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#जीवनसंवाद : बड़े मन की जरूरत ! | jeevan samvad motivational talk by dayashankar mishra about need of big heart | jeevan-samvad – News in Hindi

हम सब मदद शब्द का खूब उपयोग करते हैं. भरपूर मदद की अपेक्षा भी रखते हैं. यह एक सहज, स्वाभाविक स्वभाव है, लेकिन ऐसा हो क्यों नहीं पाता. अक्सर उस वक्त जब हम दुनिया की ओर मदद के लिए देख रहे होते हैं, लोग हम तक क्यों नहीं पहुंच पाते. इसके बहुत से कारण हैं. लेकिन इसके भौतिक कारण बहुत कम हैं. मदद , मनोवैज्ञानिक फैसला है. जिसे हम अक्सर चीज़ों में खोजते हैं. मदद का निर्णय हम नहीं, हमारा मन करता है. उसमें प्रेम-अनुराग जितना अधिक होगा, हमारा व्यवहार उतना ही सुखद होगा! हमें मन को ‘बड़ा’ करने के बारे में निरंतर सोचने की जरूरत है. सोचने से एक कदम आगे मन को कैसे ‘बड़ा’ किया जाए, कैसे उसे व्यवहार में लाया जाए इस तरफ बढ़ने की जरूरत है.

जेफरसन मेडिकल कॉलेज, फिलाडेल्फिया (अमेरिका) में मनोचिकित्सा के प्रोफेसर डॉक्टर सलमान अख्तर बड़ी खूबसूरत बात कहते हैं – ‘मदद करना अगर आसान होता तो बेहद नेक हर इंसान होता’.

मुझे यह बात ऐसे वक्त याद आ रही है जब हम सब मनुष्यता के सबसे बड़े संकटों में से एक से जूझ रहे हैं. मुश्किल वक्त है, लेकिन यह भी गुजर जाएगा. अपनी उम्र के 9वें दशक में पहुंचे एक बुजुर्ग ने कल एक बहुत अच्छी बात कही. उन्होंने कहा यह संकट भी अंततः गुजर जाएगा. लेकिन जिस तरह हम एक-दूसरे के लिए मन छोटा करते जा रहे हैं, उसका हासिल क्या है! एक-दूसरे के लिए अपना हाथ- साथ संकुचित करके हम अपने लिए ही कांटे बोते जा रहे हैं.

मैं जिस सोसाइटी में रहता हूं, यहां जो लोग ‘लॉकडाउन’ के पहले चरण में घरेलू सहायकों को काम पर न आने की सलाह देते हुए यह कह रहे थे कि उनका वेतन नहीं रोका जाएगा. बहुत जल्द उनका मन ‘छोटा’ होता जा रहा है. अब यही लोग बात कर रहे हैं कि अगर लॉकडाउन दो महीने चलेगा तो क्या हम बिना काम के भुगतान करेंगे. प्रश्न मुझसे भी पूछा गया. बेहद विनम्रता के साथ मेरा स्पष्ट निर्णय है, जितने भी महीने तक यह एकांतवास चलेगा, हम बिना काम के अपने घरेलू सहायक का भुगतान करेंगे. इसमें कोई लेकिन, किंतु, परंतु नहीं है.जो घरेलू सहायक हमारे यहां सेवारत हैं उनका परिवार कई घरों में सेवा देता है. उनमें से 50% ने अप्रैल के बाद भुगतान से इनकार किया है. हम यहां एक बहुत छोटे उदाहरण के साथ इसलिए जा रहे हैं क्योंकि आप जिस भी व्यक्ति, धर्म, ईश्वर, विचारधारा में यकीन रखते हों, उससे क्या अपने लिए मांगते हैं! मजेदार चीज है कि आप मांगते तो मदद हैं लेकिन केवल अपने लिए. यह प्रार्थना कभी पूरी नहीं हो पाएगी. ऐसी प्रार्थनाएं हमेशा अधूरी रहती हैं, जिनका क्षेत्र व्यापक नहीं होता. जिनमें मानवता के लिए जगह नहीं होती.

मनुष्यता और मानवता की सबसे पहली चीज़ है, दूसरों के साथ वही कीजिए जो आप अपने लिए चाहते हैं. संभव है आप में से कुछ लोगों को यह उदाहरण बहुत प्रासंगिक न लगे, लेकिन मैं केवल इतना दोहराना चाहता हूं कि मनुष्यता कोई हिमालय पर चढ़ने और वहां से घोषणा करने जैसी चीज़ नहीं है. यह लोक व्यवहार की बात है. सहज, चिंतन और निर्णय की चीज़ है. कोरोना के संकट काल में जितना हम से हो सकता है, जितने की हमारी पात्रता है, उससे ही बहुत सारे संकट हल हो सकते हैं. जीवन में ‘बड़ा’ मन बहुत अधिक जरूरी है. जब कभी हम दूसरों के लिए दरवाजे बंद करते हैं, तो उसका एक असर यह भी होता है कि हमारे लिए भी कोई न कोई दरवाजा बंद हो रहा होता है.

हम अपने लिए जैसी दुनिया चाहते हैं, जो सुख चाहते हैं, उसका कुछ रचनात्मक सृजन तो हमें भी करना होगा. मदद छोटी लग सकती है, लेकिन असल में वह उसके लिए इतनी छोटी नहीं होती जिसे मिल रही होती है.

छोटा सा स्मरण : यह बात 1975 की है. हममें से अनेक लोगों के जन्म के पहले की. अपने गांव से बस पकड़ने के लिए साठ किलोमीटर दूर किसी तरह जिला मुख्यालय पहुंचे एक युवा के पास किराए के लिए ₹1 कम पड़ गए. माथे पर चिंता, आंखों में आंसू तैर रहे थे. मन में संकोच, किससे कहें. अगर यहां से लौट गए तो फिर यहां तक आ कैसे आना हो पाएगा. तभी एक सज्जन ने बिना कुछ कहे, उस युवा को ₹1 देकर टिकट लेने के लिए प्रेरित किया. पलक झपकते ही वह अपनी मदद का एहसास कराए बिना भीड़ में गुम हो गया. उस ₹1 की मदद ने युवा की जिंदगी हमेशा के लिए बदल दी.

अगर आप जानना चाहें तो मैं आपको इस युवा के बारे में बता सकता हूं. वह मेरे पिता हैं. वह आज भी उस ₹ 1 का कर्ज चुकाने की कोशिश कर रहे हैं. मदद कभी छोटी नहीं होती. कम से कम हमारा पारिवारिक अनुभव तो यही कहता है!

दयाशंकर मिश्र
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