बतंगड़ः ‘मंदिर खोजो अभियान’ पर भागवत का ब्रेक
– सौरभ तिवारी
देश के विवादित धर्म स्थलों पर हिंदू पक्ष की ओर से अपना दावा जताने की बढ़ती प्रवत्ति पर आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की ओर से की गई टिप्पणी ने भाजपा और आरएसएस के अंतरसंबंधों की नये सिरे से व्याख्या करने के साथ ही हिंदू समाज में आरएसएस की स्वीकार्यता की समीक्षा का भी मौका दे दिया है। पुणे में आयोजित सहजीवन व्याख्यानमाला में भागवत ने कहा कि,”अयोध्या के राम मंदिर के निर्माण के बाद कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि वे ऐसे मुद्दे उठाकर हिंदुओं के नेता बन जाएंगे। इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।” अपने इस बयान के जरिए भागवत ने किस हिंदू नेता को कटघरे में खड़ा किया ये तो उन्होंने साफ नहीं किया, लेकिन उन्होंने विरोधियों को भाजपा को कटघरे में खड़ा करने का मौका जरूर दे दिया है।
देश में इन दिनों चल रहे ‘मंदिर खोजो अभियान’ के संदर्भ में भागवत की ये टिप्पणी इसलिए मायने रखती हैं क्योंकि ये समझाइश किसी भाजपा विरोधी ने नहीं बल्कि उसके मेंटॉर माने जाने वाले आरएसएस के प्रमुख की ओर से दी गई है। इस बयान के सियासी अहमियत को इसी बात से समझा जा सकता है कि आरएसएस से नफरत की हद तक विरोध जताने वाले मौलाना और विपक्षी नेता भी मोहन भागवत के बयान पर लहालोट होते हुए भाजपा को आइना दिखाने में जुट गए हैं।
मोहन भागवत ने विवादित धार्मिक स्थलों के सर्वे को लेकर कोर्ट में दाखिल किए जा रह मामलों पर चिंता जताते हुए ये भी कहा कि, ” राम मंदिर का निर्माण इसलिए किया गया क्योंकि यह सभी हिंदुओं की आस्था का मामला था। हर दिन एक नया मामला उठाया जा रहा है। इसकी अनुमति कैसे दी जा सकती है?” भारत में रहने वाले सभी हिंदुस्तानियों का डीएनए एक होने की दलील देते हुए मोहन भागवत पहले भी हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने की प्रवत्ति पर सवाल उठा चुके हैं। भागवत की ओर से जताई गई हालिया आपत्ति पर भाजपा ने तो रणनीतिक चुप्पी साध रखी है लेकिन धर्माचार्यों और कट्टर हिंदूवादी समर्थकों ने अपने-अपने स्तर पर मोर्चा खोल दिया है। एक मोर्चा धर्माचार्यों ने तो दूसरा मोर्चा सोशल मीडिया में कट्टर हिंदूवादी विचारकों ने खोल दिया है।
तुलसी पीठाधीश्वर जगदगुरू रामभद्राचार्य ने तो भागवत के बयान को अदूरदर्शी बताते हुए ये तक कह दिया कि आरएसएस हमारा शासक नहीं है और हिंदू समाज अपना अधिकार लेकर रहेगा। ज्योतिर्मठ पीठ के शंकरचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने भी मोहन भागवत पर राजनीतिक रूप से सुविधाजनक रुख अपनाने का आरोप लगा दिया है। अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने कहा, “जब उन्हें सत्ता चाहिए थी, तब वे मंदिरों के बारे में बोलते रहे. अब जब उनके पास सत्ता है तो वे मंदिरों की तलाश ना करने की सलाह दे रहे हैं।” कुछ इसी तरह की असहमति दूसरे हिंदू धर्माचार्यों ने भी जताई है। IBC24 की ओर से प्रयागराज में आयोजित ‘महाकुंभ में महामंथन’ शो में मौजूद धर्माचार्यों ने भी कब्जाए गए हिंदू धार्मिक स्थलों की मुक्ति के लिए संघर्ष जारी रखने की बात कहकर आरएएसएस से अलग राह चलने का ऐलान कर दिया है।
