विजय माल्या की लंदन से वापसी का दरवाजा खोलने वाला है कौन, जेम्स बॉन्ड या शरलॉक होम्स? | Who is going to open Vijay Mallya return from London James Bond or Sherlock Holmes | nation – News in Hindi

जाहिर है, सीबीआई के लिए भी एक संस्था के तौर पर ये गर्व की बात है. आखिर माल्या के प्रत्यर्पण के लिए लंदन की अदालतों में भारत सरकार की तरफ से वही कानूनी लड़ाई लड़ रही थी, उसी ने अपने जांच के सिलसिले में माल्या के प्रत्यर्पण की मांग की थी. एजेंसी के इतिहास में भी ऐसे मौके गिने-चुने ही रहे हैं, जब कोई हाई प्रोफाइल व्यक्ति घोटाले के बाद विदेश से भारत आने के लिए मजबूर हो रहा हो, उसके पास छटकने के कोई उपाय नहीं बचे हों. पहले होता तो यही था कि विदेश की अदालतों में भारतीय जांच एजेंसियों को मुंह की ही खानी पड़ती थी, घोटालेबाज भारतीय एजेंसियों की कमजोर जांच और उतनी ही कमजोर अदालती लड़ाई का फायदा अपने हक में उठा लेते थे.
सवाल ये उठता है कि आखिर ऐसा क्या हुआ इस बार, जिसके कारण विजय माल्या जैसे हाई प्रोफाइल व्यक्ति की एक न चली और उसे लंदन की अदालतों में हुई कानूनी लड़ाई में मुंह की खानी पड़ी, वो लंदन जहां उसके पास अपने बचाव के पर्याप्त संसाधन मौजूद थे और जिसकी लड़ाई अदालतों में लड़ने के लिए क्लेयर मौटगुमरी जैसी मशहूर महिला वकील खड़ी रही थी, जिसकी धाक है लंदन में क्रिमिनल केस लड़ने के मामले में.

सीबीआई में एडिशनल एसपी सुमन कुमार ने असंभव को संभव कर दिखाया है.
अगर सीबीआई की प्रेस विज्ञप्ति पर यकीन किया जाए, तो असंभव को संभव कर देने वाला ये बड़ा कारनामा सुमन कुमार नामक एक सीबीआई अधिकारी ने किया है, जो इस मामले का जांच अधिकारी है और फिलहाल सीबीआई में एडिशनल एसपी के पद पर कार्यरत है. खुद सीबीआई इस मामले को अपने इतिहास के हिसाब से मील का पत्थर मान रही है और इसी लिए अपनी विज्ञप्ति में उसने कठोर परिश्रम, श्रमसाध्य जांच और उम्दा प्रयास के लिए सुमन कुमार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है.
सीबीआई के इतिहास में ऐसा कम ही होता है कि इतने हाई प्रोफाइल मामले में कामयाबी का सेहरा एडिशनल एसपी स्तर के किसी अधिकारी के सर बांधा जाता है, जिसने अपना कैरियर पुलिस सब इंस्पेक्टर के तौर पर शुरु किया हो और अभी तक पूर्णरुपेण एसपी भी नहीं बन पाया हो. पहली नजर में ऐसा ही अहसास होता है कि सीबीआई के वरिष्ठ अधिकारी सफलता का श्रेय किसी जूनियर अधिकारी को देकर अपने बड़प्पन का परिचय दे रहे हैं. और अगर सच्चाई भी यही हो, तो सुमन कुमार सीबीआई के इतिहास में असली जेम्स बॉन्ड का दर्जा हासिल कर सकते हैं, क्योंकि अभी तक इयान फ्लेमिंग की कल्पना की उड़ान ही जेम्स बॉन्ड के तौर पर अलग-अलग अभिनेताओं के जरिये पर्दे पर उतरती रही है, प्रथम अभिनेता शॉन कॉनरी से लेकर हाल के वर्षों में डैनियल क्रेग तक. सिनेमा के रुपहले पर्दे पर जेम्स बॉन्ड एक से एक खतरनाक मिशन अपने दम पर अंजाम दे देता है, किसी का साथ लिये बगैर, शायद ही कभी उसे एजेंसी का डायरेक्टर एम भी कोई मदद करते दिखता हो.
सवाल ये उठता है कि क्या सुमन कुमार भी सीबीआई के लिए ऐसे ही जेम्स बॉन्ड साबित हुए हैं. सीबीआई तो शायद यही बताने की कोशिश कर रही है, लेकिन एजेंसी पर बारीक निगाह रखने वालों को अंदाजा है कि प्रत्यर्पण जैसा गंभीर मामला, वो भी टेढ़ी नाक वाले ब्रिटिश अधिकारियों, राजनयिकों और वकीलों से अकेले दम सब कुछ करा लेना किसी अजूबे से कम नहीं, बल्कि असंभव है. फिर सवाल ये उठता है कि आखिर सीबीआई नेतृत्व इस अधिकारी को हीरो बनाने पर क्यों तुला हुआ है, इसी के माथे सारी क्रेडिट क्यों लादने में लगा हुआ है. वो भी उस सीबीआई में हो रहा है, जहां कोलकाता के अमेरिकन सेंटर पर हुए हमले के आरोपी आफताब अंसारी को भारत लाने पर सारी स्पॉटलाइट नीरज कुमार जैसे वरिष्ठ अधिकारी पर गई थी. ये वही नीरज कुमार ही थे, जिन्होंने जब गुजरात के मशहूर डॉन अब्दुल लतीफ को दिल्ली में पकड़ने में अपने जूनियर अधिकारियों के साथ गुजरात पुलिस की मदद की थी, तो तत्कालीन डायरेक्टर ने उन्हें क्रेडिट देते हुए गुजरात जाने की इजाजत दी थी, जहां तत्कालीन सीएम केशुभाई पटेल ने उनका नागरिक अभिनंदन किया था और सीबीआई में उस समय डीआईजी रहे नीरज कुमार की जमकर तारीफ की थी.
क्या विजय माल्या के मामले में कहानी कुछ और ही है, क्या अकेले सुमन कुमार के भरोसे सीबीआई ने ये पूरा केस छोड़ रखा था, जहां किसी भी मामले की कोई भी फाइल जांच अधिकारी यानी आईओ से शुरु होकर, एसपी, डीआईजी, ज्वाइंट डायरेक्टर, एडिशनल-स्पेशल डायरेक्टर तक होते हुए डायरेक्टर तक जाती है, तब कोई फैसला होता है. फिर एक ऐसा मामला जहां चुनौती माल्या जैसे आदमी के प्रत्यर्पण से जुड़ी हो, जो न सिर्फ कॉरपोरेट जगत का बड़ा सितारा, बल्कि पैसे के जोर पर राज्य सभा का सदस्य तक बन गया था, उससे जुड़ा हो और जिसकी पैरवी करने वालों में देश के बड़े नेता शामिल थे. इसीलिए कौतूहल ये पैदा होता है कि सुमन कुमार ने अपने अकेले की सामर्थ्य से ये सब कुछ हासिल कर लिया और एजेंसी के लिए जेम्स बॉन्ड का दर्जा रखने लगे, तो फिर माल्या के मामले में इतना समय लगा कैसे, बॉन्ड की छवि तो चुटकी बजाते ही बड़े से बड़े ऑपरेशन को पूरा करने की है.

