Irrfan Khan Death news – इरफान खान: बुझ गया जमाने को आंखें दिखाता दीया | nation – News in Hindi


बॉलीवुड अभिनेता इरफान खान का आज मुंबई में निधन हो गया
इरफान खान, राजकपूर के बाद हिंदी सिनेमा के ऐसे दूसरे अभिनेता थे जो संवाद से ज्यादा असर अपनी आंखों से पैदा करते थे.
और जब वे संवाद बोलते थे, तो वे संवाद हिंदी सिनेमा के सितारों से बिल्कुल अलग होते थे. उनकी डायलॉग डिलीवरी राजकुमार, दिलीप कुमार या अमिताभ बच्चन की तरह भारी शब्दों की वजनदार अभिव्यक्ति में दबी नहीं होती थी. इसके उलट वे तो अटक अटक कर बोलते थे. शब्दों को खोजते हुए, पहले बोले हुए शब्द हो दूसरे शब्द से काटते हुए और अंतत: पूरे संवाद को एक सवाल के रूप में छोड़कर आगे बढ़ते हुए.
अभिनय के व्याकरण को तोड़ने वाला यह अभिनेता सुपर सितारों से भरे हिंदी फिल्म उद्योग में अपनी अलग पहचान बनाए हुए था. उसने अभिनय को स्टारडम तक पहुंचाने का माद्दा हासिल किया था. यहां तक पहुंचने में उसने एक बहुत लंबा सफर तय किया था. आज जब दूरदर्शन का पर्दा एक बार फिर 1980 के दशक के नाटकों से भरा पड़ा है तो हम पलटकर देखें तो वहीं कहीं इरफान का करियर भी शुरू हो रहा था. एक इंटरव्यू में इरफान ने बताया था कि किस तरह भारत एक खोज में उन्हें एक बहुत ही छोटा रोल मिला था. इरफान याद करते हैं कि उस समय भी श्याम बेनेगल ने उनकी प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें अच्छा अभिनेता बताया था, लेकिन इसके बावजूद उन्हें बड़ी भूमिकाएं मिलने में वर्षों लग गए.
ये भी पढ़ें: कैंसर भी नहीं हरा सका पर मां की मौत के सदमे ने ले ली इरफान खान की जान!हिंदी सिनेमा ने इरफान को पहचाना उनकी मशहूर फिल्म मकबूल से. इस फिल्म में पंकज कपूर, नसीरुद्दीन शाह, ओम पुरी और तब्बू के बीच नायक बने इरफान ने दर्शकों के सामने एक ऐसे नायक का किरदार पेश किया, जिसके भीतर नायक और खलनायक दोनों बसते थे. एक ऐसा नायक जो अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए रिश्तों को ताक पर रख देता है और अंत में अपराधबोध से ग्रस्त होकर मरता है. असल में इस फिल्म में वे शेक्सपियर एक ट्रेजडी जी रहे थे, जो ट्रेजडी उन्हें स्थापित करने वाली थी और छोटे से जीवन में उनके साथ बनी रहने वाली थी.
उनकी ट्रेजडी और खासियत दोनों यही थी कि वे फॉर्मूला फिल्में नहीं कर रहे थे, उनका समय कला फिल्मों का समय भी नहीं था. ऐसे में वे मुख्यधारा की फिल्मों में ही कला और संवेदना को परोसते रहते थे. अपनी ज्यादातर फिल्मों में वे एक आदमी, सतह से उठते आदमी के तौर पर दिखाई देते हैं. ये भूमिकाएं उन्होंने एक दम मौलिक अंदाज में निभाई हैं. वे यह भूमिकाएं इसलिए इतने मौलिक अंदाज से उठा सके, क्योंकि वे खुद पस्तहाली से आगे बढ़े थे. राजस्थान के एक छोटे से कस्बे से फिल्मों की राजधानी मुंबई तक का सफर और फिर मुंबई में कई दशक के संघर्ष के बाद मिली कामयाबी, उनकी अभिनय से मौलिकता को नहीं छीन सकी.
एक ऐसे समय पर जब उनकी आंखों को और भी बहुत से सवाल पूछने थे और हिंदी सिनेमा में बहुत सा नया काम करना था, मौत बीमारी का रूप धरकर उनके ऊपर सवार हो गई. वे एक उद्भ्रांत धूमकेतु की तरह लंबे संघर्ष के बाद चमके और चमक के उरूज पर ही अस्त हो गए.
उनकी यह असामयिक मौत उन्हें उससे बड़ा सितारा बना देगी, जितने कि वे थे. भारतीयों का मानस ही ऐसा होता है कि वे उसे ज्यादा याद करते हैं जो रण के बीच में ही शहीद हो गया हो. वे लोगों की स्मृति में उसी तरह हलचल पैदा करती रहेगी जिस तरह की हिलोर आज भी संजीव कुमार, स्मिता पाटिल या दिव्या भारती की याद उठाती है. हिंदी मीडियम जैसी फिल्में करने वाला यह अभिनेता अपनी अचकचाती आंखों और दुनिया के छलक्षद्म से अचकचाए हुए आम आदमी की तरह याद आता रहेगा.
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First published: April 29, 2020, 12:45 PM IST