OPINION: सरकार ने 20 लाख करोड़ रुपये का पैकेज तो दे दिया, अब इसे समझें कैसे? – 20 lakh crore package how to understand sudhir jain article | – News in Hindi

लक्ष्य प्रबंधन के पांच नुक्ते
लक्ष्य को साधने के लिए एक स्पष्ट पाठ उपलब्ध है. प्रबंधन प्रौद्योगिकी के विद्यार्थी इस पाठ को स्मार्ट गोल के नाम से जानते है. स्मार्ट ( S M A R T) अंग्रेजी के पांच अक्षरों से बना है. ये पांचों अक्षर लक्ष्य प्रबंधन के पांच नुक्तों को बताते हैं.
पहला एस यानी स्पेसिफिक यानी लक्ष्य का विशिष्ट या केंद्रित होना. प्रबंधन के विद्वान सुझाते हैं कि किसी लक्ष्य को साधने में यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि एक बार में एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाया जाए. दूसरा अक्षर एम यानी मेजरेबल यानी लक्ष्य हमेशा नापतोल करने लायक होना चाहिए. तीसरा ए यानी लक्ष्य हमेशा अचीवेबल यानी हासिल होने लायक हो. ऐसा न हो कि हम ऐसा लक्ष्य बना लें जो पहली नज़र में ही हासिल होने लायक न हो. चौथा आर यानी रिलाएबल यानी लक्ष्य विश्वसनीय हो. पांचवा नुक्ता टी यानी टाइमबाउंड यानी लक्ष्य हमेशा ही समयबद्व हो. वरना समय पर लक्ष्य पूरा नहीं होने पर उसकी सार्थकता शून्य हो जाती है.
कितना विशिष्ट या केंद्रित है पैकेज का लक्ष्य
पैकेज को कोरोना से निपटने का एक उपाय बताया गया है. इधर पैकेज के बारे में लगातार पांच दिन दिए गए ब्योरे में इतने सारे ‘उपलक्ष्य’ हैं कि इसे लागू करने के हर कदम पर याद रखना मुश्किल हो जाएगा कि हमारा मुख्य लक्ष्य क्या है. अच्छा हो हम अभी से मान लें कि पैकेज के जरिए हमारा मुख्य लक्ष्य अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाना है. ये अलग बात है कि अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के उद्यम में कोरोना संकट से निजात पाने का भी कुछ काम हो जाए. लेकिन पैकेज की कवायद को सिर्फ कोरोना संकट को साधने का ही उद्यम मान लेना ज्यादा समझदारी नहीं है. फिर भी कोरोना आपदा के भयावह रूप लेते जाने के इस कठिन समय में अगर अर्थव्यवस्था को साधने के दीर्घकालिक लक्ष्य से कोई बात बनती हो तो उसे सोचकर खुश होने में हर्ज भी नहीं है.
कितना मेजरेबल है ये पैकेज?पैकेज को डिजाइन करने में सरकार ने इस नुक्ते का खयाल जरूर रखा है. पूरे बीस लाख करोड़ बल्कि बीस लाख 97 हजार करोड़ की योजनाओं, कार्यक्रमों, नीतियों या नियम कानून का ब्योरा पेश किया गया है. पूरे पांच दिन लगातार बताया गया कि सरकार का इरादा इस पैसे को कहां कहां खर्च करने है. एक और बात गौरतलब है. वह ये कि पैकेज के खर्चे दो तरह से होना है. एक वह बड़ी रकम जो कर्ज के रूप में बाजार को मुहैया कराई जाएगी. और दूसरी वह छोटी रकम जो सरकारी खजाने से लगाई जाएगी. गौर से देखें तो सरकार अपने खजाने से सिर्फ तीन लाख बीस हजार करोड़ ही खर्च करेगी. बाकी रकम कर्ज या और किसी तरह से बाजार में डलवाने की कवायद से जुड़ी है. कर्ज की रकम मौद्रिक उपायों के जरिए दिलाई जाएगी.
गौरतलब यह भी है कि वित्तीय प्रोत्साहन के रूप में जो रकम सरकार अपने खजाने से निकालने की बात कह रही है उसका ज्यादातर हिस्सा सरकार पैकेज के एलान के पहले ही खर्च करने की बात कह चुकी थी. पिछले अनुभवों को याद किया जाना चाहिए कि ऐसे संकट से निपटने के लिए आमतौर पर सरकार अपने खजाने और संचित खजाने की पूरी ताकत लगा देती हैं. युद्धों, अकालों या महामारियों के समय कई बार अपने जीडीपी का आधा या एक चैथाई खर्चा करने की भी जरूरत पड़ जाती है.