मैडम तुसैद म्यूजियम में मोम की मूर्तियों के बीच एक मूर्ति जेम्स बांड के चरित्र को फिलहाल पर्दे पर निभाने वाले डैनियल क्रेग की भी है.
इस पूरी उलझन को दूर करने के लिए माल्या केस की बारीकियां समझना आवश्यक है, क्योंकि ये मामला बैंकिंग सिस्टम के खोखलेपन, कानून की पेचीदगियों, राजनीतिक दखलंदाजी और रसूख के बेजा इस्तेमाल का है, जिस इंद्रजाल से बाहर आने के लिए जेम्स बॉन्ड से ज्यादा शरलॉक होम्स की जरूरत थी. वैसे भी जिस लंदन में माल्या का केस ब्रिटिश अदालतों में चला, वहां पर शरलॉक होम्स के चरित्र को असली आदमी के तौर पर ट्रीट किया जाता है और जेम्स बॉन्ड को फिल्मी चरित्र के तौर पर.
अगर इस अंतर को समझना हो, तो लंदन में मैडम तुसैद गैलरी के बाहर और भीतर झांकना होगा. मैडम तुसैद म्यूजियम के बाहर शरलॉक होम्स की कांसे की आदमकद प्रतिमा लगी है, जिसके बेस पर लिखा है दी ग्रेट डिटेक्टिव और अंदर सैकड़ों मोम की मूर्तियों के बीच एक मूर्ति जेम्स बांड के चरित्र को फिलहाल पर्दे पर निभाने वाले डैनियल क्रेग की है, जिसके साथ खड़े होकर मैंने भी कभी अपनी तस्वीर खिचाई थी. बॉन्ड से काफी पहले होम्स का चरित्र अस्तित्व में आया, लेकिन होम्स की क्रेडिबिलिटी एक इन्वेस्टीगेटर के तौर पर बॉन्ड से काफी अधिक रही, लोग उसे काल्पनिक होते हुए असली मानते रहे और बांड को हमेशा ही कल्पना की लंबी उड़ान के तौर पर देखते रहे.

मैडम तुसैद म्यूजियम के बाहर शरलॉक होम्स की कांसे की आदमकद प्रतिमा लगी है.
सवाल ये उठता है कि फिर इस मामले में शरलॉक होम्स की भूमिका किसने निभाई. ये जानने के लिए इस केस की तह में जाना होगा. बेंगलुरु स्थित यूबी ग्रुप के मालिक विजय माल्या जो अपने आलीशान मकानों, विला, गाड़ियों और हवाई जहाजों के लिए इक्कीसवीं सदी के प्रारंभ होने तक मशहूर हो चुके थे, अपनी व्यावसायिक विस्तार की कल्पना की भी लंबी उड़ान भरने में लग गये थे. आखिर भारत में शराब के बादशाह यानी लिकर बैरन की उपाधि हासिल कर चुके माल्या को जमकर कमाई हो रही थी अपने धंधे से, ऐसे में वो भी डाइवर्सिफिकेशन के लिए क्यों नहीं जाते. भारत के ज्यादातर उद्योग समूह ऐसा ही कर रहे थे. ऐसे में अपने लिए माल्या ने रास्ता चुना नई हवाई सेवा शुरु करने का यानी एयरलाइंस के धंधे का. तब तक भारतीय घरेलू बाजार में इंडियन एयरलाइंस और जेट के अलावा गिनी-चुनी ही कंपनियां और थीं, मसलन नो फ्रिल्स एयरलाइंस के तौर पर सबसे पहले बाजार में आई थी एयर डक्कन. भारत में हवाई उड़ाने भरने की ललक बढ़ रही थी, पैसेंजर ट्रैफिक बढ़ रहा था, ऐसे में माल्या ने रास्ता चुना एक ऐसी एयरलाइंस खड़ी करने का, जिसमें सवार होना लोग अपने लिए गर्व की बात समझें, जिसमें एयर होस्टेस से लेकर विमान के अंदर का माहौल तक आलीशान हो, दूसरे एयरलाइंस में यात्रा करने वालों को रश्क हो.
इसलिए माल्या ने बियर के अपने मशहूर ब्रांड किंगफिशर के नाम से ही 2003 में अपनी किंगफिशर एयरलाइंस शुरु की. एक-एक चीज पर माल्या ने अपनी लाइफस्टाइल की छाप छोड़ी, हमेशा सुंदरियों से घिरे रहने की इमेज बना चुके माल्या ने एयर होस्टेस के तौर पर भी मॉडल्स जैसी लगने वाली युवतियों को नियुक्त किया. हवाई जहाजों की अंदर और बाहर से सज-धज पर वैसे ही पैसा खर्च किया, जैसा ग्राउंड हैंडलिंग, टिकेंटिंग और चेक- इन के मामले में. महज कुछ महीनों में माहौल ऐसा बना कि हर कोई किंगफिशर एयरलाइंस में यात्रा करने के लिए बेकरार रहने लगा, आखिर इस एयरलाइंस की विमानों का किराया भी बाकी एयरलाइंस के मुकाबले बराबरी का ही था. माल्या ने खुद अपने विमानों को प्रोमोट किया, विमान में सवार होते ही माल्या का संदेश यात्रियों को सुनाई पड़ता था, जिसमें हर चीज का ध्यान खुद रखने का माल्या दावा करते नजर आते थे. माल्या ने अपने इस विमानों की कई खास उड़ाने भी भरवाई, कभी अपने किसी समारोह में अपने खास अतिथियों को ढोने के लिए तो कभी किसी और के लिए. विमानों के कंप्लीमेंट्री टिकट नेताओं से लेकर रसूखदार अधिकारियों तक को हासिल होते रहे. माल्या का जलवा ऐसा था कि एयर इंडिया के विमान हवा में मंडराते रहते थे, और उनके बाद एयरपोर्ट के एयरस्पेस में पहुंचने वाले माल्या के विमानों को प्रायोरिटी लैंडिंग मिल जाती थी.
