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बिहार विधानसभा चुनाव नवम्बर माह में प्रस्तावित है,

क्षेत्रीय पार्टी कमजोर होने से कांग्रेस को लाभ-. बिहार विधानसभा चुनाव नवम्बर माह में प्रस्तावित है, बिहार चुनाव हर मायने में एक अनूठा प्रयोग रहा है। कहा जाता है कि दिल्ली का रास्ता बिहार औऱ उत्तर प्रदेश से होकर ही गुजरता है। अाजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में जिस किसी पार्टी को इन दोनों प्रदेशों में सफलता मिली है, उसी ने दिल्ली पर हुकूमत की है।
लोकसभा चुनाव 2014 औऱ 2019 में भाजपा गठबंधन को इन प्रदेशों में 100 से अधिक सीटें प्राप्त हुई। फलस्वरूप भाजपा 2014 में पहली बार केंद्र में अपने बलबूते बहुमत के आंकड़े प्राप्त करने में सफ़ल रही। उसके विपरीत कांग्रेस इन प्रदेशों में राजनीतिक रूप से हाशिये पर है। 1990 में मंडल औऱ कमंडल की राजनीति शुरू होने के बाद लगातार लोकसभा व विधानसभा में चुनावी हार औऱ परम्परागत वोट बैंक सवर्णो, दलितों और मुसलमानों के अन्य दलों के साथ चले जाने के कारण कांग्रेस लगातार कमजोर हुई है। अब जबकि विधानसभा चुनाव 2020 में कम ही समय बचा है, तो राजनीतिक विश्लेषकों की पैनी नज़र बिहार में कांग्रेस की संभावनाओं पर टिकी हुई है। कई राजनीतिक विश्लेषक कांग्रेस को अपने परम्परागत समर्थक समूहों को अपनी ओर वापस जोड़ने की सलाह दे चुके हैं, परन्तु भाजपा के आक्रमक हिंदुत्व के एजेंडे के कारण कांग्रेस के लिए बिहार में इन तीनों समूहों को साथ लाना आसान नहीं दिखता है। हालांकि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा सामाजिक विस्तार के कार्यक्रम से पार्टी का सवर्ण वर्ग खासकर ब्राह्मणों की एक लॉबी नाराज़ है। लेकिन इस नाराजगी को कांग्रेस पार्टी कहाँ तक अपने पक्ष में करने में सफल हो पाती है, यह देखना दिलचस्प रहेगा। इसी कड़ी में कांग्रेस हाईकमान ने मिथिलांचल ब्राह्मण को प्रदेश की कमान सौंपी, प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा, ब्राह्मणों को जोड़ने में सफल होते हुए नहीं दिख रहे हैं, जिसके कारण शीर्ष नेता बिहार में अपनी उपस्थिति को लेकर मंथन कर रहे हैं, हाल ही में राहुल गांधी ने कार्यकर्ताओं के साथ वर्चुअल रैली भी आयोजित की हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता किशोर कुमार झा का मानना है कि भाजपा पूंजीपतियों की पार्टी है औऱ इसे ब्राह्मणों से कोई सरोकार नहीं। जहां तक दलितों का सवाल है भाजपा उसमें पैठ बनाने को लेकर गंभीर नज़र आती है। उसने राम नाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया परन्तु बिहार के मीरा कुमार को राष्ट्रपति का प्रत्याशी बनाकर कांग्रेस ने दलित राजनीति में संभावना तलाशने की एक कोशिश जरूर की है। दलितों के अन्य मुद्दों पर भी कांग्रेस को मुखर होना होगा। जहां तक मुस्लिम का सवाल है वह उन्हीं के साथ जाना पसंद करेंगे जो भाजपा गठबंधन को पटकनी दे सकें। राजनीति में कोई भी अस्थाई दोस्त या दुश्मन नहीं होता है। वर्तमान में राजद औऱ कांग्रेस साथ है, लेकिन 1990 के दशक में दोनों दल राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी थे। जब तक राजद प्रदेश में कमजोर नहीं होगा तब तक कांग्रेस राजद के अनुकम्पा पर ही आश्रित रहने के लिए मजबूर है। कांग्रेस की एक धारा राजद से अलग हो कर ही पार्टी की भविष्य देख रही है। आज राजद के कमजोर होने का लाभ भाजपा औऱ जदयू को भले मिलता दिख रहा हो परन्तु भविष्य में इसका फायदा कांग्रेस पार्टी को ही होगा। वर्त्तमान राजनीति डिस्कोर्स के कारण भविष्य में मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के साथ ही रहना पसंद करेंगे। इसके अलावा क्षेत्रियों और खासकर जाति आधारित दलों की भारतीय राजनीति में लगातार गिरावट होने से दो दलीय व्यवस्था की प्रबल संभावना है और इसका सीधा लाभ कांग्रेस पार्टी को ही मिलेगा। परन्तु इन सभी संभावनाओं को जमीनी हकीकत में बदलने के लिए कांग्रेस को एक सही रणनीति और व्यापक सांगठनिक फ़ेरबदल के साथ ईमानदारी से जनता के बीच जाना होगा। बिहार कांग्रेस को एक ऊर्जावान औऱ युवा नेतृत्व के साथ ना सिर्फ एक रणनीतिक सोच की जरुरत है बल्कि इस सोच को जमीनी स्तर पर उतारने की भी जरूरत है। डॉ. संतोष झा,गेस्ट फेकल्टी, स्वामी श्रद्धानंद कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

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