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कोरोना आफत को अवसर में बदलने की सलाह दे रहे हैं PM मोदी, राज्य हैं इसके लिए तैयार? | coronavirus outbreak significance of pm narendra modi advice to state to make reforms plan | – News in Hindi

अगर रिफॉर्म करने की दिशा में राज्य आगे बढ़ते हैं, तो इस संकट को हम बहुत बड़े अवसर में बदल सकते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने ये बात सोमवार को तमाम राज्यों के मुख्यमंत्रियों से कोरोना महामारी (Covid-19 Pandemic) के संदर्भ में उठाये जा रहे कदमों की समीक्षा के दौरान हुई वीडियो कांफ्रेंसिंग में कही. इस संदर्भ में पीएम मोदी ने राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तारीफ भी की, जिन्होंने कोरोना महामारी के इस दौर में कारखानों में श्रमिकों के लिए काम के घंटे आठ से बढ़ाकर 12 कर दिए हैं.

हर बड़ा संकट एक नई विश्व व्यवस्था को जन्म देता है, नई संभावनाएं बनती हैं. पिछले दो महीने से पूरी दुनिया कोरोना से त्रस्त है. ज्यादातर देशों में आर्थिक गतिविधियां ठप पड़ी हैं, लॉकडाउन आम बात है. लेकिन जो बड़ा फर्क आया है, वो चीन के बारे में वैश्विक समुदाय के नजरिये को लेकर. अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान सहित जहां कई बड़े देश इस महामारी के प्रसार के लिए चीन को जिम्मेदार ठहराते हुए उसकी कड़ी आलोचना कर रहे हैं, जिसके वुहान शहर से ये महामारी दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में फैली. चीन ने लंबे समय तक इस बारे में आपराधिक चुप्पी साधे रखी और दुनिया को इस बारे में जल्दी सचेत नहीं किया. जब देर से बताया भी, तो भी वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालने की कोशिश की.

पूरी दुनिया की निगाह में चीन खलनायक की भूमिका में है. जो देश राजनयिक और आर्थिक कारणों से चीन के सामने खुलकर बोल नहीं रहे हैं, वो भी अंदर से नाराज हैं. चीन के प्रति नाराजगी का आलम ये है कि दुनिया के कई बड़े देश मैन्युफैक्चरिंग का काम चीन से बाहर ले जाने की तैयारी में लग गए हैं. जापान तो इस मामले में पहले से ही मुखर है.

जिस तरह से चीन मैन्युफैक्चरिंग में अपनी महारत के कारण पूरी दुनिया में अपनी जड़ जमाने में पिछले तीन दशकों में कामयाब रहा है और फिर आर्थिक नीतियों और कूटनीति को प्रभावित करने की कोशिश की है, उसके बाद पहली बार वो इस तरह के बड़े संकट का सामना कर रहा है. दुनिया के ज्यादातर देश चीन की जगह किसी और देश में सामानों की मैन्युफैक्चरिंग के बारे में सोचने लगे हैं.

पीएम मोदी ने खुलकर चीन का नाम तो नहीं लिया है, लेकिन उनका संकेत राज्यों के लिए यही है. मेक इन इंडिया का नारा पिछले कई वर्षों से बुलंद करते हुए दुनिया के प्रमुख देशों को वो भारत में अपने सामान का निर्माण करने की दावत हर संभव प्लेटफार्म के जरिये देते रहे हैं. पिछले कुछ वर्षों में इसमें एक हद तक सफलता भी मिली है, लेकिन कोरोना के इस संकट ने भारत के लिए और बड़ा अवसर पैदा कर दिया है.