लेकिन माल्या का जलवा ज्यादा लंबा चला नहीं, एयर लाइंस के मामले में. ये धंधा ऐसा है कि अगर आपने खर्चों पर ध्यान नहीं दिया, तो बर्बाद होते देर नहीं लगती. भारतीय बाजार में ही दमानिया से लेकर सहारा तक के विमान सेवाओं की बदहाली या फिर किसी के हाथ बिक जाने की कहानी पुरानी है. माल्या ने अपनी इन गलतियों से भी नहीं सीखा, बल्कि फटाफट विस्तार के चक्कर में एयर डक्कन को भी खरीद बैठे. विदेशी डेस्टिनेशन पर जाने की तैयारी करने लगे. लेकिन तब तक किंगफिशर एयरलाइंस का गुबार फूटने लगा. और इसी के साथ ही माल्या का जलवा भी. घाटे में रहने के कारण किंगफिशर एयरलाइंस के लिए लिये गये कर्जों को चुकाने में माल्या डिफॉल्ट करने लगे. लेकिन माल्या का जलवा ऐसा था कि बैंक माल्या को वसूली के लिए घेरने से बचते रहे, माल्या राज्य सभा सदस्य के तौर पर देश के प्रमुख नेताओं और नौकरशाहों से जो घिरे रहते थे.
माल्या के लिए मुसीबत की शुरुआत तब हुई, जब डॉक्टर एम जगन्नाथ नामक कांग्रेसी सांसद ने 29 अप्रैल 2011 को एक चिट्ठी तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखी. ये वही एम जगन्नाथ थे जो एक समय तेलगु देशम पार्टी के नेता चंद्रबाबू नायडू के बेहद करीबी थे और पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य भी रह चुके थे.1996, 1999 और 2004 में टीडीपी की तरफ से लोकसभा में नगरकर्नुल सीट का प्रतिनिधित्व करने वाले जगन्नाथ ने 2008 में पैसे लेकर टीडीपी के व्हीप के खिलाफ जाकर सदन में कांग्रेस के पक्ष में मतदान कर दिया था. इसकी वजह से टीडीपी ने उन्हें पार्टी से बर्खास्त कर दिया था और तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी ने इनकी सदस्यता समाप्त कर दी थी. इसके बाद जगन्नाथ कांग्रेस में शामिल हो गये थे और 2009 में चौथी बार लोकसभा के लिए चुने गये.
दलित समाज से आने वाले जगन्नाथ ने ही तब आईडीबीआई बैंक में बीके बत्रा नामक वरिष्ठ अधिकारी की कारगुजारियों का हवाला देते हुए डिप्टी एमडी के तौर पर उनके चयन का विरोध किया था और इसी पत्र में गलत ढंग से माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस को मिले कर्ज का जिक्र और उसमें हुई धांधली की शिकायत मनमोहन सिंह से की थी. मनमोहन सिंह ने जगन्नाथ के उस पत्र को ही सीबीआई को आगे की जांच के लिए भेज दिया था, जिस पत्र में आरोप लगाया गया था कि आईडीबीआई बैंक के शीर्ष प्रबंधन ने तमाम नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस को 950 करोड़ रुपये का कर्ज दे दिया है.
खास बात ये रही कि लोकसभा सदस्य जगन्नाथ की चिट्ठी और पीएमओ से इस बारे में जांच की सूचना आने के बावजूद सीबीआई ने इस मामले में सीधे-सीधे कोई एफआईआर दर्ज कर मामले की जांच तेज नहीं की, बल्कि करीब आठ महीने बाद 2 जनवरी 2012 को इस मामले की इंट्री महज सोर्स इंफोर्मेशन के तौर पर रजिस्टर कर ली, जिसे सीबीआई की भाषा में अमूमन एसआईआर कहा जाता है. उस वक्त सीबीआई के निदेशक एपी सिंह थे. इस एसआईआर की वेरिफिकेशन का काम अगले तीन महीने तक चलता रहा और आखिरकार इस मामले में शिकायत मिलने के पूरे एक साल बाद सीबीआई की बीएसएफसी इकाई ने तीस अप्रैल 2012 को इस मामले में आरंभिक जांच शुरु करने की मंजूरी हासिल करने के लिए निदेशक को पत्र लिखा. आरंभिक जांच को सीबीआई की बोलचाल की भाषा में प्रीलिमनरी इंक्वायरी या फिर पीई रजिस्टर करना कहा जाता है. सीबीआई के अंदर बीएसएफसी सेल खास तौर पर बैंकों से जुड़े धोखाधड़ी के मामले की जांच करता है, जिसे बैंकिंग, सिक्यूरिटीज एंड फ्रॉड सेल के तौर पर भी जाना जाता है.
खास बात ये रही है कि बैंकिंग से जुड़े भ्रष्टाचार और धोखाखड़ी के इस बड़े मामले में शिकायत मिलने के पूरे तीन साल बाद तक इस मामले में सिर्फ चिट्ठियों का आदान-प्रदान चलता रहा. ये चिट्ठियां सीबीआई के एसपी से लेकर निदेशक और बैंक के अधिकारियों के बीच लिखी जाती रहीं. इस दौरान दिसंबर 2012 में सीबीआई के निदेशक के तौर पर रंजीत सिन्हा ने कुर्सी संभाल ली थी. खास बात ये रही कि 2014 के लोकसभा चुनाव, जिसमें देश ही नहीं पूरी दुनिया को लग रहा था कि नरेंद्र मोदी की अगुआई में बीजेपी की सरकार केंद्र में बनने जा रही है, उस चुनाव में प्रमुख मुद्दे के तौर पर मोदी ने यूपीए सरकार के दौरान हुए भ्रष्टाचार के मामलों को जनता के सामने रखा था और मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी पर हमला बोला था.
हुआ भी वही, उम्मीद के मुताबिक ही जब 16 मई 2014 को मतगणना हुई, तो बीजेपी अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने की हालत में आ गई. ऐसे में मोदी की अगुआई वाली नई सरकार लंबे समय से पेंडिंग पड़े माल्या मामले में जांच क्या हुई इस बारे में पूछ न ले, इस डर से रंजीत सिन्हा ने 19 मई 2014 को इस मामले में पीई रजिस्टर करने का आदेश दिया. यानी शिकायत मिलने के पूरे तीन साल बाद और तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी औपचारिक तौर पर नरेंद्र मोदी को सरकार बनाने का निमंत्रण दें, उसके ठीक एक दिन पहले. सीबीआई भ्रष्टाचार के इस मामले को लेकर कितनी गंभीर या ढीली थी, कहने की आवश्यकता नहीं, तारीखें और आंकड़े ये खुद ही बता रहे हैं.
मोदी सरकार के तेवर को भांपते हुए पीई रजिस्टर करने के आदेश के बाद आखिरकार सीबीआई में 10 जून 2014 को माल्या मामले में पीई रजिस्टर हुई. एजेंसी की बीएसएफसी सेल मुंबई ने इस मामले में आरंभिक जांच का सिलसिला शुरु किया. इस पीई के रेग्युलर केस में तब्दील होने में साल भर से अधिक का समय और लगा, तब तक रंजीत सिन्हा की जगह अनिल सिन्हा सीबीआई के निदेशक बन चुके थे. अनिल सिन्हा के 17 जुलाई 2015 के आदेश के मुताबिक ये पीई रेग्लुयर केस यानी आरसी के तौर पर 29 जुलाई 2015 को रजिस्टर की गई, जो सीबीआई के रिकॉर्ड में RC/6(A)/2015 के तौर पर जानी जाती है. अब जरा अंदाजा लगाइए सीबीआई की रफ्तार का. सवा चार साल के दौरान एक निदेशक के समय में एसआईआर, दूसरे निदेशक के समय में पीई और तीसरे निदेशक के समय में आरसी में तब्दील हुई वो शिकायत, जो सीधे देश के प्रधानमंत्री को की गई थी 2011 में, वो भी सत्तारुढ पार्टी के सांसद की तरफ से.
