छत्तीसगढ़

कोई कार्य बिगड़ने पर प्रायः व्यक्ति कहता है जानिए – ज्योतिष

*कोई कार्य बिगड़ने पर प्रायः व्यक्ति कहता है जानिए – ज्योतिष”*
मेरी तो यह कार्य करने की इच्छा थी ही नहीं, पर उसने मुझे सलाह देकर जबरदस्ती मुझसे यह कार्य करवाया। गलती तो उसकी है, मैं क्या करूं?”
प्रत्येक व्यक्ति कर्म करने में स्वतंत्र है। “स्वतंत्र का अर्थ होता है, अपनी इच्छा बुद्धि रुचि और अपने संस्कारों से काम करना।” इसलिए कोई भी व्यक्ति यदि कुछ भी काम करता है, तो उसकी अंतिम जिम्मेदारी उसी की होती है। भले ही दूसरे लोग उसे कितनी भी सलाह देते रहें, कितना भी उस पर दबाव डालते रहें, तब भी जब तक वह स्वयं नहीं चाहेगा, उस कार्य को नहीं करेगा। जैसे कोई किसी पर दबाव डाले, कि “तू बिजली की तार को पकड़ ले।” तो कोई भी बिजली का तार नहीं पकड़ता। इससे पता चलता है कि व्यक्ति अपनी इच्छा और अपनी बुद्धि से ही सारे काम करता है।
कहीं कहीं ऐसा प्रतीत होता है, कि “यह काम तो किसी दूसरे के दबाव से मैंने किया।” यह सत्य नहीं, बल्कि भ्रांति है। वास्तव में सत्य तो यह है, कि जब तक आप की अपनी इच्छा नहीं होगी, आप उस काम को नहीं करेंगे।
उदाहरण के लिए — एक युवक की मां ने कहा, कि बेटा इस लड़की से शादी मत करना। मैंने इस का परीक्षण कर लिया है, इसका स्वभाव अच्छा नहीं है, यह तुम्हें बहुत दुख देगी। बेटा माँ की बात नहीं माना। उसने शादी कर ली। फिर 2 वर्ष बाद उस लड़की ने बेटे को दुख देना आरंभ किया। तब उसकी माँ ने कहा, *मैंने तो परीक्षण करके ही तुम्हें मना किया था, कि इस लड़की से शादी मत करना। उस समय तुमने मेरी बात नहीं मानी। अब तुम उसका दंड भोग रहे हो।
बेटे ने उत्तर दिया — कि मेरे दोस्त ने मुझ पर दबाव डाला था, और उसके कहने से मैंने इस लड़की से शादी की। इसमें मेरा क्या दोष है?
यहां लोगों को लगता है, कि बेटे का दोष नहीं है। उसने अपने दोस्त के दबाव से यह शादी की थी। और सारे बेटे लोग, ऐसी घटनाएं होने पर, प्रायः ऐसा ही बोलते हैं। परंतु यह झूठ है।
उसका दोस्त कितनी भी सलाह दे, कितना भी दबाव डाले, जब तक उस बेटे की खुद की इच्छा नहीं होगी, तब तक वह बेटा उस लड़की से या किसी भी लड़की से शादी नहीं करेगा।
अनेक बार कुछ लोग 28/30 वर्ष की उम्र में शादी करते हैं। फिर शादी असफल होने पर ऐसा कहते हैं, मेरी तो शादी करने की इच्छा थी ही नहीं। यह तो मेरे माता-पिता के दबाव से मैंने कर ली। वे लोग सारा दोष अपने माता पिता पर डाल देते हैं। माता पिता पर ऐसे सारा दोष डालना, ठीक नहीं है।
हो सकता है, माता-पिता ने कुछ दबाव डाला भी हो। हम इसका निषेध नहीं करते। परंतु माता पिता के दबाव डालने पर भी, अंतिम निर्णय तो बेटे का ही होगा। यदि वह शादी करने को तैयार नहीं है, यदि उसकी इच्छा नहीं है, तो कोई भी माता-पिता कितना भी जोर लगा ले, बेटा शादी नहीं करेगा। माता पिता तो पिछले 3 साल से बेटे पर दबाव डाल रहे थे, तब बेटे ने शादी क्यों नहीं की? अब 28 /30 की उम्र में आकर ही क्यों की?
माता पिता के दबाव डालने पर यदि बेटे की अपनी इच्छा भी शादी करने की हो जाएगी, उसका अंतिम निर्णय शादी करने का हो जाएगा, तभी वह शादी करेगा, अन्यथा नहीं। *तीन वर्ष तक माता पिता बेटे पर शादी करने के लिए दबाव डालते रहे। बेटे की इच्छा नहीं बनी, तो उसने शादी नहीं की। अब जब शादी करने की बेटे की अपनी इच्छा बन गई, तो शादी कर ली। और जब परिणाम कुछ ऊंचा नीचा हुआ, तो बेटा माता पिता को दोष देवे, कि माता पिता के दबाव से मैंने शादी की है, मेरी तो इच्छा थी ही नहीं। ऐसा आरोप लगाना बेटे की मूर्खता और दुष्टता ही माननी चाहिए। वह माता-पिता पर आरोप तो ऐसे लगा रहा है, जैसे कि 24 घंटे सारे काम वह माता-पिता के आदेश पर ही करता हो और अपनी इच्छा से कुछ भी न करता हो। परंतु ऐसा नहीं है। इसका अर्थ है, कि वह अपने माता-पिता पर झूठा आरोप लगा रहा है।
यह तो बच्चे भी जानते हैं कि सब लोग अपनी-अपनी इच्छा से ही खाते पीते घूमते फिरते और सारे काम करते हैं। तो जो व्यक्ति शादी भी करेगा, तो वह भी अपनी इच्छा से ही करेगा।
ऊपर वाले उदाहरण में यदि बेटे की इच्छा नहीं थी, तो उसे शादी नहीं करनी चाहिए थी। फिर क्यों की? परंतु उसने शादी की। तो इससे यह सिद्ध होता है, कि शादी करने का अंतिम निर्णय उसने स्वयं अपनी इच्छा बुद्धि संस्कार और रुचि के आधार पर किया।
भारत सरकार ने भी प्रत्येक वयस्क नागरिक को, जिसकी उम्र 18 वर्ष से अधिक हो, उसे स्वतंत्रता का अधिकार दे रखा है। शादी करने का अधिकार पुरुषों को 21 वर्ष के बाद का दे रखा है। ऐसी स्थिति में फिर माता पिता पर आरोप लगाना, यह बेटे की असभ्यता है।
यह एक बहुत प्रचलित उदाहरण है। इसी उदाहरण से आप जीवन के सभी क्षेत्रों में सारी बातें समझ लेंगे। कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कार्य करने में स्वतंत्र है। किसी भी हानि का दोष किसी अन्य व्यक्ति के सिर पर नहीं डालना चाहिए। बल्कि यदि अपनी गलती हो, तो उसे प्रसन्नता से स्वीकार करना चाहिए, और उसका सुधार करना चाहिए। यही बुद्धिमत्ता और सभ्यता है।

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