सहनशीलता समर्पण हमारी उपयोगिता-ज्योतिष*
*सहनशीलता समर्पण हमारी उपयोगिता-ज्योतिष*
सहनशीलता, समर्पण और मौन हमारी उपयोगिता और मूल्य दोनों को बढ़ा देती है। दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी एक ही वस्तु के परिवर्तित रूप होने के बावजूद भी सबका मूल्य अलग – अलग ही होता है क्योंकि श्रेष्ठता जन्म से नहीं अपितु अपने कर्म, व्यवहार और गुणों से होती है। घी तपता है, समर्पण करता है और अग्नि के ताप को भी मौन होकर सहता है इसलिए उपयोगी और मूल्यवान् बन पाता है।
किसी ने कटु वचन कहे तो सह लिया। किसी ने यथोचित सम्मान न दिया तो सह लिया और कभी हमारे मनोनुकूल कोई कार्य न हुआ तो सह लिया, बस इसी का नाम तो सहनशीलता है। जिस तरह एक जौहरी किसी मूल्यवान आभूषण के निर्माण से पहले स्वर्ण को टुकड़े – टुकड़े करता है, अग्नि में तपाता है और पीटता है मगर स्वर्ण इतने आघातों को सहने के बावजूद भी कभी विरोध नहीं करता अपितु जौहरी की ही रजा में राजी रहता है, इसी को समर्पण कहा जाता है।
अकारण किसी वाद विवाद से दूर रहना, बात – बात पर अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने का प्रयास नहीं करना और बहुत सुनना, सबकी सुनना मगर केवल आवश्यकता पड़ने पर ही सम्यक वाणी बोलना, इसी को मौन कहा गया है। इन तीन गुणों को जीवन में धारण करके व्यक्ति महान् बन जाता है।