अमूमन एसआईआर के वक्त गुप्त जांच की जाती है, कोई दस्तावेज सीज नहीं किये जाते और शिकायत की बुनियादी जांच में सच्चाई लगने पर पीई की तरफ बढ़ा जाता है. पीई रजिस्टर होने पर आधिकारिक तौर पर सीबीआई अधिकारी संबंधित विभागों से दस्तावेजों की मांग कर जांच कर सकते हैं और जांच में आपराधिक संलिप्तता पाये जाने पर रेग्युलर केस यानी आरसी रजिस्टर किया जाता है. आरसी रजिस्टर होने के बाद जांच किसी नियमित जांच अधिकारी के पास चली जाती है और आरसी रजिस्टर होने के साथ ही छापेमारी और गिरफ्तारी की कार्रवाई शुरु हो जाती है.
लेकिन इस बड़े घोटाले के मामले में सीबीआई का ढीला ढाला रवैया आरसी रजिस्टर करने के बाद भी खत्म नहीं हुआ. जो रेग्युलर केस दर्ज भी किया गया, उसमें भारतीय दंड संहिता यानी आईपीसी की धारा 409 का इस्तेमाल किया गया. ये धारा उन सरकारी कर्मचारियों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकरों के खिलाफ लगती है जो जानबूझकर सरकारी संपत्ति का नुकसान पहुंचाते हैं, या फिर धोखाधड़ी से सरकारी खजाने या बैंक से पैसे की निकासी कर लेते हैं. इस धारा के तहत दस साल से लेकर आजीवन कारावास और आर्थिक दंड का भी प्रावधान है. लेकिन मजे की बात ये रही कि माल्या के खिलाफ ये धारा लग ही नहीं सकती थी, और इस सेक्शन में दर्ज हुई शिकायत के आधार पर माल्या के प्रत्यर्पण का मामला ब्रिटेन की अदालत में चल ही नहीं सकता था, क्योंकि माल्या न तो कोई सरकारी अधिकारी था और न ही बैंक का कर्मचारी, वो तो एक उद्योगपति था, जिसने बैंक अधिकारियों के साथ मिलीभगत कर बड़ा कर्जा हासिल किया था और फिर उसका बेजा इस्तेमाल किया था. दरअसल, माल्या के सामने असली मामला तो चीटिंग यानी धोखाधड़ी का था, जिसमें आईपीसी के सेक्शन 420 के तहत मामला बनता था. जाहिर है, 420 की ये धारा न लगाकार अप्रत्यक्ष तौर पर माल्या की मदद ही की जा रही थी ताकि अगर उसके खिलाफ कोई केस चले भी तो मामला अदालत में टिक न सके. इसी समय इस केस में जांच अधिकारी के तौर पर सुमन कुमार की औपचारिक इंट्री हुई, जो फिलहाल सीबीआई के लिए माल्या मामले के हीरो हैं, जेम्स बॉन्ड हैं.
इस मामले में सुमन कुमार के जुड़ने के बावजूद कुछ बुनियादी चीजें नहीं की गईं, मसलन जिन लोगों के खिलाफ शिकायत दर्ज की गई, उनके यहां तुरंत छापेमारी करना या फिर उनकी गिरफ्तारी करना. रेग्युलर केस रजिस्टर होने के बाद ये काम फटाफट किया जाता है. लेकिन इसमे भी पूरे ढाई महीने की देरी की गई. ऐसा नहीं है कि ये काम सुमन कुमार ने जानबूझकर किया. केस के आईओ के तौर पर आरोपियों के यहां तलाशी का जो प्रस्ताव सुमन कुमार ने भेजा था, डायरेक्टर की मेज पर वो लंबे समय तक फाइलों के अंदर धूल खाता रहा और आखिरकार लंबी देरी के बाद जब हरी झंडी मिली, तो माल्या और उसके किंगफिशर एयरलाइंस के सीएफओ रघुनाथन के घर पर दस से तेरह अक्टूबर 2015 के बीच छापेमारी हुई, जिसमें सीबीआई को बड़ी मात्रा में दस्तावेज मिले. इसी दौरान 12 अकटूबर 2015 को माल्या को पकड़ने के लिए लुकआउट सर्कुलर भी जारी किया गया. लुकआउट सर्कुलर में तमाम पासपोर्ट कंट्रोल एजेंसियों से कहा गया था कि माल्या के सामने आते ही उसे हिरासत में ले लिया जाए. लेकिन ऐसा हो नहीं सका. माल्या 2 मार्च 2016 को लंदन भाग गया. माल्या को भगाने में कितनी गलती सीबीआई की रही और कितनी गलती एयरपोर्ट पर तैनात अधिकारियों की, ये एक अलग जांच का विषय़ है, जिसके बारे में पहले ही काफी विवाद हो चुका है.
मजे की बात ये रही कि कई ट्रंक भरकर जो दस्तावेज, पेन ड्राइव, फ्लॉपी और सीपीयू तलाशी के दौरान हासिल किये गये थे, उनकी जांच का काम भी शुरु नहीं किया गया, बल्कि वो चुपचाप बॉक्स में रखे रहे. इस बीच माल्या के लंदन भाग जाने के कारण मोदी सरकार पर हमले तेज कर दिये गये, विपक्ष माल्या को भगाने का आरोप पूरी ताकत से मोदी सरकार पर लगाता रहा, इसमें वो पार्टियां भी शामिल थीं, जिन्होंने खुद सत्ता में रहते हुए अपने रसूख का इस्तेमाल कर बैंकों पर दबाव बना कर माल्या को लगातार मोटा कर्जा दिलाया था. ये कोई छुपी बात नहीं थी कि पैसे के दम पर राज्य सभा का सदस्य बन चुके माल्या को कर्ज दिलाने के लिए असंख्य बैठकें उस राजीव गांधी भवन में हुई थीं, जो किसी बैंक का दफ्तर नहीं, बल्कि नागरिक उड्डयन मंत्रालय का दफ्तर है. वहां बैकरों को बुलाकर माल्या को लोन देने के लिए दबाव बनाये जाने की बात दिल्ली में ज्यादातर पत्रकारों को मालूम है, खास तौर पर बिजनेस पत्रकारों को.

मार्च 2016 में माल्या विदेश भागा और अप्रैल 2016 में अस्थाना सीबीआई में आए.
