धर्म

अहंकार रोकता है – जीवन ऊर्जा के प्रवाह को पं राजेंद्र दुबे

बिलासपुर जिले के ग्राम रामतला में सात दिवसीय संगीत में श्रीमद् भागवत कथा का भव्य आयोजन कथा सुनाते हुए पंडित राजेंद्र दुबे कहा – अहंकार रोकता है – जीवन ऊर्जा के प्रवाह को। ऐसा कौन सा अकल्याण है, जो अहंकार से उत्पन्न न होता हो। काम, क्रोध, लोभ आदि विकारों का जनक अहंकार को ही माना गया है। अहंकार और लोभ एक-दूसरे के अभिन्न साथी है। जहाँ एक होगा, वहाँ दूसरे का होना अनिवार्य है। परमार्थ कार्यों में अहंकार का समावेश अमृत में विष और पुण्य में पाप का समावेश करने के समान होता है। वैसे तो अहंकारी कदाचित ही उदार अथवा पुण्य परमार्थी हुआ करते हैं। पाप की गठरी सिर पर रखे कोई पुण्य में प्रवृत्त हो सकेगा, यह सन्देहजनक है। पुण्य में प्रवृत्त होने के लिए सबसे पहले पाप का परित्याग करना होगा। स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए रोगी को पहले रोग से मुक्त होना होगा। लोक-परलोक का कोई भी श्रेय प्राप्त करने में अहंकार मनुष्य का सबसे विरोधी तत्व है। लौकिक उन्नति अथवा आत्मिक प्रगति पाने के लिए किये जाने वाले प्रयत्नों में अहंकार का त्याग सबसे प्रथम एवं प्रमुख प्रयत्न है। इसमें मनुष्य को यथाशीघ्र तत्पर हो जाना चाहिए। अहंकार के त्याग से उन्नति का मार्ग तो प्रशस्त होता ही है, साथ ही निरहंकार स्थिति स्वयं में भी बड़ी सन्तोष एवं शाँतिदायक होती है …।

पं दुबे ने कहा – दर्पण जल और र्स्फाटक में प्रकाशित सूर्य का प्रतिबिम्ब सभी ने देखा है। इस सत्य से भी कोई अनभिज्ञ नहीं है कि सूर्य के प्रतिबिम्ब का अस्तित्व सूर्य के कारण ही दिखलाई देता है। वस्तुतः प्रतिबिम्ब का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। अब ऐसी दशा में प्रतिबिम्ब अपने को सूर्य मान बैठे तो यह उसकी भूल ही होगी। जीवात्मा का भी अपना अस्तित्व कुछ नहीं है। वह भी शरीर रूपी दर्पण में परमात्मा का प्रतिबिम्ब मात्र है। यदि मनुष्य स्वतः अपने अस्तित्व को अपनी विशेषता मान बैठे तो यह उसकी ही भूल होगी। किन्तु, खेद है कि अज्ञान के कारण मनुष्य यह भूल करता है। उसे समझना तो यह चाहिए कि उसके अंतःकरण में जो परमात्म नाम का तत्व विराजमान है, उसी की विद्यमानता शरीर में चेतना उत्पन्न करती है, जिसके बल पर मनुष्य सारे विचार और व्यवहार करता है। परमात्म जब अपनी इस चेतना को अंतर्निहित कर लेता है, तब यह चलता फिरता चेतन शरीर जड़ होकर मिट्टी बन जाता है। किन्तु, मनुष्य सोचता यह है कि उसका शरीर अपना है, उसकी चेतना अपनी है, अपनी सत्ता से ही वह सारे कार्य व्यवहार करता है। यह मनुष्य का मिथ्या अहंकार है।जीवन प्रगति में मनुष्य का अहंकार बहुत बड़ा बाधक है। इसके वशीभूत होकर चलने वाला मनुष्य प्रायः पतन की ओर ही जाता है। श्रेय पथ की यात्रा उसके लिये दुरूह एवं दुर्गम हो जाती है। अहंकार से भेद बुद्धि उत्पन्न होती है, जो मनुष्य को मनुष्य से ही दूर नहीं कर देती, अपितु अपने मूलस्रोत परमात्मा से भी भिन्न कर देती है। परमात्मा से भिन्न होते ही मनुष्य में पाप प्रवृत्तियाँ प्रबल हो उठती है। वह न करने योग्य कार्य करने लगता है। इस प्रकार अहंकार के दोष से मति विपरीत हो जाती है और मनुष्य को गलत कार्यों में ही सही का भान होने लगता है …।

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