नब्बे के दशक में वैश्विक अर्थव्यवस्था का उदारीकरण होने और विश्व व्यापार में बढ़ोतरी के लिए डब्ल्युटीओ जैसे संगठन जब अस्तित्व में आए, तो चीन और भारत दोनों इसका लाभ उठाने की हालत में सबसे सक्षम थे, क्योंकि श्रम की लागत इन दोनों देशों में कम थी और बहुत बड़ा श्रमिक बल इनके पास था, जो दुनिया के अन्य देशों के पास नहीं था. उस दौर में चीन भारत के मुकाबले बाजी मार ले गया. साम्यवादी देश होने के बावजूद पूंजीवादी व्यवस्था का उसने सबसे अधिक लाभ उठाया. देंग जियाओ पिंग की अगुआई में चीन एक नई राह पर, नये संदेश के साथ आगे बढ़ा- कम्युनिस्ट देश लेकिन पूंजीवादी तड़के के साथ.

चीन ने अपने पूर्वी किनारे पर मैन्युफैक्चरिंग के लिए जरूरी सभी संसाधन जुटाए, नियमों को आसान बनाया, कारखाने लगाने के लिए फटाफट मंजूरी दी, श्रम तो मुहैया था ही, श्रम कानूनों को भी लचीला बनाया, बिजली से लेकर जमीन के पट्टे तक, सब कुछ आसानी से दिया. परिणाम ये हुआ कि चीन अगले तीन दशक में दुनिया का सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरिंग हब बन गया. अगर संयुक्त राष्ट्र सांख्यिकी विभाग की तरफ से 2018 के लिए जारी हुए आंकड़े को देखें, तो ग्लोबल मैन्युफैक्टरिंग आउटपुट के हिसाब से चीन अपने बाकी प्रतियोगियों के मुकाबले बड़ी मार्जिन के साथ नंबर 1 पर बैठा हुआ दिखाई देता है.पूरी दुनिया में सामानों का जितना निर्माण 2018 में हुआ, अगर उसका मूल्य डॉलर के हिसाब से निकाला जाए, तो उसमें 28.4 प्रतिशत हिस्सेदारी चीन की रही, जबकि दुनिया की एक मात्र महाशक्ति का तमगा हासिल करने वाले अमेरिका की हिस्सेदारी महज 16.6 प्रतिशत की. इसके बाद जापान, जर्मनी और दक्षिण कोरिया का नंबर आया. भारत महज तीन प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ छठे पायदान पर रहा. इस ट्रेंड में 2019 में भी कोई बड़ा बदलाव नहीं आता दिखा. दिसंबर के बाद से कोरोना काल में समीकरण बदलते दिखे, लेकिन जल्दी ही पूरी दुनिया इसकी चपेट में आ गई. ऐसे में चीन की पोजिशन में कोई बड़ा बदलाव आया हो, इसकी संभावना नहीं.

सवाल ये उठता है कि भारत 1990 के दशक में उदारीकरण और वैश्वीकरण की आंधी का जो लाभ चीन के सामने उठा नहीं पाया, उसको क्या कोरोना काल की दुनिया में अपने हक में इस्तेमाल कर सकता है, जब चीन के सामने वैश्विक समुदाय की नाराजगी काफी अधिक है, खास तौर पर यूरोप और अमेरिका के तमाम विकसित देशों की. ये देश इस बात से भी खासे विचलित और दुखी हैं कि जब कोरोना के दौर में चीन से अच्छे उत्पादों की दरकार थी, तो चीन ने महंगी दर पर घटिया मेडिकल उपकरण और मास्क सप्लाई किये, जो कोरोना के सामने लड़ाई के लिए अनुपयोगी थे. यहां तक कि चीन के चंपू पाकिस्तान जैसे देश में भी लोगों को रोना इस बात का रहा कि मास्क के नाम पर ब्रा के टुकड़ों को चीन ने उनके पास भेज दिया.

इसके मुकाबले भारत ने कोरोना के इस वैश्विक संकट के समय जो दवा हाईड्रोक्लोरोक्वीन रामबाण की तरह पूरी दुनिया में इस्तेमाल हो रही है, उसको न सिर्फ अपने पड़ोसी देशों को दिया है, बल्कि तमाम विकसित देशों को भी, जिसमें अमेरिका से लेकर फ्रांस और ब्राजील से लेकर इटली तक, सबका समावेश है. मास्क और वेंटिलेटर की सप्लाई तो की ही है.