माल्या के विदेश भाग जाने के थोड़े समय बाद ही सीबीआई में राकेश अस्थाना की इंट्री हुई, एडिशनल डायरेक्टर के तौर पर. 1984 बैच के गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी अस्थाना पहले भी सीबीआई में दस साल तक काम कर चुके थे, 1992 से 2002 के बीच, चारा घोटाले से लेकर कोलतार घोटाले तक, कई बड़े मामलों की जांच की थी. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव को जेल का रास्ता दिखाने वाले भी अस्थाना ही थे.
मार्च 2016 में माल्या विदेश भागा और अप्रैल 2016 में अस्थाना सीबीआई में आए. आने के तीन महीने बाद ही जून 2016 में मोदी सरकार के निर्देश पर बड़े आपराधिक मामलों की जांच में तेजी लाने के लिए अस्थाना की अगुआई में विशेष जांच दल यानी एसआईटी का गठन किया गया. इस एसआईटी में माल्या सहित आधे दर्जन बड़े मामलों को रखा गया, जिसमें माल्या केस के अलावा आगुस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर घोटाला, चिटफंड घोटाला, रॉबर्ड वाड्रा जमीन घोटाला और पारामाउंट एयरवेज घोटाले से जुड़े केस थे.
अस्थाना ने जब माल्या केस की समीक्षा की तो पता चला कि एक तो मामला गलत आपराधिक धाराओं में दर्ज हुआ है, दूसरा ये कि जो दस्तावेज हासिल किये गये हैं माल्या और इसके खास लोगों के यहां से, उसकी स्क्रुटिनी तक नहीं की गई है. अस्थाना ने जब इस मामले में धोखाधड़ी और साजिश की धाराएं लगाने के लिए कहा, तो खुद जांच अधिकारी के तौर पर सुमन कुमार भी इससे सहमत नहीं थे. आखिरकार जब तमाम दस्तावेजों की स्क्रुटिनी हुई, तो साफ तौर पर सैकड़ों ईमेल और चिट्ठियों के जरिये ये निकल कर आया कि किस तरह से साजिश के तहत आईडीबीआई बैंक के अधिकारियों ने माल्या के साथ मिलकर बड़े पैमाने पर उसको कर्जा दिया और किसी भी किस्म की सावधानी नहीं बरती.
सीबीआई जिस मामले को सिर्फ किंगफिशर एयरलाइंस की बदहाली के कारण व्यवसाय में विफलता का केस मान रही थी, वो अस्थाना के कड़े तेवर के कारण ही धोखाधड़ी के मामले में तब्दील हो सका. अगर धोखाधड़ी की धाराएं माल्या के सामने नहीं लगाई गईं होती, तो उसके प्रत्यर्पण का केस भी ब्रिटिश कोर्ट में टिक नहीं पाता, क्योंकि जो अपराध दोनों देशों में अपराध के तौर पर ट्रीट नहीं किये जाते, उसमें मामला आगे बढ़ता ही नहीं. अस्थाना को ये बात मालूम थी कि धोखाधड़ी दोनों ही देशों में गंभीर अपराध है, आखिर आईपीसी का सेक्शन 420 अंग्रेजी शासन काल के दौरान ही अस्तित्व में आया था. सीबीआई के रवैये में अस्थाना की वजह से आये इस बदलाव के कारण ही माल्या के लिए मुश्किलें बढ़ी, अन्यथा वो लंदन में आराम से पूरी जिंदगी शाही अंदाज में गुजार सकता था.
अस्थाना की अगुआई में माल्या केस की जांच में तेजी आने के साथ ही तमाम दस्तावेजों की स्क्रुटिनी के आधार पर बीस सितंबर 2016 को इस मामले में भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धाराएं भी जोड़ी गई और इसके बाद सात नवंबर 2016 को 420 के सेक्शन जोड़े गये. खास बात ये रही कि इसके लिए नीचे से ऊपर यानी जांच अधिकारी से लेकर निदेशक तक सबको सहमत करने में अस्थाना को काफी मेहनत लगी, क्योंकि एजेंसी पहले इसे धोखाधड़ी का मामला मानने को ही तैयार नहीं थी और माल्या का अपराध बताने के लिए तो कोई धारा लगाई ही नहीं गई थी. सीबीआई की अपनी व्यवस्था में हर केस की फाइल नीचे से शुरु होकर निदेशक तक जाती है और सबको अपनी टिप्पणी हर फाइल पर डालनी पड़ती है, आईओ से लेकर एसपी और डीआईजी, ज्वाइंट डायरेक्टर से लेकर एडिशनल-स्पेशल डायरेक्टर और फिर आखिर में डायरेक्टर तक. अस्थाना के लिए इस मामले में सीबीआई के रुख को बदलना आसान नहीं था, क्योंकि पांच साल से सीबीआई इस मामले में अलग रुख ही लेकर चल रही थी. आखिरकार जब अस्थाना ने दस्तावेजी सबूतों के आधार पर नेताओं, बैंकरों और माल्या व उसके अधिकारियों की सांठ-गांठ इस मामले में दिखा दी, तब जाकर बात बनी, खुद जांच अधिकारी तक को इसके लिए सहमत करना पड़ा. ये अस्थाना ही थे, जिन्होंने आईडीबीआई बैंक वाले मामले के बाद स्टेट बैंक की अगुआई वाले बैंकों के उस समूह को भी माल्या के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए प्रोत्साहित किया, जिन बैंकों ने कुल मिलाकर 2300 करोड़ रुपये का कर्ज माल्या की किंगफिशर एयरलाइंस को दिया था और जिस कर्ज का कुछ हिस्सा माल्या ने बाद में कही और भी खिसका दिया था. ये बैंक इस मामले में एफआईआर कराने को जल्दी तैयार नहीं थे, लेकिन अस्थाना के समझाने पर ही ये इसके लिए तैयार हुए.
माल्या मामले में असली तेजी तब आई, जब अनिल सिन्हा सीबीआई डायरेक्टर पद से रिटायर हुए और नियमित डायरेक्टर का चयन होने तक इंचार्ज डायरेक्टर के तौर पर सीबीआई की कमान राकेश अस्थाना को मिली, जो उस वक्त सीबीआई में एडिशनल डायरेक्टर ही थे.
तीन दिसंबर 2016 से लेकर 31 जनवरी 2017 तक सीबीआई के इंचार्ज डायरेक्टर रहे अस्थाना. इस दौरान मानो माल्या केस की जांच को पंख लग गये. 23 जनवरी 2017 को माल्या के घरों और कार्यालयों पर फिर से छापा मारा गया, साथ में उसके वरिष्ठ अधिकारियों के घर पर भी. यही नहीं, आईडीबीआई बैंक के वरिष्ठ अधिकारियों के यहां भी छापे पड़े. अगले दिन ही कुल नौ लोगों को गिरफ्तार कर अदालत में पेश किया गया.
