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आत्मनिर्भर भारत 2.0: यूं समझ सकते हैं विकास का मोदी मंत्र | Self-reliance 2 as Decoding the PM Narendra Modi Mantra of Development | nation – News in Hindi

विष्णु प्रकाश.

नई दिल्ली: 21वीं सदी भारत के नाम रहने वाली है. आत्मनिर्भर भारत के हमारे संकल्प को यह विजन और मजबूत करता है. हालांकि, आत्मनिर्भरता का अर्थ बदल गया है. भारत आत्म-केंद्रित व्यवस्थाओं की वकालत नहीं करता है. वह अपनी प्रगति को सारी दुनिया से जोड़कर देखता है. आत्मनिर्भर भारत बनाने के लिए साहसिक निर्णय लेकर कदम बढ़ाने की जरूरत है. हमें इसके लिए ग्लोबल सप्लाई चेन की प्रतिस्पर्धा से निपटना होगा. आर्थिक पैकेज (Economic Package) से सभी क्षेत्रों में हमारी कुशलता बढ़ेगी. हमें ग्लोबल सप्लाई चेन में अपनी भूमिका बढ़ानी होगी. जैसा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने 12 मई के अपने भाषण में कहा, आत्मनिर्भर भारत अलग-थलग नहीं, दुनिया का केंद्र भी होगा.

क्या यह भारतीय इकोनॉमी के सुधार की दिशा में उठाया गया बहुप्रतीक्षित कदम है?  क्या पीएम ने सामाजिक न्याय और भारत की उद्यमी प्रतिभा के बीच जादुई संतुलन साध लिया है. पहली नजर में आत्मनिर्भरता पर जोर देना और क्षेत्रीय या वैश्विक सप्लाई चेन की ताकत बनने की कोशिश आग और पानी की तरह है. लेकिन पीएम मोदी की बातों से ऐसा नहीं लगता है.

नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) इस बात के प्रति सचेत हैं कि ऐतिहासिक कारणों से, व्यापार के मामले में भारत की मानसिकता रक्षात्मक रही है. यहां तक ​​कि बड़े उद्योगपति भी कुछ अनोखा करने की बजाय संयमित तरीके से काम करते हैं. विशाल घरेलू मार्केट ने भी निर्यात को लेकर उनकी इच्छाशक्ति को कमजोर किया है.सरकार आधुनिक समय में प्रौद्योगिकी में हो रहे बदलाव और उसके लाभ से परिचति है. उसे पता है कि बड़े पैमाने पर इंटरप्राइजेज की स्थापना लाभदायक साबित हो सकती है. इसके लिए तकनीकी मदद लेनी होगी, जो अंतत: इकोनॉमी के लिए अच्छा कदम साबित होगा. हालांकि, विपक्षी दल और आलोचक सरकार के ऐसे कदमों को उद्योग-जगत समर्थक करार दे सकते हैं. इसीलिए, वित्त मंत्री यह बताने में देर नहीं करती हैं कि ऐसे कदम पहले से ही उठाए जा रहे हैं. सरकार ने जो 20 लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा की है, उसमें एमएसएमई (MSME) को प्राथमिकता दी है.

हमारी औद्योगिक क्रांति की देरी ने कहीं ना कहीं देश की अक्षमता को बढ़ाया, जिससे हम मैन्युफैक्चरिंग में पिछड़ते चले गए. महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में भारत ने श्रम प्रधान एमएसएमई (MSME) क्षेत्र के विकास पर सही ढंग से जोर दिया था. इस प्रक्रिया में लाइसेंस राज ने भी जन्म लिया. बड़े उद्योगों के प्रति संदेह भी पैदा हुआ. पिछले कुछ सालों में यह प्रक्रिया कमजोर जरूर हुई, लेकिन खत्म नहीं हुई है.

विशालकाय भारत संकट के समय अपने आपको सर्वश्रेष्ठ बनाता है. एक समय था जब भारत को अकाल का खूब सामना करना पड़ा और तब वह अमेरिका से गेहूं की आपूर्ति पर निर्भर था. इसके बाद डॉ. एमएस स्वामीनाथन की बदौलत भारत में 1960 के दशक में हरित क्रांति हुई और देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर हो गया. 1991 में, हमारे विदेशी मुद्रा का भंडार 2 अरब डॉलर रह गया था, जिससे हमें सोना गिरवी रखना पड़ा. तब भारत ने पीएम नरसिम्हा राव के नेतृत्व में आर्थिक सुधारों की पहल की. आज हमारे मुद्रा का भंडार 470 अरब डॉलर से अधिक है.

भारत ने पिछले छह साल में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में लंबी छलांग लगाई है. वह 142 से 63 नंबर तक पहुंच गया है. भारत में 2018-19 में 64.37 अरब डॉलर का रिकॉर्ड एफडीआई आया. हालांकि, इस दौरान भूमि, श्रम, लिक्विडिटी से लेकर तमाम अड़चनें भी रही हैं. बड़े बाजार के आकर्षण के बावजूद हकीकत यह है कि हमें अभी विदेशी निवेश के लिए 62 अन्य देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करनी है.

यह सच है कि जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका सहित कई देशों के निवेशक भारत में निवेश की संभावनाएं तलाश रहे हैं. हालांकि, वे इसके साथ ही दूसरे विकल्पों को भी देख रहे हैं. नोमुरा सिक्योरिटीज़ की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल-2018 और से अगस्त-2019 के बीच 56 कंपनियों ने चीन से बाहर विकल्प तलाशा और उनमें से सिर्फ 3 भारत आईं. इस मामले में वियतनाम (26), ताइवान (11) और थाईलैंड (8) भारत से काफी आगे रहे.

आखिर निवेशकों को चीन ने क्यों प्रभावित किया? यह अनुकूल माहौल की बात है. एफडीआई को आकर्षित करने के लिए चीनी प्रांत और शहर एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं. वे निवेशकों से सीधे जुड़ते हैं. उन्हें फास्ट ट्रैक क्लीयरेंस देते हैं. भारत में अभी ऐसा नहीं है. भारतीय नेता और नौकरशाह निवेशकों व कंपनियों को सुविधा देने की बजाय उनके नियामक के तौर पर ज्यादा काम करते नजर आते हैं.

एक बार जब आर्थिक सुधार पैकेज की जानकारी सामने आ जाएगी, तब पूरी तस्वीर साफ हो जाएगी. भारत सरकार के सतर्कतापूर्वक आगे बढ़ने की एक वजह यह भी है कि वह जनता की नब्ज पकड़ना चाहती है और जरूरी होने पर संशोधन के लिए भी तैयार रहना चाहती है. लेकिन यह तय है कि सरकार सुधारों की दिशा में ही आगे बढ़ेगी और इसमें थोड़ा ही छेड़छाड़ करेगी.

वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक माहौल को देखते हुए यह तय है कि उद्योगजगत और अर्थशास्त्रियों से लेकर मीडिया का एक वर्ग सुधारों का स्वागत करेगा तो विपक्षी दल और कुछ अन्य लोग इसका विरोध करेंगे. यह निराशाजनक है कि संकट के इस समय में भी हमारी राजनीति विभाजित है. अभी तो यही कहा जा रहा है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व, संकट को अवसर में बदलने और भारत को तेजी से आर्थिक विकास के रास्ते पर लाने के लिए दृढ़ संकल्पित है.

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