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coronavirus Humanity amidst the river of pain | दर्द के दरिया के बीच पैगामे इंसानियत | nation – News in Hindi

आखिर कौन है मेहफूज और जमाल, कौन हैं प्रदीप-अचल सिंह, कौन हैं अनिल और सुनील, कौन हैं राधेश्याम, अब्दुल, जमीर, कौन हैं कुमुद सिंह, अब्दुल माजिद, शैलेष साकेत, सुरेन्द्र सिंह, गुरुविन्दर और कौन हैं ये खास लिबास में लिपटीं सिस्टर्स, और भी ना जाने कितने नाम, कितने चेहरे. इन चेहरों में कोई सड़कों पर बहते दर्द के दरिया को पार करने की कोशिश कर रहा है, तो कोई मदद की पतवार लिए इंसानियत के समन्दर की लहरों की मानिंद उनके साथ खड़ा है. न किसी को किसी के धर्म या मजहब से मतलब है न जाति से. मकसद बस एक है कि कैसे मुश्किल वक्त में साथी हाथ बढ़ाना, साथी रे.. गीत की तर्ज पर एक-दूसरे का हाथ थाम लें.

दरअसल यही है हमारा हिन्दोस्तां, जहां दिलों में जहर घोलने की सियासी साजिशों के बीच खींची जा रही नफरत की लकीरों को मिटाने, सद्भाव और मानवता के खूबसूरत रिश्तों की मिसालों की फेहरिस्त कहीं ज्यादा लंबी है.

कोरोना महामारी की वजह से लंबे लॉकडाउन को अपनी बेकारी, मुफलिसी और सरकारों की बेरुखी की वजह से न झेल पाने वाले हजारों कामगार अपने जन्मस्धल की ओर लौट रहे हैं. कोई साइकिल से है, कोई पैदल है, कोई आटो, मोटरसाइकिल, ट्रक, कंटेनर, ट्रैक्टर या जो मिल गया, उसी से है. यह संख्या कितनी है, इस बारे में कोई कुछ नहीं जानता. अलबत्ता अब सड़क पर पैदल जाने वालों का वो रेला कुछ थम सा गया है, जो मंगलवार तक दिख रहा था. सरकारें सड़कों पर दिलदहला देने वाली तस्वीरों और मचे हंगामों के बाद जागी हैं. एमपी में तो श्रमिकों की घरवापसी के लिए बसें दिखने लगी हैं.

कामगारों की घरवापसी की तकलीफों और आपाधापी से भरे इस दौर में सद्भाव और मानवता की बेहतर कहानियां भी निकल कर सामने आईं हैं. इन तमाम कहानियों के गवाह बने हैं मप्र के भोपाल-ब्यावरा बायपास, मुंबई-गुना-आगरा, सागर-छतरपुर, ग्वालियर-भिंड-झांसी के हाइवे.

तीन बुजुर्ग साथी राधेश्याम, अब्दुल और जमीर (फाइल फोटो)

राधेश्याम, जमीर की आंखें बने अब्दुल के कंधे
भोपाल के मुबारकपुर चौराहे पर भाइचारे और सद्भाव की बेहद खूबसूरत कहानी सामने आई. तीन बुजुर्ग साथी हैं, राधेश्याम, अब्दुल और जमीर. ये तीनों बुजुर्गवार मुंबई से लाठी टेकते पैदल ही निकले हैं, अयोध्या जाना है. आगे-आगे लाठी टेकते चल रहे अब्दुल के कंधे इस सफर में दृष्टिबाधित राधेश्याम और जमीर की आंखें बनी हुई हैं. बता दें कि ये बुजुर्ग मुंबई में भीख मांग कर गुजारा करते थे, तीनों में गहरी दोस्ती है.

अब्दुल कहते हैं कि लॉकडाउन लगा तो अहसास हुआ कि बची-खुची जिंदगी अपनी मिट्टी पर गुजारनी है. ये तीनों बुजुर्ग करीब महीने भर पहले निकले थे. धीमे, पर सधे कदमों से पांच सौ किमी का सफर तय कर चुके हैं, लेकिन अभी कई सौ किमी का लंबा सफर बाकी है. यह लोग भोपाल से होकर गुजरे हैं. यहां से इन्हें बस मिल गई है, जो यूपी बार्डर तक छोड़ेगी. तीनों बुजुर्गवार इस बात से खुश है कि इन आखिरी दिनों में उन्हें इस सफर के लिए एक-दूसरे का साथ और हिम्मत मिली है और वह अपने घर पहुंचने की बात सोच सके हैं.