जिन नौ लोगों को गिरफ्तार किया गया, उनमें से चार जहां किंगफिशर एयरलाइंस के वरिष्ठ अधिकारी थे, तो बाकी पांच आईडीबीआई बैंक के. किंगफिशर एयरलाइंस के सीएफओ ए रघुनाथन, एवीपी फाइनेंस रहे शैलेश बोरकर, डीजीएम फाइनेंस रहे अमित नाडकर्णी के साथ ही सीनियर मैनेजर एसी शाह को गिरफ्तार किया गया. आईडीबीआई बैंक के जिन पांच अधिकारियों को गिरफ्तार किया गया, उनमें बैंक के सीएमडी योगेश अग्रवाल के अलावा बैंक के डीएमडी ओवी बुंबेलु और बीके बत्रा, कार्यकारी निदेशक एसकेवी श्रीनिवासन और जीएम आरएस श्रीधर भी रहे. 24 जनवरी 2017 को इन्हें अदालत में पेश करने के साथ ही इस मामले की चार्जशीट में फाइल कर दी गई.
चार्जशीट जल्दी दाखिल करना इसलिए भी आवश्यक था क्योंकि इसके बाद ही माल्या का प्रत्यर्पण यानी लंदन से उसे लाने की कानूनी कार्यवाही शुरु हो सकती थी. मुंबई में सीबीआई के विशेष जज ने इस मामले का संज्ञान लिया और बिना किसी अवधि वाला गैर जमानती वारंट जारी कर दिया. चूंकि ये वारंट बिना किसी समय सीमा वाला जारी किया गया था, इसलिए ये अनंत काल तक प्रभावी रह सकता था, माल्या को इसके सहारे कभी भी पकड़ कर भारत लाया जा सकता था. ये वारंट हासिल करने के बाद प्रत्यर्पण अनुरोध भी तुरंत विशेष अदालत में फाइल कर दिया गया, यानी चार्जशीट के महज एक हफ्ते के अंदर 31 जनवरी 2017 को. सीबीआई के इतिहास में प्रत्यर्पण के लिए इस रफ्तार से कार्यवाही शायद ही कभी हुई थी.
इस प्रत्यर्पण अनुरोध को रजिस्टर कराने के बाद इसे कोर्ट से प्रमाणित कराके इसे तुरंत वाया गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और ब्रिटिश उच्चायोग 9 फरवरी तक ब्रिटेन के गृह मंत्रालय में पहुंचा दिया गया. ब्रिटिश गृह मंत्रालय जो होम ऑफिस के तौर पर जाना जाता है, वहां भी इस तरह का फॉलोअप रखा गया कि महज एक हफ्ते के अंदर होम ऑफिस ने तमाम दस्तावेजों की प्रौसेसिंग कर ये प्रमाणित कर दिया कि प्रत्यर्पण से जुड़े सभी कागजात सही हैं और ब्रिटेन के गृह मंत्री, जो सेक्रेटरी ऑफ स्टेट के तौर पर जाने जाते हैं, 16 फरवरी 2017 को इस पर अपनी मुहर लगा दी. अमूमन इस पूरी प्रक्रिया में कम से कम तीन महीने लग जाते हैं, लेकिन ये सारा कुछ हुआ महज एक हफ्ते में, क्योंकि अस्थाना की अगुआई में केस से जुड़े सभी दस्तावेज सही ढंग से तैयार किये गये थे, कहीं किसी संशय की गुंजाइश छोड़ी ही नहीं गई थी. सीबीआई के अंदर इस मामले के दस्तावेजों को दुरुस्त करने में मातहत अधिकारी के तौर पर ज्वाइंट डायरेक्टर साईं मनोहर भी योगदान दे रहे थे, डीआईजी के तौर पर जगरूप थे, तो जांच अधिकारी के तौर पर सबसे निचले पायदान पर सुमन कुमार थे ही.
ब्रिटिश गृह मंत्रालय की मंजूरी मिलने के बाद संबंधित कागजात लंदन की विशेष प्रत्यर्पण कोर्ट में सौंपे गये, जहां उनका अध्ययन करने के बाद संबंधित मजिस्ट्रेट ने माल्या के खिलाफ वारंट जारी कर दिया और इसी के आधार पर लंदन में माल्या को 18 अप्रैल 2017 को गिरफ्तार किया गया. अगर टाइमलाइन पर निगाह डाली जाए, तो अस्थाना के सीबीआई में आने के महज एक साल और केस की कमान संभालने के महज नौ महीने के अंदर माल्या लंदन में गिरफ्तार हुआ. ये सब कुछ उसी सीबीआई में हुआ, जहां छह साल पहले शिकायत मिलने के बाद मामला पांच साल तक घिसटता रहा था और पहली गिरफ्तारी पौने छह साल बाद हुई थी, वो भी अस्थाना के प्रभारी निदेशक रहने के दौरान.
माल्या गिरफ्तार तो हुआ, लेकिन ब्रिटिश कानूनी प्रावधानों के तहत कुछ शर्तों के तहत उसे जमानत मिल गई और ब्रिटेन की नीचली अदालत में उसने अपने प्रत्यर्पण को चुनौती दी. इससे पहले दोनों पक्षों के द्स्तावेज एक-दूसरे को दिये गये. आखिरकार चार दिसंबर 2017 से लेकर 14 दिसंबर 2017 तक इस मामले की लगातार सुनवाई चली. इस केस की अदालत में सुनवाई से पहले अस्थाना पांच बार लंदन गये इस मामले में संबंधित सरकारी वकील को ब्रीफ करने के लिए, इस मामले से जुड़े तमाम सबूत और दस्तावेजों को समझाने के लिए. और जब सुनवाई का सिलसिला शुरु हुआ, तो पूरे वक्त अस्थाना लंदन में मौजूद रहे. जाहिर है, लंदन में किसी मामले को लड़ा जाना आसान काम नहीं था. हर रोज की सुनवाई के बाद अगले दिन की तैयारी करना, क्राउन प्रौसिक्यूशन सर्विस से जुड़े सरकारी वकील को ब्रीफ करना, अदालत में बचाव पक्ष की तरफ से उठाई गई आपत्तियों का जवाब देना. ये बड़ा ही गंभीर काम था. सीबीआई का पक्ष ब्रिटिश सरकार के वकील रख रहे थे, तो माल्या ने अपने बचाव में उस लेडी एडवोकेट क्लेयर मौंटगुमरी को खड़ा कर रखा था, जिसकी फौजदारी और प्रत्यर्पण मामलों में ब्रिटेन के अंदर बड़ी धाक थी.