उधर सोशल मीडिया में भी आरएसएस प्रमुख के खिलाफ तीखी टिप्पणियां पढ़ने-सुनने को मिल रही हैं। 15 सालों से सरसंघचालक के पद पर काबिज 74 वर्षीय मोहन भागवत को उनकी उम्र का हवाला देते हुए अब रिटायर हो जाने की सलाह दी जा रही है। IBC24 की वेबसाइट में मोहन भागवत के बयान पर लिए गए ऑनलाइन ओपिनियन पोल में भी 75 फीसदी से ज्यादा लोगों ने विवादित धार्मिक स्थलों का सर्वे कराए जाने के पक्ष में अपनी राय दी है। हिंदू धर्माचार्यों के मुखर विरोध, सोशल मीडिया में की जा रही टिप्पणियों से एक बात तो साफ हो गई है कि बहुसंख्यक जनों को मोहन भागवत की धार्मिक स्थलों के सर्वे के खिलाफ जाहिर की गई असहमति रास नहीं आई है।
वैसे ये कोई पहला मौका नहीं है जब आरएसएस प्रमुख ने विवादित धार्मिक स्थलों पर अपना अधिकार जताने के प्रयासों से खुद को अलग किया है। अयोध्या के राम मंदिर पर फैसले के बाद मोहन भागवत ने साफ कर दिया था कि आरएसएस आगे कोई ऐसा आंदोलन नहीं चलाएगा। और ये भी पहली बार नहीं है जब मोहन भागवत ने अपने रुख से भाजपा को असहज स्थिति में डाला है। पिछले साल भर के घटनाक्रमों और उस पर की गई मोहन भागवत की टिप्पणियां इस बात की परिचायक हैं कि भाजपा और उसकी मातृसंस्था के बीच संबंध नरम-गरम चल रहे हैं। लोकसभा चुनाव के बाद नागपुर में हुए एक सार्वजनिक समारोह में उन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान हुई सियासी बयानबाजी को गलत ठहराते हुए अप्रत्यक्ष रूप से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कटघरे में खड़ा कर दिया था। मोहन भागवत ने ये कहकर भाजपा को सकते में डाल दिया था कि, “असली जनसेवक वही है जो अहंकार नहीं दिखाता और सार्वजनिक जीवन में काम करते हुए भी मर्यादा बनाए रखता है।” इससे पहले मोहन भागवत जातीय संघर्ष से ग्रस्त मणिपुर में एक साल बाद भी शांति कायम नहीं होने पर भी चिंता जता चुके थे।
तो क्या भाजपा और उसकी मातृसंस्था आरएसएस के बीच नजर आ रही वैचारिक असहमति दोनों के संबंध संक्रमण काल से गुजरने का संकेत दे रही है। इसकी पुष्टि तब भी हुई थी जब भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान ये कह दिया था कि,” भाजपा अब सक्षम हो गई है और उसे अब आरएसएस के सहारे की जरूरत नहीं है।” लेकिन ये अलग बात है कि 400 पार का नारा देने वाली भाजपा अपने बलबूते बहुमत जुटाने में अक्षम साबित हुई और उसे जदयू और टीडीपी के सहारे की जरूरत पड़ गई। आरएसएस के बिना अपनी हैसियत का अंदाजा लगने के बाद भाजपा हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में एक बार फिर ‘संघं शरणमं गच्छामि’ को मजबूर हुई और इसका प्रतिफल सत्ता के रूप में मिला।
विवादित धार्मिक स्थलों के सर्वे के खिलाफ मोहन भागवत की ताजा टिप्पणी ने एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भावी भूमिका को लेकर उत्सुकता जता दी है। देखने वाली बात ये भी रहेगी कि हिंदुत्व को नये सिरे से परिभाषित करने की ये पहल हिंदू जनमानस को कितनी स्वीकार्य होती है। फिलहाल हिंदुत्व का पैरोकार वर्ग राजनीति और सामाजिक दोनों क्षेत्र में ‘TINA'(देयर इज नो अल्टरनेटिव) इफेक्ट में है। TINA इफेक्ट की ही ताकत है कि तमाम असहमतियों के बावजूद हिंदू समाज के लिए राजनीति में BJP और सामाजिक क्षेत्र में RSS उनकी प्रतिनिधि संस्था के रूप में स्थापित हैं।
– लेखक IBC24 में डिप्टी एडिटर हैं।