भारत ने कोरोना के सामने लड़ाई में जो ग्लोबल गुडविल हासिल की है, उसका फायदा भली-भांति उठाया जा सकता है. पीएम मोदी को इस बात का अंदाजा है, इसलिए बिना ज्यादा शोर किये वो राज्यों को अपनी तैयारी करने के लिए कह रहे हैं, संकट के बीच बड़ी संभावनाएं देखते हुए. इसी सिलसिले में अशोक गहलोत की तारीफ करना भी शामिल है.

सामान्य दौर में अगर आठ घंटे की जगह बारह घंटे फैक्ट्रियों में श्रमिकों के काम करने का प्रावधान किसी राज्य या मुख्यमंत्री ने किया होता, तो श्रम संगठनों से लेकर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विपक्षी दलों ने हंगामा कर दिया होता, लेकिन आज हालात ये हैं कि देश के पीएम विपक्षी पार्टी के मुख्यमंत्री की इस बात के लिए तारीफ कर रहे हैं और ज्यादा शोर भी नहीं हो रहा है.

दरअसल, अर्थव्यवस्था पर बारीक नजर रखने वाले लोगों को पता है कि 1991 में मजबूरी में ही सही, लेकिन उदारीकरण की राह पर भारत आगे तो बढ़ा, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग के मामले में वो चीन को टक्कर क्यों नहीं दे पाया, क्यों मुकाबला नहीं कर पाया. भारत की अपनी प्रजातांत्रिक व्यवस्था और लालफीताशाही ही इसकी राह में सबसे बड़ी बाधा रही. कुछ राज्य जहां पर मैन्युफैक्चरिंग के लिए जरूरी कारकों के मामले में हालात बेहतर थे, वो लाभ तो ले पाए, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल सहित तमाम राज्य इस मामले में पिछड़ गये बाद में कइयों पर बीमारू का गंदा सा तमगा भी लग गया.

रुढ़ीवादी श्रम कानूनों, जमीन अधिग्रहण की पेचीदगियों, राजनीतिक इच्छा शक्ति के अभाव, आधारभूत सुविधाओं की बदहाली और खराब कानून-व्यवस्था, ये वो तमाम कारण रहे, जो दुनिया की कंपनियों को हमारे पास बड़े पैमाने पर आने से रोकते रहे और साम्यवादी चीन बाजार अर्थव्यवस्था की सबसे बड़ी मंडी बन गया. क्योंकि न तो वहां के राजनीतिक नेतृत्व को किसी के प्रति उत्तरदायी होना था और न ही तमाम किस्म की सुविधाएं मुहैया कराने में कोई अड़चन थी. चोलबे ना, चोलबे ना का शोर वहां मचने वाला नहीं था, उसके वैचारिक अनुयायी जब यही काम पश्चिम बंगाल में कर रहे थे.

पूरे तीन दशक बाद हमारे पास मौका है। केंद्र में पीएम मोदी की अगुआई में एक ऐसी सरकार बैठी है, जो भारत को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का सपना देखने में लगी हुई है और इसके लिए पिछले कुछ वर्षों में कुछ बड़े कदम भी उठाये हैं। मसलन कॉरपोरेट के लिए आय कर को घटाना और इसे 15 फीसदी तक ला देना वैश्विक तौर पर भारत को तुलनात्मक रुप से आकर्षक बना देने की दिशा में एक बड़ा कदम है. निवेश के लिए मंजूरी देने संबंधी कानूनों को लगातार आसान बनाया जा रहा है, गैरजरूरी व्यवधानों को हटाया जा रहा है.

मेक इन इंडिया अभियान को बढ़ावा देने के लिए उद्योग और वित्त मंत्रालय ही नहीं, दुनिया के तमाम देशों में मौजूद भारत के दूतावास भी गंभीरता से लगे हुए हैं. भारत में निवेश के क्या फायदे हैं, भारत की सांस्कृतिक विरासत और साम्यवादी चीन के मुकाबले मानवीय दृष्टिकोण को भी समझाया जा रहा है। लेकिन बात सिर्फ इससे बनने वाली नहीं है.