जिस वक्त लंदन की अदालत में ये सब हो रहा था, अस्थाना खुद सीबीआई के अंदर भी लड़ाई लड़ रहे थे, अपने ही डायरेक्टर आलोक वर्मा से. वो आलोक वर्मा, जो औपचारिक तौर पर अस्थाना के प्रोमोशन का विरोध कर चुके थे, एडिशनल से स्पेशल डायरेक्टर बनाए जाने को लेकर. वर्मा की आपत्तियों के बावजूद जब सरकार ने सीवीसी की सलाह के मुताबिक अस्थाना को स्पेशल डायरेक्टर बना दिया, तो प्रशांत भूषण को आगे करके सुप्रीम कोर्ट में उनके प्रोमोशन को चुनौती दे दी गई. इसमें उस नोट का हवाला दिया गया था, जिसमें अस्थाना के खिलाफ कथित भ्रष्टाचार की जांच चल रही होने की बात आलोक वर्मा की तरफ से की गई थी. प्रशांत भूषण की इस याचिका को आधार बनाकर माल्या की वकील ने अस्थाना पर सुनवाई के दौरान हमला बोला था और कहा था कि जिस अधिकारी के खिलाफ खुद भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं, उसकी अगुआई में चल रही माल्या के खिलाफ जांच भी सही नहीं हो सकती और इसे भी माल्या के प्रत्यर्पण को रोकने का आधार बनाया गया.
अस्थाना अपने ऊपर लग रहे इन आरोपों का देश के बाद अब विदेश में सामना कर रहे थे, तो दूसरी तरफ माल्या के वकीलों के तर्क को कुंद भी करने की कोशिश कर रहे थे. माल्या के प्रत्यर्पण के खिलाफ वेस्टमिंस्टर की मजिस्ट्रेट कोर्ट में जो एक और तर्क पेश किया गया था, वो था भारतीय जेलों की बदहाल स्थिति. पहले इसी आधार पर कई हाई प्रोफाइल अपराधियों का प्रत्यर्पण नहीं हो पाया था. इसकी काट के लिए अस्थाना मुंबई की आर्थर रोड जेल की एक खास सेल का वीडियो बनाकर ले गये थे, जिसमें सभी चीजें दुरुस्त होने के सबूत थे और इसके जरिये माल्या की आशंका को निर्मूल ठहराया गया. सीबीआई के इस तर्क को लंदन की वेस्टमिंस्टर कोर्ट ने भी मंजूर किया और आखिरकार प्रत्यर्पण मामले की इस विशेष मजिस्ट्रेटी कोर्ट ने 10 दिसंबर 2018 को अपना फैसला सुनाया, तो अस्थाना पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों में कोई सबूत नहीं होने का हवाला देते हुए माल्या के प्रत्यर्पण को मंजूरी भी दे दी.
स्वाभाविक तौर पर माल्या अपने पास उपलब्ध सभी कानूनी विकल्पों का इस्तेमाल करने की तैयारी करके बैठा था. उसे ये लग भी रहा था कि कुछ महीने बाद मार्च-अप्रैल 2019 में होने वाले चुनावों के दौरान अगर मोदी सरकार चली गई, तो सीबीआई वापस अपनी पुरानी ढीली-ढाली भूमिका में आ सकती है और उसके प्रत्यर्पण को लेकर दबाव भी कम हो सकता है. इसीलिए उसने लंदन की हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. हाईकोर्ट ने पहले तो पांच अप्रैल 2019 के एक आदेश में उसकी अपील को खारिज कर दिया, बाद में उसकी रिन्यूअल पिटीशन पर 2 जुलाई 2019 के आदेश में पांच में से सिर्फ एक आधार पर मामले को सुनना शुरु किया. लेकिन आखिरकार यहां भी माल्या को अंत में विफलता ही हाथ लगी और मजिस्ट्रेट एम्मा आर्थन बॉट के फैसले पर ही हाईकोर्ट ऑफ जस्टिस की डिविजन बेंच ने 20 अप्रैल 2020 के अपने फैसले के तहत मुहर लगा दी, जिस डिविजन बेंच में लॉर्ड जस्टिस इर्विन और लेडी जस्टिस एलिजाबेथ लियान नामक दो जज थे. माल्या ने एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए हाईकोर्ट की मंजूरी के लिए दरवाजा खटखटाया, लेकिन इसके लिए कोई नया कानूनी आधार न होने की बात कर अदालत ने इसी 14 मई 2020 के अपने फैसले में माल्या की उम्मीदों को चकनाचूर कर दिया, उसके मंसूबों को नाकाम कर दिया.
जाहिर है, माल्या मामले में जो हाईकोर्ट का अंतिम फैसला आया है, वो उसी तैयारी का नतीजा है, जो लंदन की मेट्रोपोलिटन कोर्ट में मुकद्दमा लड़ने के दौरान अस्थाना की अगुआई में एसआईटी ने की थी. अगर निचली अदालत में सभी सबूतों को ढंग से नहीं रखा गया होता, तो आज ये दिन देखने को नहीं मिलता, जब माल्या के पास भारत आने से बचने के तमाम विकल्प खत्म हो चुके हैं और उसे भारतीय जेलों में अपनी करनी की सजा भुगतने का डर सता रहा है. उस मामले में सीबीआई को शिकायत मिलने के नौ साल बाद भी माल्या इस एजेंसी के शिकंजे में नहीं आ पाया था और जब आखिरकार वे सीबीआई के हत्थे चढ़ने जा रहा है तो उसका भविष्य अंधकार में दिखने लगा है.
सवाल ये उठता है कि आखिर सीबीआई ने उस अधिकारी के बारे में एक शब्द तक कहना उचित नहीं समझा, जिसकी मेहनत ने उस पूरे मामले को उस दिशा में मोड़ा, जिसकी वजह से अंत में सफलता मिली. उसी अधिकारी के कामकाज के कारण जो सफलता मिली, उस पर आज सीबीआई अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन राकेश अस्थाना का नाम तक लेने से परहेज कर रही है. दरअसल इसके लिए दिल्ली के आधिकारिक सर्किल में लगातार चलने वाली वही गिरोहबंदी जिम्मेदार है, जो पिछले पांच साल से लगातार सीबीआई को अपनी जांच की बेहतर क्वालिटी की जगह आंतरिक झगड़े और विवाद के कारण चर्चा में रखती आई है.
मोईन कुरैशी मामले की जांच करने वाले राकेश अस्थाना ने सतीशबाबू साना मामले में जब अपने तत्कालीन निदेशक आलोक वर्मा के खिलाफ ही पैसे लेने संबंधी बयान दर्ज कराया, तो घबराए आलोक वर्मा ने अपनी खाल बचाने के लिए उल्टे राकेश अस्थाना पर ही सतीश साना से पैसा लेने का मामला दर्ज करा दिया अपनी ही एजेंसी के अंदर. इससे जो झगड़े की शुरुआत हुई, उसकी अंतिम परिणति वर्मा और अस्थाना दोनों के ही जनवरी 2019 में सीबीआई से ट्रांसफर में हुई.
