छत्तीसगढ़

विलुप्त होते देशी धान को सहेज रहे किशोर राजपूत

विलुप्त होते देशी धान को सहेज रहे किशोर राजपूत

बेमेतरा जिले के नवागढ़ में रहने वाले युवा किसान किशोर राजपूत ने विलुप्त होते देशी धान की 56 प्रजाति का संवर्धन किया है ।

कृषि प्रधान जिला बेमेतरा मे धान की फिलहाल दो-चार बहुप्रचलित किस्में ही किसान अपने खेतों में लगाते हैं लेकिन ज्यादातर परम्परागत देसी धान की किस्मों को इलाके के किसानों ने करीब-करीब भूला दिया है।

आयातित किस्म के बहुप्रचलित धान की खेती के लिये वैसे तो 800 से 1200 मिमी बारिश की जरूरत होती है। लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद यहाँ देसी धान की सभी 56 से ज्यादा प्रजातियाँ अच्छे से फली-फूली हैं। इलाके में यह खेत किसी धान तीर्थ की तरह पहचाना जाता है।
बाहर से आने वाले किसानों को किशोर राजपूत से परिचित नहीं होने पर भी देसी धान की 56 किस्मों वाला खेत सुनते ही लोग उन्हें खेत तक जाने का रास्ता बता देते हैं। यह छोटा-सा गाँव और यह खेत सबकी उत्सुकता और आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है।

इस खेत की छटा देखते ही बनती है। अब तक हमने खेतों में दूर-दूर तक एक ही तरह और रंग की फसलें लहलहाती देखी हैं लेकिन यहाँ इस खेत में धान की अलग-अलग रंगों की किस्में लुभाती है। कहीं लाल, कहीं सफेद तो कहीं काली-पीली और कहीं मटमैली रंगत लिये पौधों को एक साथ हरहराते हुए देखना एक रोमांच से भर देता है।

इसी गाँव के युवा किसान देवी वर्मा बताते हैं कि पानी के संकट का धान की आयातित किस्मों की फसल से गहरा रिश्ता है। पुराने समय में धान की जो किस्में इलाके के खेतों में बोई जाती थी, उनसे कभी पानी का संकट नहीं होता था। लेकिन ताजा चलन की बाहर से आने वाली किस्मों ने पहले से ही सूखे इस इलाके को और भी सूखा बना दिया है।

दरअसल अब जिन किस्मों को किसान अपने खेतों में बोते हैं, वे दिन के हिसाब से होती हैं। यानी उनमें सिंचाई के पानी के खर्च की अधिकता होती है और वे ज्यादा मात्रा में पानी लेती हैं। इनके लिये अतिरिक्त सिंचाई की जरूरत होती है लेकिन परम्परागत किस्मों में कभी ऐसी जरूरत नहीं हुआ करती थी।

देवी वर्मा बताते हैं, ‘हमारे यहाँ की परिस्थितियों में बीते सैकड़ों सालों और कई पीढ़ियों से देसी अनाज और धान की किस्में लगातार उगते-उगते हमारे परिवेश के जलवायु में ऐसी रच-बस गई थी कि कम बारिश होने पर भी आसानी से पक जाया करती थी। बारिश की ऋतु से संचालित होने के कारण आगे-पीछे बोने पर भी वे साथ-साथ पक जाया करती थी। यहाँ तक कि 20 सितम्बर के बाद जब बारिश थम जाती थी तो भी ये किस्में महज ओस से ही पक सकती थी। इनमें ऐसी क्षमता थी कि ओस से भी पक सके। अब ज्यादातर आयातित किस्में निश्चित दिनों में ही पकती हैं और उन्हें बारिश के बाद हर साल अतिरिक्त पानी देने की जरूरत होती है। इससे पानी और सिंचाई संसाधनों का अपव्यय हो रहा है।’

बताया जाता है कि आजादी के बाद तक देश में देसी धान की करीब एक लाख दस हजार से ज्यादा प्रजातियाँ चलन में थीं लेकिन 1965 की हरित क्रान्ति के बाद लगातार कम होती चली गई। अब हालात यह है कि इनकी तादाद घटकर मात्र दो हजार तक ही सिमट गई है। अकेले उड़ीसा के जगन्नाथ मन्दिर में धान की 365 किस्में हैं, यहाँ हर दिन नए धान का जगन्नाथ को भोग लगाया जाता है।