सेवा को बेताब हर चेहरा
भोपाल बायपास चौराहे पर ट्रकों, बसों, बाइक पर और पैदल गुजरने वाले प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए एक स्टाल लगा हुआ है. वहां से उन्हें खाना-पानी, ब्रेड चाय की सहूलियतें मुहैया कराई जा रही है. होता यूं है कि घरवापसी के लिए परेशान यह सड़क के मुसाफिर अपने-अपने साधनों से जैसे ही मुबारक चौराहे से होकर गुजरते हैं, वैसे ही यहां एक मिशनरी की कई सिस्टर्स अपनी एक विशेष वेशभूषा में, राधास्वामी सत्संग के ग्रामीण कार्यकर्ता और टोपीधारी शादाब और परवेज अपने दो भाईयों के साथ मजदूरों को खाने-पीने का सामान, चाय-नाश्ता लेकर वाहनों के पीछे दौड़ पड़ते हैं. करोंद के रहने वाले अनिल और सुनील कुमार रास्ते के लिए जरूरी कुछ दवाइयां मुसाफिरों को थमाते हैं. जाते वक्त श्रमिक लोकसिंह और उनके साथी हाथ हिलाकर धन्यवाद कहते हुए जाते हैं. ट्रक में सवार करीम और देवीलाल कहते हैं कि महाराष्ट्र की सीमा पार करने के बाद मप्र में इंदौर से लेकर भोपाल तक लोगों से जो सेवा-सत्कार मिला, हम कभी न भूल पाएंगे.

मां हम कैसे जाएं स्टेशन?
सरकारी घोषणा होती है कि 19 मई 2020 को भोपाल के हबीबगंज स्टेशन से एक श्रमिक स्पेशल ट्रेन बिहार के लिए दोपहर 3 बजे निकलेगी. लॉकडाउन की वजह से शहर में फंसे दो युवा पैसों का इंतजाम करते हैं और सामान समेटते हैं. वो जानते हैं कि भोपाल से बिहार तो ट्रेन ले जाएगी, लेकिन मुश्किल यह है कि 12 किमी दूर हबीबगंज स्टेशन पहुंचे कैसे, क्योंकि बस-आटो-कैब जैसे सार्वजनिक परिवहन के सब साधन बंद हैं. वो नजर दौड़ाते हैं कि अंजाने शहर में कौन है जो उन्हें स्टेशन तक पहुंचा दे, क्योंकि बाहर पुलिस का पहरा और सख्ती बेइंतहा है. उन्हें एक नाम सूझता है और अलसुबह 6 बजे फोन लगा देते हैं और अपनी परेशानी बताते हुए कहते है कि स्टेशन तक जाने का कोई साधन नहीं मिल रहा, कुछ व्यवस्था हो पाएगी क्या मां? दूसरी ओर से जवाब मिलता है, कि देखती हूं, कुछ न कुछ व्यवस्था जरूर होगी, तुम लोग तैयारी करो.. और हां खाने की चिंता मत करना, मैं रास्ते के लिए खाना बनाकर भिजवा रही हूं. एक घंटे के भीतर ही वह मां सारा इंतजाम करवा देती है और वह दोनों लोग स्टेशन पहुंच जाते हैं. आखिर इस कहानी में ऐसा क्या है, जो जिक्र होना चाहिए, दरअसल फोन लगाने वाले दोनों अंजान शख्स हैं मेहफूज और जमाल. मां के नाम से पुकारे जाने वाली महिला हैं सामाजिक कार्यकर्ता कुमुद सिंह. यही है हिन्दोस्तां और उसकी खूबसूरती, जहां मदद के लिए इंसानियत धर्म, महजब या चेहरा नहीं देखती.

गला तो तर कर लो भाई
प्रदीप और अचल सिंह के सेवा और जज्बे की यह दास्तां हमें कुपोषण के मुद्दे पर दशकों से काम कर रहे भोपाल के सामाजिक कार्यकर्ता सचिन जैन की सोशल मीडिया पर एक पोस्ट से मिली. प्रदीप और अचल सिंह वो दो शख्स हैं, जो भोपाल से विदिशा जाने वाली सड़क पर रोज तपती दोपहरी में मीलों का सफर तय कर अपने घर गांव वापस लौट रहे श्रमिकों को छाछ पिलाते हैं. दोनों किसान हैं और 18 किलोमीटर दूर बरखेड़ा सालम गांव से अपने साथ 200 लीटर छाछ, 200 मास्क और 100 जोड़े दस्ताने लेकर आते हैं और मजदूरों को बांट कर उनका दर्द बांटने की कोशिश करते हैं. उन्‍हें कोई फर्क नहीं पड़ता है कि गुजरने वाले कौन हैं. वह कहते हैं कि घरवापसी के इस पीड़ा से भरे वक्त में हम मजदूरों के साथ खड़े हैं बस इससे ज्यादा कुछ नहीं. हम जो कर सकते हैं, जो वो कर रहे हैं. छाछ पिलाते हुए श्रमिक भाईयों से कहते हैं हमारी छाछ से गला तो तर कर लो भाई, आगे न जाने कहां-कब दाना-पानी नसीब हो.