नुक्ता पैकेज के अचीवेबल होने का
सरकारी अर्थशास्त्रियों के लिए सबसे ज्यादा माथाप़च्ची करने वाला नुक्ता यही है. वैसे तो कोरोना से निपटने के लक्ष्य को साधना चिकित्साशास्त्रियों और चिकित्सा प्रशासकों पर छोड़ा जाना चाहिए. लेकिन यह भी वास्तविकता है कि कोरोना ने देश के अर्थशास्त्र पर भी असर डाला है. जाहिर है इस असर को खत्म करने का काम वित्तमंत्रालय को ही करना है. बेशक कोरोना के कारण ही अबूझ की मनोदशा में लॉकडाउन करना पड़ा. लॉकडाउन ने आर्थिक नुकसान पैदा कर दिया. अब देखना यह है कि कितना नुकसान हुआ? किन तबकों को नुकसान हुआ? आगे अभी और कितना नुकसान होना है? किस तबके को सबसे पहले मदद की जरूरत है?
उसी हिसाब से लक्ष्य हासिल करने की योजना बननी थी. इस हकीकत से नज़रें चुराने से कोई फायदा नहीं है कि देश की माली हालत पहले से पतली थी. कोरोना से बहुत पहले से हमें अपनी अर्थव्यवस्था संभालने की चिंता खाए जा रही थी. बढ़ती बेरोज़गारी और घटती जीडीपी दर कोरोना से पहले वाले समय के सनसनीखेज लक्षण थे. कबूल कर लेना चाहिए कि कोरोना ने आकर माली हालत की समस्या को भड़काया भर है.
अगर प्रवासी मजदूरों की समस्या को ज़रा के लिए कोरोना प्रकरण से बाहर निकाल कर देखें तो सरकार बड़ी असानी से हालात काबू में बताने में सफल हो रही थी. यानी हिसाब लगाया जाए तो कोरोना के कारण आठ दस लाख करोड़ के उत्पादन का नुकसान उतना बड़ा संकट नहीं माना जाना चाहिए जितना बड़ा संकट पहले से व्यापी मंदी और भयावह बेरोजगारी के रूप में था.
मंदी के उस संकट से निपटने के लिए बीस लाख करोड़ के पैकेज को एक अच्छा खासा पैकेज माना जा सकता था बशर्ते इस पैकेज में उस भयावह मंदी से निपटने की सामथ्र्य दिख रही होती. यह सामर्थ्य क्यों नहीं दिखाई दे रही है? इसकी विस्तार के साथ पड़ताल बाद में करेंगे लेकिन पहले लक्ष्य प्रबंधन के चैथे और पांववे नुक्ते को देख लेना बेहतर है.
पैकेज की विश्वसनीयता कैसे जांचें
बीस लाख करोड़ रुपए की रकम अपनी जीडीपी की दस फीसद बैठती है. इसी समय दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के पैकेज को देखें तो अपना पैकेज कोई बेमिसाल नही है. मसलन जापान ने अपनी जीडीपी की 21 फीसद रकम कोरोना से निपटने के नाम पर लगा दी है. अमेरिका ने भी कोरोना से मची तबाही की भरपाई के लिए तीन ट्रिलियन डालर यानी करीब 225 लाख करोड़ रुपए का पैकेज कोरोना से बिगड़े हालात संभालने केे लिए झोंक दिया है. उन देशों के पैकेज में सरकार के खजाने से सीधे खर्च का हिस्सा अच्छा खासा है.
इससे उनके लक्ष्य प्रबंधन में विश्वसनीयता भी ज्यादा है. जबकि हमारे पैकेज में कर्ज ‘दिला देंगे‘ वाला हिस्सा ज्यादा है और सरकारी खजाने से ‘दे देंगे‘ वाला हिस्सा छोटा सा है. देश के मौजूदा हालात में कर्ज लेकर उद्योग धंधे चलाना कितना संभव होगा? इसका अंदाजा लगाया नहीं गया है. लिहाजा ऐसे पैकेज में लक्ष्य प्रबंधन की विश्वसनीयता का नुक्ता गौर से देखा जाना चाहिए. विश्वसनीयता को लेकर देखने की दूसरी बड़ी बात यह कि सरकार के पास इतने बड़े पैकेज के लिए रकम ‘आ’ कहां से रही है.
