होने वाली महामारियों का इतिहास जानना बहुत महत्वपूर्ण है. इससे पता चलता है कि वायरसों ने कब, कहाँ, क्यों, कितना प्रभाव डाला? यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि नए कोरोना वायरस का फैलाव का दायरा अब तक के वायरस के सभी भौगोलिक फैलावों से ज्यादा है. लेकिन इससे होने वाली वाली मृत्यु दर कम है.

इसके फैलाव से यह भी सोचना पड़ रहा है कि क्या इसका मतलब यह है कि वायरसों में पूरी दुनिया में एक साथ छा जाने की क्षमता विकसित हो गयी है? ये सभी तापमानों, सभी पारिस्थितिकी परिस्थितियों में अपना असर दिखाने में सक्षम हो गए हैं? बहरहाल इसके पहले भी प्लेग ने एशिया, यूरोप और अफ्रीका को प्रभावित किया है. मानव इतिहास के साथ कई महामारियां भी जुडी हुई हैं. इन सभी महामारियों के स्रोत पारिस्थितिकी तंत्र और मानव समाज की व्यापारिक गतिविधियों के साथ भी जुड़े हुए हैं. चूहे या गंदे पानी या चमगादड़ या मच्छर कुछ ख़ास वायरसों और बैक्टीरिया के संवाहक होते हैं. मानवीय गतिविधियों और उसकी गतिशीलता के कारण ये वायरस और बैक्टीरिया मानव तक पहुँचते रहे हैं. पिछले 20 सालों का अनुभव बताता है कि मानव जितना जंगलों और वन्य जीवन को प्रभावित करने लगा है, उतना ही वायरस प्रकोप भी बढ़ने लगा है.

पुरातन काल में जब भी कोई महामारी फैलती थी, तो उसे प्लेग ही कहा जाता था. प्लेग को महामारी, देवीय कोप, विपत्ति, उत्पाद आचार भ्रष्टता के पर्यायवाची के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा. मानव इतिहास में महामारियां फैलती रही हैं. चिकित्सा इतिहासकारों के मुताबिक ईसा पूर्व के समय में 41 महामारियों के दस्तावेज मिले हैं. ईसा पश्चात भी दुनिया में महामारियां फैलती रही हैं. इनके उपचार नहीं होने के कारण हर बार महामारियों में कुछ लाख से कुछ करोड़ लोगों तक की मृत्यु हुई है. एक तरह की कहावत रही है कि प्लेग सिन्धु नदी पार नहीं कर सकता यानी महामारियां भारत को प्रभावित नहीं करती थीं, लेकिन 19वीं शताब्दी में उपनिवेशवाद भारत में प्लेग और हैजा सरीखी महामारियां भी ले आया. आज़ादी के बाद हमें केवल आर्थिक सम्पन्नता की जरूरत भर नहीं थी, बल्कि स्वस्थ जीवन का लक्ष्य भी तय किया जाना था, जो नहीं किया गया.वायरस और बैक्टीरिया यानी क्या?

हमें यह समझना होगा कि महामारियां वायरस (विषाणु) के कारण भी फैलती हैं और बैक्टीरिया (जीवाणु) के कारण भी. वायरस अपने आप में एक सूक्ष्म अकोशिकीय जीव होता है, जो कई हज़ार सालों तक सुसुप्तावस्था में रह सकता है. इसका व्यवहार एक बीज की तरह होता है, जब बीज को मिटटी-नमी-पानी-हवा-सूरज की रौशनी में मिलती है, तब बीज अंकुरित होता है, उसी तरह वायरस भी किसी जीवित कोशिका (जैसे मानव शरीर में प्रवेश) के संपर्क में आकर सक्रिय हो जाता है. कोरोना का उदाहरण बताता है कि यह वायरस मानव की लार, खून या आंसू के संपर्क में आकर यह सक्रिय हो जाता है और अपना वंश बढाने लगता है. ये जिस कोशिका से जुड़ते हैं, उसे संक्रमित कर देते हैं. वायरस लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ होता है लसलसा तरह या जहरीला.