शैलेष साकेत कई लोगों के लिए बनीं मददगार

और मेरा दिल रो पड़ा
मुबारकपुर चौराहे पर श्रमिकों को मप्र की सीमा पर छोड़ने के इंतजाम के लिए ड्यूटी पर तैनात पटवारी सुश्री शैलेष साकेत बताती हैं कि गुजरे सोमवार को यहां फुटपाथ पर एक महिला गोद में चार-पांच साल का एक मासूम लिए हुए रो रही थी. मैनें उससे पूछा, क्या हुआ, कहां से आ रही हो, कहां जाना है, तो वह दहाड़ मार कर रोते हुए बोली औरंगाबाद से पैदल आ रही हूं. गुना जाना है फिर बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, रास्ते में मेरे बच्चे को भगवान ने छीन लिया. शैलेष कहती हैं मां का घर जाने और बच्चा खो देने का दर्द मैं सह न सकी, दिल रो पड़ा, कुछ पल के लिए मेरी आंखों के सामने सन्नाटा खिंच गया, फिर जैसे तैसे खुद को संभाला, मेरे पास जो भी पैसे थे, उससे महिला श्रमिक और उसके बच्चे के शव को गुना तक उसके घर तक पहुंचाने के लिए अलग से गाड़ी का इंतजाम किया. शैलेष बताती हैं कि उन्होंने न जाने कितनी गर्भवती माताओं को या ऊंगली थामे मासूम बच्चों को यहां पैदल अपने घर वापस जाते देखा है. हम भी क्या करते, जब हाल ही में सरकार की ओर से बसें मिल रही हैं, तबसे पैदल श्रमिकों को यहीं रोक कर उन्हें भेजने का इंतजाम कर रहे हैं.

इंसानियत की सिपाही
ग्वालियर से पत्रकार आशेन्द्र सिंह भदौरिया ने हाल ही में महिला श्रमिक दीपा की मददगार बनी इंसानियत की एक सिपाही की कहानी बताई. दीपा भिंड लौटी हैं. वह अहमदाबाद में एक कपड़ा कारखाने में काम करती थी. लॉकडाउन हुआ तो कारखाना बंद. मालिक ने एक महीने की पगार भी नहीं दी. पति एक साल पहले से बिना बताए कहीं गायब हैं. लॉकडाउन में लंबे अरसे तक अहमदाबाद में अटकी रही दीपा के सामने जब भूख से मरने की नौबत आ गई और पास में तीन हजार रुपए बचे तो वह अपनी 8 माह की नन्हीं बेटी और दो झोलों की जमा पूंजी लेकर भिंड जाने के लिए चल पड़ी. एक पिक-अप वैन वाले ने दो हजार रुपये वसूल कर मप्र के बॉर्डर पर छोड़ दिया. वहां से कभी पैदल कभी ट्रक, डंपर में बैठ कर जैसे-तैसे ग्वालियर-झांसी बायपास तक पहुंची. चिलचिलाती धूप में सड़क पर खड़ी दीपा पर इंसानियत की सिपाही अर्चना कंसाना की नजर पड़ी. दीपा ने तीन दिन से खाना नहीं खाया था और अबोध बेटी को दूध की एक बूंद न मिली थी. अर्चना ने बेटी को दूध पिलाया, दीपा के पैर से टूटी चप्पल निकाल उसे नई चप्पलें पहनाई फिर उसे एक वाहन से भिंड भेजा. आपको सलाम अर्चना.

जिंदा है सद्भाव, भाई-चारा
सोशल मीडिया के जरिए भाईचारे की मिसाल बनी एक और कहानी सामने आई, जब लॉकडाउन के दौरान मेरठ में एक मंदिर के पुजारी रमेश माथुर की मौत हो गई. वह धर्मशाला में रहते थे. रिश्तेदारों के न आ पाने के कारण शाहपीर गेट इलाके के मुसलमानों ने अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था की. उनके दोंनों बेटे बाहर थे. मौत की खबर के बाद कोरोना के खौफ की वजह से उनके पार्थिव शरीर को कंधा देने जब कोई नहीं पहुंचा, तब इलाके के मुसलमान पहुंचे और शव को अपने कंधों पर लेकर श्‍मशान गए और हिन्दू रीति-रिवाज से अंतिम संस्कार कराया.

विभीषिका के इस दौर में जब हम कोरोना वारियर्स पर हमलों, इलाज कर रहे डॉक्टरों को कालोनियों में न घुसने देने, श्रमिकों के लिए बसें चलाने को लेकर कांग्रेस-भाजपा के सियासी झगड़ों, आरोप-प्रत्यारोप, जाति-नस्ल के आधार पर भेदभाव की दुखी करने वाली चंद खबरें सुनते-देखते और पढ़ते हैं, तब घर लौटते श्रमिकों का दर्द बांटने, मुसीबत के वक्त धर्म-जाति से ऊपर उठकर सेवा-जज्बे की तस्वीरें, कहानियां वसुधैव कुटुम्बकम के सूत्रवाक्य में हमारा भरोसा जगाती हैं. दरअसल, यही हमारे देश का असली चेहरा है. किसी प्रख्यात अध्येयता ने ठीक ही कहा है कि कौन देश-कितना धनवान है, यह आंकलन उसकी दौलत से नहीं, बल्कि उसके नागरिकों में कर्तव्य बोध की स्थायी संपत्ति से होना चाहिए.
जिगर मुरादाबादी का एक मशहूर शेर है..
उनका जो फर्ज है वो अहल-ए-सियासत जाने
मेरा पैगाम मोहब्बत है जहां तक पहुंचे.

(ये लेखक के निजी विचार हैं.)



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