अगर भारत को ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग हब बनना है, तो इसमें राज्यों की भूमिका सबसे अहम रहने वाली है. बाहर से कोई भी कंपनी जब फैक्ट्री लगाने के लिए भारत का रुख करेगी, तो वो मोटे तौर पर आधा दर्जन मुद्दों को ध्यान में रखेगी. सबसे बड़ी बात, कारखाना लगाने के लिए उसे जमीन कितने सस्ते भाव पर और कितनी जल्दी मुहैया कराई जा सकती है. राज्य सरकार कितनी जल्दी अनुमति देने की औपचारिकता को पूरा करती है, ये भी बड़ा फैक्टर रहने वाला है. बिजली और पानी की उपलब्धता, गंदे पानी के निकास और प्रोसेसिंग की व्यवस्था, कॉमन स्टीम प्लांट मुहैया होना और कारखानों से बंदरगाह तक जल्दी सामान को पहुंचाने की आधारभूत व्यवस्था, ये सब भी महत्वपूर्ण आधार हैं, जिसे ध्यान में रखते हुए विदेशी कंपनियां किसी दूसरे देश में प्लांट लगाने के बारे में सोचती हैं. देश के ज्यादातर राज्यों को इस पर काम करना है, साथ में श्रम कानूनों को भी लचकदार बनाना होगा.

जमीन का अधिग्रहण समवर्ती सूची में है. हर राज्य अपनी सुविधा के हिसाब से कानून में बदलाव कर सकता है. सरकारों के पास अपना रिजर्व लैंड है, जहां रिजर्व लैंड नहीं है, वहां संबंधित जमीन मालिकों को समझा-बुझाकर जमीन मुहैया कराना, ये सब करना होगा. आज किसी भी कंपनी के पास ज्यादा धैर्य नहीं है, कोई भी कंपनी ये बर्दाश्त नहीं कर सकती कि वो जमीन के लिए महीनों तक इंतजार करती रहे. राज्य सरकारों को इसके लिए पहले से तैयारी करके रखनी होगी.

भारत के हक में जो बातें हैं, उसमें सबसे प्रमुख है सस्ते श्रम की उपलब्धता. चीन में श्रम की लागत विकासशील और विकसित देशों के बीच है और बहुत जल्दी वो विकसित देशों के आसपास पहुंच जाने वाली है. भारत की स्थिति इस मामले में आकर्षक है. यही नहीं, भारत के पास पैंतीस साल से कम उम्र की सबसे बड़ी जनसंख्या है, दुनिया में सबसे ज्यादा साइंस और इंजीनियरिंग ग्रेजुएट भारत के पास हैं. यानी कुल मिलाकर सस्ता श्रम, बड़ा टैलेंट पुल और स्किल्ड मैनपावर की उपलब्धता भारत को मानव संसाधनों पर होने वाले खर्च के मामले में दुनिया के बाकी देशों की तुलना में काफी सस्ता और आकर्षक बना देता है, चीन के मुकाबले तो निश्चित तौर पर. दुनिया में सबसे अधिक अंग्रेजी बोलने वाले वाले लोग भी भारत में ही हैं यानी संवाद के मामले में भी आसानी, चीन में ये बड़ी समस्या है.

लेकिन सस्ता श्रम और उपयोगी श्रमिक तो ठीक, राज्यों को और भी काफी काम करने होंगे. जमीन, पानी, बिजली, अनुकूल श्रम कानून, सड़क और बंदरगाह की उपलब्धता के साथ-साथ अच्छी कानून और व्यवस्था को भी सुनिश्चित करना होगा. कल्पना कीजिए कि 1990 के दौर में कौन उत्तर प्रदेश और बिहार में निवेश करने जाता, जहां दिन-दहाड़े अपहरण हो रहे थे और कारोबारियों-उद्यमियों से रंगदारी वसूल करना आम बात थी, महज कुछ हजार रुपयों के लिए हत्या हो जानी रुटीन घटना थी और कोई एक उद्योग सबसे अधिक अगर बिहार जैसे राज्य में फल-फूल रहा था, तो वो था अपहरण उद्योग. स्वाभाविक तौर पर अपहरण उद्योग और मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े उद्योग एक साथ नहीं चल सकते थे.