जबकि बैक्टीरिया का मतलब है जीवाणु यानी जीवित अणु या कोशिकीय जीव; ये शरीर के भीतर भी रहते हैं और बाहर भी. हमारे पाचन तंत्र में करोड़ों बैक्टीरिया होते हैं, जो पाचन में मदद भी करते हैं. ज्यादातर बैक्टीरिया अच्छे होते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया मानव के लिए घातक भी होते है. मसलन प्लेग की बीमारी बैक्टीरिया से फैलती है. इसका मतलब है कि जब संतुलन बिगड़ा और मानव ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण किया, तब महामारी फैली.

एंटोनाइन प्लेग (वर्ष 165) 

ईसा पश्चात 165 से 180 के बीच एशिया मिनोर (दक्षिण-पूर्वी एशिया और वर्तमान टर्की), मिस्र, ग्रीस और इटली में एक किस्म का बैक्टीरिया संक्रमण फैला था, जिसे एंटोनियन प्लेग या गेलें प्लेग की महामारी कहा गया. इसके बारे में यह पता नहीं चला कि यह कौन सी बीमारी थी किन्तु इसे चेचक या खसरा माना गया.

तथ्य बताते हैं कि जब रोम की सेनायें मेसोपोटामिया से वापस लौटीं, तब यह संक्रमण रोम में आया. किसी को इसके बारे में कोई अंदाज़ ही नहीं लग पाया और यह फ़ैलता गया. इस संक्रमण ने तब 50 लाख लोगों की जान ली थी और रोम की पूरी सेना को लगभग नष्ट कर दिया था. इस संक्रमण की व्याख्या करने वाले रोमन चिकित्सक गेलें के नाम पर इसे “गेलें प्लेग” कहा जाने लगा. इस संक्रमण से रोमन सम्राट लूसियस वेरस की वर्ष 169 में मृत्यु हो गयी थी. वे मार्कस औरेलियस एंटोनिनस के सह-राजप्रतिनिधि थे. इसीलिए उस वक्त फैली महामारी को एंटोनाइन प्लेग महामारी नाम दे दिया गया.

रोमन इतिहासकार डियो कैसियस के मुताबिक़ नौ साल बाद यह महामारी फिर से फैली. इससे हर रोज़ लगभग 2000 लोगों की मृत्यु हुई. बीमारी से संक्रमित एक चौथाई लोगों की मृत्यु हुई. कुछ क्षेत्रों में तो एक तिहाई जनसंख्या समाप्त हो गयी थी.

जस्टिनियन प्लेग (वर्ष 541-42)

वर्ष 541-42 में जस्टिनियन प्लेग ने यूरोप की एक बड़ी आबादी को ख़तम कर दिया था. आंकलनों के अनुसार इससे 2.5 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. इस ब्युबोनिक प्लेग के संक्रमण ने बयजैंटाईन साम्राज्य और मेडीटेरेनेनियन के तटीय शहरों को बहुत प्रभावित किया था. आधुनिक और प्राचीन यर्सिनिया पेस्टिस डीएनए के आनुवंशिक अध्ययनों से पता चलता है कि जस्टिनियन प्लेग की उत्पत्ति मध्य एशिया में हुई थी. इस पिस्सू के डीएनए के अध्ययन से पता चला कि इसकी जड़ें चीन के किंगहाई में थीं, फिर इसकी जड़ें तिआन शान पर्वत श्रंखला में भी पायी गयीं. यह माना जा सकता है कि मानवीय गतिशीलता के कारण बैक्टीरिया और इसके संवाहक भी एक स्थान से दूसरे स्थान की तरफ गए. व्यापारियों द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले जहाज़ों से ही चूहे भी सफ़र करते थे. इन चूहों पर प्लेग से संक्रमित पिस्सू सवार रहते थे. जब चूहों की मृत्यु होती, तो ये पिस्सू इंसानों पर सवार होने लगते. जो प्लेग का मुख्य कारण बने. 

