अपना दोष स्वीकार न करना और दूसरों पर आरोपित कर देना ठीक नहीं – ज्योतिष,”

” *अपना दोष स्वीकार न करना और दूसरों पर आरोपित कर देना ठीक नहीं – ज्योतिष,”*
अधिकांश लोगों की यह आदत होती है, जो कि अच्छी नहीं है।
“मैंने तो इनको सुझाव दिया था, इन्होंने मेरी बात मानी ही नहीं। अब परिणाम खराब हुआ न! सारा दोष इन्हीं का है।”
इस प्रकार के वाक्य आपने अनेक बार सुने होंगे। जब कहीं दो चार पांच लोग मिलकर किसी कार्य को संपन्न करते हैं, तब यदि वह कार्य सफल हो जाए, तब तो अधिकांश लोग कहेंगे, “देखा, मैंने कहा था न, वही हुआ।”यह कह कर वे अपनी बुद्धिमत्ता सिद्ध करना चाहते हैं, और ऐसा प्रयत्न करते भी हैं।
परंतु यदि कहीं काम बिगड़ जाए, तब यह कहते हैं, कि मैंने तो पहले ही कहा था, पर कोई मेरी बात सुने, तब न! इन लोगों ने मेरी बात मानी नहीं, इसलिए काम बिगड़ा। अब दंड भुगतो.
इस प्रकार के लोग, चाहे अपना दोष भी क्यों न हो, वे उसे भी स्वीकार नहीं करते, और दूसरों पर ही सारे दोष थोपते हैं। यह पद्धति अच्छी नहीं है। इसमें ईमानदारी नहीं है। ईमानदार बनना चाहिए। उससे शांति बनी रहती है।
ईमानदारी और सच्चाई से काम करने पर ईश्वर हमें अन्दर से सुख देता है। इसलिए सच्चाई से ही सब काम करना चाहिए। यदि अपना दोष हो, तो उसे स्वीकार करें। उसका प्रायश्चित करें। और आगे न करने का संकल्प लेवें।
दोषों को दबाने छिपाने से वे दोष और अधिक बढ़ते हैं, कम नहीं होते। इसलिए अपने दोषों को दबाना, छुपाना और दूसरों पर थोप देना बहुत बुरा काम है, इससे बचें।
इसी प्रकार से कुछ लोग जब आपस में बातचीत करते हैं, तो अनेक समस्याओं पर चर्चा आरंभ हो जाती है। समाज में प्रचलित चरित्रहीनता भ्रष्टाचार चोरी छल कपट धोखा अन्याय शोषण इत्यादि विषयों पर भी कभी कभी चर्चा चल पड़ती है। तब लोग प्रायः यही कहते हैं, देखो जी, आजकल कलियुग है। समय (जमाना) बहुत खराब है। कोई किसी की सुनता नहीं। कोई किसी की मानता नहीं। सब लोग अपनी अपनी मनमानी करते हैं। चोरी व्यभिचार चरित्रहीनता आदि दोष बहुत बढ़ गए हैं, इत्यादि।
इन चर्चाओं को करने वाले लोग, क्या स्वयं इन दोषों से ग्रस्त नहीं हैं? यदि हैं। तो वे फिर केवल दूसरों पर ही ऐसे दोषारोपण क्यों करते हैं? ऐसा क्यों नहीं कहते कि, *आओ, बैठ कर योजना बनाएं, ऐसे उपाय सोचें, जिससे कि इन समस्याओं को दूर किया जा सके। हम अपना भी सुधार करें, और दूसरों का भी।परन्तु अपना दोष स्वीकार करने की तो हिम्मत नहीं है। इसलिये कहते हैं, जमाना खराब है। सिर्फ बातें करने से तो कोई लाभ नहीं होगा। इसलिए जब भी दूसरों के दोषों की चर्चा करें, अपना दोष भी स्वीकार करें। पहले अपने दोष को दूर करें, फिर दूसरों को भी समझाने का प्रयत्न करें। समझाने पर भी यदि वे न मानें, तो दूसरों के सामान्य दोषों को सहन करें, बड़े दोषों के विरुद्ध कार्यवाही करें। तब तो देश समाज और संसार बदल सकता है, और सुखी हो सकता है, अन्यथा नहीं।