पश्चिम बंगाल ने ट्रेड यूनियनों की गुंडागर्दी और हड़ताल की बड़ी कीमत अदा की. जिस पश्चिम बंगाल में शुरुआती दौर में तमाम बड़ी कंपनियां मौजूद थीं, वहां से ज्यादा का पलायन शुरु हुआ, इकाइयां बंद होने लगीं, विदेश से आने की बात कौन कहे. सबसे विवादास्पद और चर्चित किस्सा रहा, कोलकाता के पास सिंगुर से टाटा नैनो की फैक्ट्री का उठकर जाना. विडंबना ये रही कि वामपंथी शासन के दौरान टाटा को कार फैक्ट्री के लिए जमीन दी गई और ममता बनर्जी के हिंसक आंदोलन के कारण रतन टाटा को सिंगुर छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ा. 2008 के उस वर्ष में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के एक एसएमएस- वेलकम टु गुजरात से संकेत हासिल कर रतन टाटा महज कुछ दिनों के अंदर सिंगुर की जगह अहमदाबाद के नजदीक साणंद में अपनी फैक्ट्री के लिए जमीन हासिल कर उस पर निर्माण कर फैक्ट्री चलाने में कामयाब रहे. ये उदाहरण ये बताने के लिए काफी है कि कानून-व्यवस्था और निर्णय लेने की रफ्तार, ये दोनों ही तथ्य उद्ममियों के लिए कितने महत्वपूर्ण रहते हैं किसी राज्य में जाने और वहां फैक्ट्री लगाने के लिए.

पिछले तीन दशक में देश की राजनीति में बड़ी तब्दीली आई है. मजबूरी ही सही, विकास की राजनीति की बात हर राज्य, हर सत्तारुढ़ दल करने में लगा है, निवेश सम्मेलन फैशन में हैं। ऐसे में ये बड़ा मौका है भारत के लिए और खासकर बिहार और यूपी जैसे राज्यों के लिए, जो नब्बे के दशक में मैन्युफैक्चरिंग का लाभ नहीं उठा पाए थे. आज यहां पर नीतीश कुमार और योगी आदित्यनाथ की अगुआई वाली सरकारें हैं, जो कानून-व्यवस्था में बड़ा सुधार लाने में कामयाब रही हैं और जिनके समय में शासन बेहतर हुआ है. अगर वो जरूरी व्यवस्था कर लें, तो संभव है कि चीन में फिलहाल उत्पाद तैयार कर रही जो कंपनियां, चीन से बाहर निकलने के लिए सोचें तो वो यूपी और बिहार का रुख करें, क्योंकि इनके पास सबसे सस्ता श्रम है. आखिर यूपी और बिहार के श्रमिक ही तो दूसरे राज्यों की ज्यादातर फैक्ट्रियों को चलाते हैं.

मौका गुजरात, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश जैसे उन राज्यों के लिए भी है, जो उदारीकरण का लाभ उठाने में नब्बे के दशक में कामयाब रहे. उनके पास पिछले मौके से लाभ उठाने का अनुभव भी है और भविष्य में संभावित मौके के लिए तैयारी भी। मसलन पीएम मोदी के अपने गृह राज्य गुजरात में कुछ महीने पहले, दिसंबर 2019 में बैंक ऑफ अमेरिका को गांधीनगर स्थित गिफ्ट सिटी में अपना ग्लोबल बिजनेस सर्विस सेंटर स्थापित करने की अनुमति महज सात मिनट में मिल गई. बैंक ऑफ अमेरिका, जो अमेरिका का दूसरा सबसे बड़ा बैंक हैं, उसके शीर्ष अधिकारी भी अनुमति की इस रफ्तार पर चौंक गये। जल्दी से अनुमति देना तो एक तरफ, हर जिले में जमीन के बड़े टुकड़े पहले से छांटकर रखने, हर बड़ी विदेशी परियोजना के लिए एक खास आदमी को लगा देना, अलग-अलग उद्योगों के लिए अलग-अलग हब की योजना, धोलेरा जैसे विशेष निवेश क्षेत्र की परियोजना, ये सभी कदम इसी तैयारी के संकेत हैं. कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे कई और राज्य भी इसी किस्म की तैयारी में लगे हैं.