हालांकि सरकार को पहले से पता होगा कि यह सवाल पूछा जाएगा. हो सकता है इसीलिए रविवार को यह सवाल वित्तमंत्री से पूछे जाने वाले सवालों में शामिल कराया गया. उन्होंने इसका जवाब यह दिया कि अभी सिर्फ यह देखिए कि पैसा ‘जा’ कहां रहा है? वैसे वित्तमंत्री खुद या वित्तमंत्रालय के आला अफसर बता सकते थे कि बीस लाख करोड़ में ज्यादा रकम वह है जो बैंकों से कर्ज के रूप में दिलाई जाएगी. ये सब जानते हैं कि बैंकों को भारी भरकम रकम दिलाने के लिए रिजर्व बैंक के पास मौद्रिक उपाय हैं. वह चाहे तो ब्याज के रेट घटाकर बाजार में कर्ज उठाने वालों को प्रोत्सहित कर सकता है.
पिछले दो महीनों में रिजर्व बैंक ने ताबड़तोड़ ढंग से कोई साढ़े छह लाख करोड़ की रकम को आसान कर्ज देने के लिए इतंजाम भी कराया है. लेकिन आगे देखने की बात यह होगी कि क्या वाकई उद्योग जगत कर्ज लेकर उत्पादन बढ़ाएगा? खासतौर पर उन हालात में जब उपभोक्ताओं की गरीबी के कारण औद्योगिक माल की खपत घट गई हो. अभी से हिसाब लगाना शुरू कर देना चाहिए कि आने वाले समय में मघ्यवर्ग और मजदूर वर्ग जिसमें कोई दस करोड़ बेरोज़गार प्रवासी भी शामिल हो गए हैं इन सब तक पर्याप्त पैसा पहुंचाने की कूबत इस 20 लाख करोड़ के पैकेज में है या नहीं है? गौरतलब है कि लॉकडाउन के दौरान यह साफ दिख गया है कि देश में पूरी तौर पर बेरोज़गारों की तादाद अब दस पद्रह करोड़ नहीं बल्कि बीस पच्चीस करोड़ हो चुकी है.
पैकेज की समयबद्धता पर गौर
पैकेज के ब्योरे में यह नुक्ता लगभग गायब है. इस साल की पहली तिमाही में किसान सम्मान के 16 हजार करोड़ रूपए या करोड़ों महिला जनधन खातों में 500 रूपए या गरीबों को गैस सिलेंडर और दूसरी तमाम मदों में कुल पौने दो लाख करोड़ खर्च करने के एलान मौजूदा पैकेज के पहले की घटना है. बहरहाल, बीस लाख करोड़ के कर्ज या सीधी मदद के लिए समय बद्धता का साफ साफ जिक्र हुआ नहीं है. पता नहीं है कि आने वाले दो चार महीनों में ही यह पैकेज क्रियान्वित हो जाएगा या पांच सात साल लग जाएंगे? गौर किया जाना चाहिए कि एक साथ ढेर सारी आर्थिक गतिविधियां चालू करने की भी एक सीमा है.
पहले से सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र की उत्पादक गतिविधियां चालू रहेंगी ही. पहले से बजट में किए गए प्रावधान का खर्चा उन कामों पर हो ही रहा होगा. यानी लॉकडाउन खत्म होने के बाद जब भी कामधंधों की बहाली होगी तो पुरानी हलचल तो फिर से शुरू होनी ही होनी है. ऐसे में पैकेज के काम की समयबद्धता जांचने का शायद मौका ही न मिले. कुलमिलाकर अगर पैकेज का असर पैदा करना है तो समयबद्धता को लेकर सरकारी मशीनरी को अभी से चैकस करने की जरूरत है. अफसरों को बताना पडे़गा कि बीस लाख के पैकेज को दो चार महीने या सालभर में लागू करके दिखाएं. वरना कोरोना के लक्ष्य से निशाना चूक जाएगा.
पैकेज की सामर्थ्य कैसे तोलें?
अपनी दो लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था पहले से मुश्किल में थी. बेरोज़गारी के मोर्चे पर पहले से जूझ रहे थे. वैश्विक मंदी हमें पहले से डरा रही थी. मंदी यानी देश में उत्पाद की खपत कम होती चली जाना. याद भी दिलाया जाना चाहिए कि हम दो महीने पहले ही सालाना बजट बनाकर निपटे हैं. तब बड़ी मुश्किल से सरकारी खर्च और आमदनी में तालमेल बैठा पाए थे. फिर भी आठ लाख करोड़ उधार लेकर बजट का हिसाब बैठाना पड़ा था.