काली मृत्यु का तांडव ब्लेक डेथ (वर्ष 1346-1353)

वर्ष 1346 से 1353 के बीच में फैले ब्युबोनिक प्लेग ने यूरोप, अफ्रीका और एशिया को लगभग तबाह कर दिया था. माना जाता है कि इसके कारण 7.50 करोड़ से 20 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. यह प्लेग अक्टूबर 1347 में यूरोप पहुंचा, जब “ब्लेक सी” (काले सागर) के तट पर मेस्सिना के सिसिलियन बंदरगाह पर 12 जहाज़ आकर रुके. जो लोग बंदरगाह पर मौजूद थे, वे जहाज़ का दृश्य देख कर भोंचक रह गए. जहाज पर यात्रा कर रहे ज्यादातर सैलानी मरे हुए थे. और जो जीवित थे उनके शरीर काले फफोलों से भरे हुए थे, जिनमें से खून और मवाद रिस रहा था. सिसिलियन के अधिकारियों ने तत्काल इन जहाज़ों को बंदरगाह छोड़ने का आदेश दिया, किन्तु तब तक देर हो चुकी थी. प्लेग का बैक्टीरिया अपना स्थान बना चुका था और अगले पांच सालों में इसने यूरोप की एक तिहाई जनसँख्या यानी लगभग 2 करोड़ लोगों की जान ले ली.

चूहों के साथ सफ़र करते हुए संक्रमित पिस्सुओं ने अपना प्रभाव दिखाया था. चूहों के मरने के बाद वे इंसानों पर आक्रमण करने लगे थे. बहरहाल इन जहाज़ों के आने से पहले ही यूरोपीय समुदाय इस संक्रमित महामारी के बारे में सुन रखा था, जो व्यापार मार्ग के जरिये दुनिया के दूसरे हिस्सों में अपनी पहुँच बढ़ा रहा था. इस प्लेग का वायरस 2000 साल पहले एशिया में पाया गया और व्यापारिक परिवहन के जरिये फैलता गया. हांलाकि अध्ययन यह भी बता रहे हैं कि प्लेग का रोग पैदा करने वाले बैक्टीरिया यूरोप में 3000 साल पहले विद्दमान रहे हैं.

इटालियन कवि जियोवानी बोकासीको ने “इन मेन एंड वीमेन अलाइक” में लिखा – कुरूपता की शुरुआत में, कुछ सूजन, या तो कमर पर या कांख के नीचे … कहीं आम के तो कहीं अंडे के आकार के फोड़े, जिन्हें नाम दिया गया – प्लेग फफोले;

वर्ष 1664-65 में लन्दन में महामारी फैली थी. उस वक्त लन्दन की 4 लाख की आबादी में से दो-तिहाई आबादी ने लन्दन छोड़ दिया था. और बचे हुए लोगों में से 69 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी थी. महामारी ने 1894 में हांगकांग में कहर बरपाया, 1896 में इसने रूस को अपने शिकंजे में लिया.

प्लेग की तीसरी महामारी वर्ष 1855 में फैली. इसकी शुरुआत चीन के युन्नान प्रांत से हुई और पूरे महाद्वीप में फ़ैल गयी. तब भारत और चीन में 1.2 करोड़ लोगों की मृत्यु हुई थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह बैक्टीरिया वर्ष 1960 तक सक्रिय था.