अगर भारत को कोरोना के इस दौर में संकट को अवसर में बदलना है, तो रफ्तार हर राज्य को तेज करनी होगी. मोदी सरकार ने केंद्र के स्तर पर अपनी तैयारी शुरू कर दी है. पीएम मोदी ने अपने विश्वासपात्र और अनुभवी अधिकारियों को एमएसएमई और वित्त मंत्रालय में डाल दिया है, ताकि किसी भी मौके को हाथ से बाहर जाने नहीं दिया जाए. बड़ी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों के लिए एंसीलरी यानी जरूरी पुर्जे बनाने वाली सहायक फैक्ट्रियों की आवश्यकता होती है. इसके लिए सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों यानी एमएसएमई को वेग देने की तैयारी है. सबसे ज्यादा रोजगार आखिर यही सेक्टर जो देता है. आर्थिक नीतियों को वैश्विक स्तर पर भी प्रतियोगी बनाने की तैयारी है. हो सकता है ब्याज दरों को भी और कम किया जाए, ताकि पूंजी की लागत कम हो. इसी लिए फटाफट इस मामले में निर्णय लेने वाले अधिकारियों को लगा दिया गया है.

लेकिन केंद्र के साथ ही राज्यों को भी दौड़ना होगा, अगर मौके का फायदा उठाना है तो. राज्य अपने कदम तेजी से बढ़ाएंगे, तभी दुनिया को भारत के पास आना फायदेमंद दिखेगा. फैक्ट्रियां लगाने के लिए प्लग एंड प्ले जैसी व्यवस्था करनी होगी यानी चट मंगनी पट ब्याह जैसी तेजी के साथ फैक्ट्रियां लग जाए और उनसे उत्पादन शुरु हो जाए, इस तरह की सुविधा और व्यवस्था. यही नहीं, ये भी सुनिश्चित करना होगा कि फैक्ट्रियों में अगर सामान बन रहा है, तो वो कितनी तेजी से संबंधित बाजार में पहुंच जाए. उदाहरण के तौर पर चीन की फैक्ट्रियों में बनने वाले वस्त्र अमूमन 17 दिन में अमेरिका के शॉपिंग मॉल में पहुंच जाते हैं, उसके मुकाबले भारत से पहुंचने में ये 25 दिन से डेढ़ महीने तक समय ले लेते हैं.

अगर राज्यों के नेतृत्व ने इन तमाम पहलुओं पर गंभीरता से विचार किया और इसे हल करने की कोशिश की, तभी भारत के पास कोरोना के संकट के बीच अचानक आए इस बड़े मौके का फायदा उठाने की सुविधा होगी. अन्यथा लाभ भारत की जगह कोई और ले जाएगा. मुकाबले में वियतनाम, ताइवान, मलेशिया और इंडोनेशिया और ब्राजील से लेकर हमारा अपना पड़ोसी बांग्लादेश भी है. अगर हम इस बड़ी आफत के बीच हासिल हो रहे मौके का फायदा उठा पाए, तो ठीक अन्यथा तीन दशक पुरानी कहानी फिर दोहराई जाएगी, फर्क सिर्फ ये होगा कि लाभ इस दफा चीन की जगह कुछ और देश उठा ले जाएंगे. पीएम मोदी इसी मौके का लाभ उठाने के लिए राज्यों को संकेत दे रहे हैं, सुधार के रास्ते पर आगे बढ़ने की उनसे अपील कर रहे हैं, अब राज्यों को तय करना है कि भारत को दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना है या फिर रेस में पिछड़ जाना है. मौका है, मैदान मारिए सूबेदार!



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