अगर अस्थाना के खिलाफ ये मामला आलोक वर्मा ने दर्ज नहीं करवाया होता, तो स्वाभाविक तौर पर अस्थाना सीबीआई के नये निदेशक की दौड़ में सबसे आगे होते, आखिर बतौर अधिकारी सीबीआई के लिहाज से उनका शानदार ट्रैक रिकॉर्ड था. राकेश अस्थाना ने सीबीआई में निचले स्तर पर एसपी से लेकर डीआईजी के तौर पर, तो वरिष्ठ स्तर पर एडिशनल डायरेक्टर से लेकर स्पेशल डायरेक्टर और बीच में दो महीने के लिए इंचार्ज डायरेक्टर के तौर पर भी सीबीआई की कमान संभाली थी. अस्थाना के हक में ये भी महत्वपूर्ण पक्ष था कि वो आलोक वर्मा की तरह उन अधिकारियों में भी नहीं थे, जो सीबीआई में सीधे डायरेक्टर के पद पर आसीन हुए थे, बिना पहले काम किये, इससे पहले आरके राघवन जैसे ही इक्का-दुक्का उदाहरण थे. ऐसे में रिटायरमेंट के बाद अपने को सुरक्षित रखने के लिए वर्मा ने अस्थाना का कैरियर चौपट करने की साजिश रची, भ्रष्टाचार का मामला दर्ज करा डाला, ताकि जब नये निदेशक की नियुक्ति के लिए चयन समिति की प्रक्रिया शुरु हो, तो अस्थाना का नाम विचार के लिए आए ही नहीं.
अस्थाना को भी अपने साथ हुई इस साजिश की खबर थी, इसलिए अपने खिलाफ मामला दर्ज होते ही उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था, हाईकोर्ट ने दस हफ्ते के अंदर इस मामले की जांच पूरी करने का आदेश भी सीबीआई को दे दिया था. लेकिन खुद सीबीआई ने अपने दूसरे सबसे वरिष्ठ अधिकारी रहे अधिकारी अस्थाना के मामले की जांच को तेजी से पूरा करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. दस हफ्ते की कौन कहे, उसके बाद भी छह महीने से ज्यादा का समय लिया गया. सीबीआई के अंदर की राजनीति कितनी गंदी रही, इसका एक और सबूत तब नजर आया जब डिप्टी एसपी श्रेणी का एक अधिकारी बस्सी डीजीपी स्तर के अधिकारी अस्थाना के खिलाफ अनाप शनाप आरोप लगाता रहा और उसके खिलाफ कोई कार्रवाई तक नहीं हुई. आखिर में झख मारकर सीबीआई को अदालत में अस्थाना के मामले में क्लोजर रिपोर्ट डालनी पड़ी, ये कहते हुए कि उनके खिलाफ जांच के लिए कोई सबूत हैं ही नहीं, यानी भ्रष्टाचार की बात बेबुनियाद निकली. इस दौरान ये जरूर हुआ कि अस्थाना डायरेक्टर की रेस से बाहर हो गये, और ऋषिकुमार शुक्ला सीबीआई डायरेक्टर की कुर्सी पर विराजमान हो गये, वो शुक्ला, जो वर्मा की तरह ही सीबीआई का मुखिया बनने से पहले कभी सीबीआई में काम नहीं किये थे.
जाहिर है, अस्थाना का भूत अब भी सीबीआई के मौजूदा निजाम को सताता है कि अगर कही अस्थाना इस एजेंसी में फिर आ गये तो क्या होगा. इसलिए अस्थाना को भला सीबीआई क्यों याद करना चाहे, वो भी तब जब वो उस केस को लेकर अपना ढिंढोरा पिटने में लगी है, जिस माल्या केस को सफल मुकाम तक पहुंचाने में अस्थाना ने बड़ी भूमिका निभाई है. दरअसल सीबीआई अभिशप्त है, खास तौर पर तब से, जब से वो सीजीओ कॉम्पलेक्स की नई बिल्डिंग में अपने नये एड्रेस के तौर पर शिफ्ट हुई है. इसकी नई बिल्डिंग का जिस पीएम ने उदघाटन किया, उस पीएम मनमोहन सिंह से खुद सीबीआई ने कोयला घोटाले में पूछताछ की. जब से नई बिल्डिंग में सीबीआई का दफ्तर आया है, उसके बाद से तमाम वो अधिकारी, जो इस एजेंसी के प्रमुख बने, वो किसी न किसी भ्रष्टाचार के मामले या फिर विवाद में फंसते आए हैं. एपी सिंह, रंजीत सिन्हा, अनिल सिन्हा, आलोक वर्मा या फिर बीच में थोड़े समय के लिए प्रभारी रहे राकेश अस्थाना या एम नागेश्वर राव. मौजूदा डायरेक्टर भी अपना कार्यकाल भली-भांति निकाल ले जाएं तो वो गंगा नहा सकते हैं.
पुराने लोग बताते हैं कि कभी सीबीआई बिल्डिंग वाली जमीन पर कब्रगाह हुआ करती थी और शायद यही वजह है कि उस जमीन पर खड़ी ईमारत में काम कर रही सीबीआई अपनी साख और अपने अधिकारियों की प्रतिष्ठा को खुद मिट्टी में मिलाने में लगी है, ऐसे में भला अस्थाना जैसे अधिकारी के माल्या मामले में पराक्रम को याद रखने की जहमत एजेंसी के अंदर कौन उठाए. अगर नीयत अच्छी होती, तो इस मामले में आगे ढंग से बढ़ने के लिए अस्थाना की मदद ली जा सकती थी. पहले भी कई ऐसे उदाहरण हैं, जब एजेंसी से बाहर जा चुके अधिकारी की मदद भी महत्वपूर्ण मामलों में ली जा चुकी है. अस्थाना के मामले में तो अब कोई नैतिक दुविधा भी नहीं, क्योंकि जिस एकमात्र मामले में उन पर आरोप लगे थे, उस मामले में खुद सीबीआई ही उन्हें क्लीन चिट दे चुकी है. लेकिन ऐसा होने नहीं जा रहा, जो एजेंसी उनकी मेहतन को अपनी प्रेस नोट में जगह देने को तैयार नहीं, वो भला उनकी मदद लेने के बारे में कहां सोचे. इसलिए जेम्स बॉन्ड के तौर पर सुमन कुमार की जय जयकार हो रही है सीबीआई में, शरलॉक होम्स जैसे चरित्र वाले अस्थाना होम्स की ट्रेडमार्क खामोशी में अपना समय निकाल रहे हैं, सीबीआई से बाहर, एनसीबी में, जहां हाथ डालने के लिए कोई बड़ा केस नहीं है. जब कोई बड़ी गुत्थी या बड़ा बवंडर पैदा हो, तो शायद फिर होम्स की याद आए, तब तक बॉन्ड के जलवे की कहानी इनके रचयिता की जुबानी सुनिए.
ये भी पढ़ें:
किसानों के लिए पांचों उंगलियां घी में और मुंह में शहद का मौका है ये!
चीन होशियार, आत्मनिर्भर भारत के नारे के साथ मोदी हैं चुनौती देने के लिए तैयार!