स्वाभिमान
एक बार हज़रत उमर अपने नगर की गलियों से गुज़र रहे थे, तभी उन्हें एक झोपड़ी से एक महिला व बच्चों के रोने की आवाज़ सुनाई दी। वे रुके, फिर जिज्ञासावश झोपड़ी के भीतर झांक कर देखा तो पाया कि एक महिला अपने रोते हुए चार बच्चोें को चुप करा रही थी, लेकिन साथ-साथ स्वयं भी रो रही थी।
हज़रत उमर ने सोचा कि बच्चे भूख से बिलख रहे होंगे और खाना अभी तैयार नहीं हुआ होगा। उन्होंने चूल्हे पर चढ़े बर्तन की ओर इशारा कर उस महिला से कहा, तुम इसमे से थोड़ा-बहुत निकाल कर बच्चों को दे क्यों नहीं देती। सामने भोजन देखकर बच्चे आश्वस्त हो जायेंगे कि बस अब तैयार हुआ भोजन उन्हें मिलने ही वाला है।
महिला ने सुबकते हुए इशारा किया कि आप खुद ही देख लें कि बर्तन में क्या है। जब हज़रत उमर ने उसमें झांक कर देखा तो सन्न रह गए। बर्तन में कुछ न था, सिर्फ पानी खौल रहा था, जिसे दिखाकर वह महिला अपने भूखे बच्चों का बहला रही थी।
हज़रत उमर ने पूछा, जब तुम्हारे पास बच्चों को खिलाने को कुछ नहीं है, तो तुमने अपने शासक खलीफा के पास फरियाद क्यों नहीं की?
उस महिला नें स्वाभिमान से उत्तर दिया, जब खलीफा ने परिवार के एकमात्र कमाने और देखभाल करने वाले मेरे पति को लड़ाई पर भेजा हुआ है तो क्या उसका कर्तव्य नहीं है कि मेरी और मेरे बच्चों की देखभाल करें, मेरी हालत का पता लगाएं। मुझे ही उनके पास क्यों जाना चाहिए।
हज़रत उमर उस महिला के स्वाभिमान के प्रति नतमस्तक हो गए। उन्होंने तुरन्त शाही भंडार से राशन मंगवाकर अपने हाथों से उन भूखे बच्चों को खाना खिलाया। इसके साथ ही उन सभी लोगों के घर जिन्हें लड़ाई पर भेजा गया था, दूत भेजकर उनकी हालत का पता लगाया। उन सभी परिवारों के भरण-पोषण की व्यवस्था की और मन ही मन उस महिला को धन्यवाद दिया जिसने शासक का कर्तव्य बताकर उन्हें सही कार्य करने की प्रेरणा दी।