किशोर राजपूत हमें बताते हैं कि इन दिनों लोक अनाजों को बचाने-सहेजने की बहुत जरूरत है। देसी किस्में हमारे आसपास से तेजी से गायब होती जा रही है। हमारे किसान दो-चार किस्मों पर ही निर्भर रहने लगे हैं।बड़ा संकट परम्परागत देसी धान की खेती के साथ है। एक दौर में देसी धान की करीब दो से ढाई सौ तक प्रजातियाँ हुआ करती थीं। अब इलाके के लोग इन्हें भूल ही गए हैं।
वे बताते हैं कि बीते कुछ सालों में विपुल मात्रा में उत्पादन देने का लालच देकर किसानों को भ्रमित किया गया है। उन्हें ऐसा झाँसा दिया गया है कि आयातित किस्म की धान बोने पर ही उन्हें फायदा होगा लेकिन ये किस्में हमारे यहाँ सूखे और पानी के संकट के कारण लाभकारी नहीं है, बल्कि किसानों को इनके लिये पानी का इन्तजाम करना महंगा पड़ रहा है। पानी हमारे पीने के लिये कम पड़ रहा है लेकिन लोग ज्यादा उत्पादन के लालच में इसका धान की सिंचाई में दुरुपयोग कर रहे हैं।

उन्होंने जब इसकी पहल की तो पहले 3से 4 फिर खोजते हुए 10-12, फिर 20-25 का यह आँकड़ा पहुँचते-पहुँचते अब 56 से ऊपर तक जा रहा है। इनके नाम हैं —
1. ब्लैक राइस (बर्मा ब्लैक)
2. रेड राइस लजनी सुपर
3. व्हाइट राइस बोरेझरी
सुपर फाइन सुगन्धित
4. देशो माशुरी
5. चेप्टी गुरमटीया
6. नगरी दुबराज
7. श्यामला ग्रीन राइस
8. DRK व्हाइट राइस
9. ज़िंक राइस सुगंधित
10. जवाफूल सुगंधित
11. तुलसीमाला सुगंधित
12. रामजीरा सुगन्धित
13. विष्णुभोग सुगंधित
15. ब्लैक राइस कृष्णम
16 बासा भोग
17 जीरा फूल
,18. धनिया फूल,
19.लाल अंगाकर
20 राजा बंगला ,
21 गंगा सफरी,
22 सफरी
23 आम्र मौर,
24 काली कमोट,
25 बासमती नागनी,
26 बासमती,
27 काला नमक,
28 काला गिलास,
29 भोला पार्वती,
30 दुबराज,
31 भाटा भूलउ,
32 करहनी
33लाल धान
34 पटेल सुपर
35 मधुराज
36 बादशाह भोग
37 तुलसी मज्जरी
38 चीनी शक्कर
39 हाईजीक
40 जवाफूल 2
नवीन अनुसंधान बीज
41 समृद्धि 1
42 समृद्धि 2
43 समृद्धि 3
44 समृद्धि 4
45 समृद्धि 5
46 समृद्धि 6
47 समृद्धि 7
48 समृद्धि 8
49 समृद्धि 9
50 समृद्धि 10
51 समृद्धि 11
52 समृद्धि 12
53 समृद्धि 13
54 समृद्धि 14
55 समृद्धि 15
56 समृद्धि 16
इनमें कुछ प्रजातियाँ महज 70 से 90 दिनों में पक जाती है तो कुछ सौ से सवा सौ दिनों में। लेकिन कुछ किस्में 130 से 140 दिनों में भी पकती है। ये सभी सुगन्धित और पतले धान की किस्में हैं। श्री राजपूत हर किस्म की धान के रूप-रंग, आकार-प्रकार और उसकी प्रकृति से भली-भाँती परिचित हैं।

 

उन्होंने इलाके में देसी धान की किस्मों को बचाने-सहेजने के लिये बीड़ा उठाया हुआ है। वे अपने गाँव के दूसरे किसानों को भी यह सलाह दे रहे हैं। उनसे प्रेरित अन्य किसान भी अब इस बात को समझने लगे हैं। वे अब प्रदेश भर में इसका प्रचार-प्रसार करने के लिए समृद्धि स्वदेशी बीज बैंक की शाखा शुरू भी कर रहे हैं

Related Articles

Back to top button