परमात्मा की कृपा और करुणा का अनुभव ही जीवन का सद्प्रबंधन है ..”भूषण कृष्ण शास्त्री
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परमात्मा की कृपा और करुणा का अनुभव ही जीवन का सद्प्रबंधन है ..”भूषण कृष्ण शास्त्री ”
सर्वस्पर्शी-सर्वगामी होते हुए भी सदा निर्लिप्त एवं शुद्ध रहती है, तथैव आत्मज्ञान संपन्न स्थितप्रज्ञ सत्पुरुष संसार में रहकर भी सांसारिक विकारों से मुक्त रहते हैं। प्रत्येक परिस्थिति में परमात्मा की कृपा और करुणा का अनुभव ही जीवन का सद्प्रबंधन है ..! साधु-संतों का, सत्पुरुषों का, अधिकांश चिंतकों का मत है कि मनुष्य की विषय-तृष्णा ही सारे दुःखों का मूल है। यदि मनुष्य तृष्णा की मरु-मरीचिका में फंसने से अपने को बचा सके, तो निश्चय ही दुःखों से उसका निस्तार हो जाए। संसार में जो कुछ देखा उसी को पाने के लिए लालायित हो उठना और पाए हुए से संतुष्ट न होकर अधिकाधिक पाने की इच्छा करना ही तृष्णा है, जो कभी भी पूरी नहीं होती। पाए हुए से संतुष्ट रहकर यदि अधिकाधिक पाने की अनावश्यक पिपासा को छोड़ दिया जाए, तो मनुष्य अवश्य ही अनेक शारीरिक, सामाजिक दुःखों से बच सकता है। स्थितप्रज्ञ का अर्थ है – वह पुरुष जिसे आत्मा का अपरोक्ष अनुभव हुआ हो। स्थितप्रज्ञ सत्पुरुष ममता का सर्वथा त्याग कर देता है। मनुष्य जिन वस्तुओं को अपनी मानता है, वे वास्तव में अपनी नहीं है प्रत्युत संसार से मिली हुई है। मिली हुई वस्तु को अपना मानना भूल है। यह भूल मिट जाने पर स्थितप्रज्ञ वस्तु व्यक्ति पदार्थ शरीर इन्द्रियाँ आदि में ममता रहित हो जाता है। यह शरीर मैं ही हूँ इस तरह शरीर से तादात्म्य मानना अहंकार है। स्थितप्रज्ञ में यह अहंकार नहीं रहता। शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि आदि पवित्र अन्तःकरण प्रकाशित होता है तब दीखते हैं और जो मैं पन है उसका भी उस प्रकाश में भान होता है। अतः प्रकाश की दृष्टि से शरीर इन्द्रियाँ मन बुद्धि अहंता (मैं पन) ये सभी दृश्य हैं। द्रष्टा दृश्य से अलग होता है यह नियम है। ऐसा अनुभव हो जाने से स्थितप्रज्ञ निरहंकार हो जाता है। जो सत्पुरुष काम, क्रोध लोभ, मोह, अहंकार से रहित है, अर्थात् विद्वत्ता आदि के सम्बन्ध से होने वाले आत्माभिमान से भी रहित है। वह ऐसा स्थितप्रज्ञ ब्रह्मवेत्ता ज्ञानी संसार के सर्व दुःखों की निवृत्तिरूप मोक्ष नामक परम शान्ति को पाता है, अर्थात् ब्रह्मरूप हो जाता है …।