हैजा (1852-60)

हैजे की सात महामारियां फैली हैं, जिनमें से तीसरी सबसे भयावह मानी जाती है. इसने 10 लाख लोगों का जीवन लील लिया था. पहली और दूसरी हैजा महामारी की तरह ही तीसरी भी भारत में ही पैदा हुई थी. गंगा नदी के डेल्टा से उभर कर यह एशिया के अन्य भागों, यूरोप, उत्तरी अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंची. ब्रिटिश चिकित्सक जान स्नो ने लन्दन की गरीब बस्तियों में अध्ययन करते हुए यह पाया कि हैजा दूषित पानी के कारण फैलता है. उसी साल में (वर्ष 1854 में) ब्रिटेन में यह महामारी फैली और 23 हज़ार लोगों की मृत्यु हो गयी.

हैजे की छठी महामारी ने वर्ष 1910-11 में भारत में 8 लाख से ज्यादा लोगों की जान ली थी. इसके बाद यह मध्य-पूर्व, उत्तर अफ्रीका, पूर्वी यूरोप और रूस तक फैला.

स्पेनिश फ्लू/एशियाटिक फ्लू/इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर)

इन्फ़्ल्युएन्जा एक वायरस (एच1 एन1, 2, 3) के कारण पैदा होने वाली स्वास्थ्य स्थिति है. फ्लू की महामारी 1889-90 में भी फैली थी. तब इसे एशियाटिक या राशियन फ्लू भी कहा गया था. इसके मामले दुनिया में एक साथ तीन जगहों पर मिले थे – बुखारा (तुर्केस्तान), अथाबास्का (उत्तर-पश्चिम कनाडा) और ग्रीन लैंड. जनसँख्या की सघनता ने इसे फैलने में मदद की. इसके कारण 10 लाख लोगों की मृत्यु हुई.

वर्ष 1918-20 की महामारी को स्पेनिश फ्लू की महामारी के नाम से भी जाना जाता है. तीन सालों में इसने 50 करोड़ लोगों को संक्रमित किया था. अनुमान लगाया जाता है कि इसके कारण 2 करोड़ से 10 करोड़ लोगों की मौत हुई थी. चूंकि वह पहले विश्व युद्ध का दौर था इसलिए महामारी की ख़बरें सार्वजनिक करने पर रोक थी. केवल स्पेन ने महामारी के बारे में जानकारियाँ देने की पहल की. आम तौर पर इन्फ्लूएंजा के कारण बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती रही है, किन्तु स्पेनिश फ्लू ने युवाओं की मृत्यु दर को बढ़ा दिया था. वर्ष 2007 में हुए अध्ययनों के आधार पर बताया गया कि इन्फ्लूएंजा का संक्रमण इतना घातक नहीं था किन्तु स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, कुपोषण, बस्तियों के सघन होने के कारण यह महामारी घातक हो गयी थी. यह उल्लेखनीय है कि इसके संक्रमण ने लम्बे समय तक व्यक्तियों को बीमार बनाए रखा और मृत्यु का बड़ा कारण साबित हुआ. इसने भारत में भी 1.2 करोड़ लोगों की जीवन ले लिया.

इन्फ़्ल्युएन्जा (श्‍लैष्मिक ज्‍वर) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में संक्रमित हो सकता है. इस बीमारी में मुख्य रूप से बुखार, सर्दी/नाक बहना, गले में खराश, बदन दर्द सरीखे ही लक्षण होते हैं. आशंका है कि फ्लू की ऐसी ही महामारी मानव समाज में फिर से कभी भी फैल सकती है. वर्ष 1918-20 की अवधि में जब यह महामारी फैली थी तब शुरू के 25 हफ़्तों में ही 2.50 करोड़ लोगों की मृत्यु हो गयी थी. इस महामारी के पहले इन्फ़्ल्युएन्ज़ा से बच्चों और बुजुर्गों की मृत्यु ज्यादा होती थी, किन्तु इस महामारी के दौरान युवा उम्र के स्वस्थ लोगों की भी बहुत मौतें हुईं, जबकि जिनकी प्रतिरोधक क्षमता बेहतर थी, वे जीवित बचे रहे. यहाँ तक कि वंचित तबकों में मज़बूत प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों की मृत्यु दर कम रही.



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