बाजार में मांग बढ़ाने के लिए तरह तरह के जतन करने पड़ रहे थे. अगर करोना नहीं भी आता फिर भी उद्योग और कृषि क्षेत्र के लिए कम से कम दस लाख करोड़ रुपए फौरन ही खर्च करने की जरूरत दिख रही थी.पैसे की कमी के कारण यह काम नहीं किया जा सका. कोई भी सरकार होती वह इस काम को करने में अपने हाथ खड़े कर ही देती. यानी पहले से इतनी मुश्किलें थीं कि नाजुक हालात संभालने में इतना बड़ा पैकेज भी समर्थ हो नहीं सकता.
पैकेज का असर का फौरी आकलन कैसे हो?
बीस लाख करोड़ के इस पैकेज के असर का अनुमान लगाना आसान काम नहीं है. ज्यादातर कर्ज के रूप में दी जाने वाली इस रकम को खर्च होने में ही लंबा वक्त लगना तय है. कब तक कर्ज बंटेगा? कब बड़े मझोले और छोटे उद्योगधंधे मनमाफिक उत्पादन बढ़ा पाएंगे. और उससे भी बड़ा सवाल यह कि उद्योग जगत कर्ज लेकर उत्पादन बढ़ाने के पहले यह सोचेगा कि नहीं कि उत्पादित माल को खरीदने के लिए उपभोक्ता कहां से पैदा होंगे? यानी बात इतनी दूर की है कि इस पैकेज के दीर्घकालिक असर का हल्का फुल्का अंदाजा लगाया जाना भी मुश्किल है. फिर भी फौरन ही इस पैकेज के असर को जानना हो तो एक जरिया जरूर है. वह है देश का निवेशक बाजार यानी शेयर बाजार.
पैकेज के बाद इस तरह बोला शेयर बाजार
पांच दिन से शेयर बाजार इस पैकेज से बिल्कुल भी उत्साहित नहीं हो पा रहा था. इंतजार था कि वित्तमंत्रालय की आखिरी प्रेस काॅन्फे्रस निपट जाए तो आज यानी सोमवार को शेयर बाजार इस पैकेज की तात्कालिक समीक्षा करेगा. लेकिन सोमवार को बाजार खुलने के फौरन बाद जिस तरह से गिरना शुरू हुआ उसने उद्योग व्यापार जगत की हवाइयां उड़ा दी हैं. बाजार खुलने के दो घंटे के बाद शेयर बाजार का सेंसेक्स एक हजार अंक नीचे जाकर बैठ गया था.
आर्थिक क्षेत्र का मीडिया पूरे दिन बाजार को उठाने की जीतोड़ कोशिश करता रहा. सरकारी पक्षकार को भी आकर यह तर्क देना पड़ा कि यह गिरावट सरकार के पैकेज के कारण नहीं बल्कि वैश्विक कारणों से है. बहरहाल बाजार आखिर तक नहीं संभला. पैकेज के आखिरी किस्त के बाद पहली बार खुला सेंसेक्स दिन के आखिर में 1068 अंक यानी 3 दशमलव 44 फीसद गिरकर बंद हुआ है.
लक्ष्य प्रबंधन की कसौटी पर रगड़कर और सेंसेक्स पर पैकेज के फौरी असर को देखकर समझ जाना चाहिए कि इस पैकेेेज ने उद्योग व्यापार जगत की धारणा पर कैसा असर डाला है. सरकार को अब नए सिरे से सोचना शुरू कर देना चाहिए.
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सुधीर जैन
अपराधशास्त्र और न्यायालिक विज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल की. सागर विश्वविद्यालय में पढाया भी. उत्तर भारत के 9 प्रदेश की जेलों में सजायाफ्ता कैदियों पर विशेष शोध किया. मन पत्रकारिता में रम गया तो 27 साल ‘जनसत्ता’ के संपादकीय विभाग में काम किया. समाज की मूल जरूरतों को समझने के लिए सीएसई की नेशनल फैलोशिप पर चंदेलकालीन तालाबों के जलविज्ञान का शोध अध्ययन भी किया.देश की पहली हिन्दी वीडियो ‘कालचक्र’ मैगज़ीन के संस्थापक निदेशक, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिमिनोलॉजी एंड फॉरेंसिक साइंस और सीबीआई एकेडमी के अतिथि व्याख्याता, विभिन्न विषयों पर टीवी पैनल डिबेट. विज्ञान का इतिहास, वैज्ञानिक शोधपद्धति, अकादमिक पत्रकारिता और चुनाव यांत्रिकी में विशेष रुचि.