महामारियों का इतिहास – 3 | corona days History of pandemic part three | nation – News in Hindi
पार्ट-तीन: 219 ऐसे वायरस पहचाने जा चुके हैं, जो इंसानों को संक्रमित करते हैं. इनकी तलाश अभी पूरी नहीं हुई है. कोई नहीं जानता कि वास्तव में ऐसे कुल कितने वायरस हैं, जो मानव को संक्रमित कर सकते हैं. सबसे पहले वर्ष 1892 में दिमित्री इवानोव्स्की ने एक गैर-जीवाणु संक्रामक एजेंट टोबेको मोज़ियेक वायरस के बारे में बताया. वर्ष 1898 में डच वैज्ञानिक मार्टिनस डब्ल्यू बिजिर्नेक ने एक संक्रामक एजेंट की व्याख्या की थी. लेकिन 1901 में पहली बार “वायरस” की मौजूदगी के बारे में पता चला. इसकी खोज पीले बुखार (येलो फीवर) के कारण के रूप में हुई थी. के वर्ष 1898 में पशुओं में मुंहपका और खुरपका बीमारी के स्रोत के के बारे में पता चला था. वर्तमान में हर वर्ष 3 से 4 नए वायरसों की पहचान हो रही है. हमें यह भी समझना होगा कि मानव समुदाय में संक्रमण का सबसे अहम् और बड़ा स्रोत अन्य जीव हैं. ये जीवन किन्ही ख़ास परिस्थितियों में ही मानवों को संक्रमित करते हैं. सामान्य परिस्थितियों में ये निष्क्रिय या अप्रभावी की रहते हैं.
डेंगी
डेंगी वर्तमान में बहुत तेजगति से महामारी में तब्दील को रही बीमारी है. यह मच्छर के काटने से होने वाला वायरल संक्रमण है. इसके कारण बहुत जटिल स्थितियां उत्पन्न हो जाती हैं. पिछले 50 वर्षों में डेंगी का फैलाव 30 गुना बढ़ गया है. अब हर साल दुनिया के 100 देशों को प्रभावित करता है.डेंगी वायरस सबसे पहले 1950 के दशक में फिलिपीन्स और थाईलैंड में सादृश्य हुआ. फिर इसके बाद दुनिया के दुनिया के उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में इसका फैलाव हो गया. आज की स्थिति में दुनिया की 40 प्रतिशत जनसँख्या उन क्षेत्रों में रही है, जहाँ डेंगी का प्रभाव है. डेंगी का संक्रमण मच्छर के कारण होता है. और जैसे-जैसे धरती गर्म होगी और तापमान बढ़ता जाएगा, डेंगी का प्रभाव बढ़ता जाएगा. विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हर साल डेंगी 5 करोड़ से 10 करोड़ लोगों को बीमार करता है. इसके कारण 2.5 प्रतिशत संक्रमित लोगों के शरीर के भीतर बुखार के साथ खून का रिसाव होने लगता है, इन परिस्थितियों में उचित इलाज़ न मिलने पर लगभग 20 प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो सकती है. अन्य वायरसों की तुलना में डेंगी के कारण मृत्यु की दर कम होती है. अभी इसके टीके उपयोग में लाने की अनुमति दी जाने लगी है, किन्तु ये टीके उन्हीं को लगाए जा सकते हैं, जो डेंगी प्रभावित क्षेत्रों में रहते है. इसके अलावा दूसरा विकल्प यह आया है कि जिन्हें यह संक्रमण एक बार हो चुका हो, उनके लिए टीका ईजाद किया गया है.
छोटी चेचक/चिकनपाक्स/छोटी माता
छोटी चेचक वैरिसेला जोस्टर वायरस के कारण होने वाली बीमारी है. इस वायरस को मानव हर्पीज़ वायरस (एचएचवी3) भी कहा जाता है. इससे पीड़ित होने पर बुखार होता है, पीठ, सिर में दर्द होता है, गले में खराश होती है, शरीर पर लाल चकत्ते पड़ते हैं और शरीर पर तरल द्रव से भरे हुए छोटे फफोले पड़ जाते हैं. इस बीमारी में संक्रमण संक्रमित व्यक्ति की छींक-खांसी के माध्यम से फैलता है. हवा वायरस का मुख्य संवाहक बन जाती है. वर्ष 2013 में पूरी दुनिया में इसका बहुत फैलाव हुआ था, तब लगभग 14 करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए थे. लगभग 60 हज़ार लोगों में से एक व्यक्ति की मृत्यु होती है. इतिहास में लम्बे समय तक इसे चेचक के साथ जोड़ कर ही देखा जाता रहा है.
यदि कोई महिला गर्भावस्था के दौरान छोटी चेचक से संक्रमित होती है, तो इसका असर गर्भस्थ शिशु पर भी पड़ सकता है. मसलन उसके अंगूठे और उँगलियाँ अविकसित रह सकते हैं. दिमाग को बुरा असर पड़ सकता है, आँखों में समस्या आ सकती है और त्वचा समस्याएं हो सकती हैं. जब संक्रमण गंभीर हो जाता है, तब इससे अन्य जटिल समस्याएं पैदा हो सकती हैं. मसलन वैरिसेला जोस्टर वायरस-एन्सिफेलाइटिस या निमोनिया हो सकता है और तंत्रिका तंत्र पर बुरा असर पड़ सकता है. पलेरमो के जिओवन्नी फिलोप्पो (1510-1580) के हवाले से औषधियों के इतिहास की एक किताब में वेरिसेला यानी छोटी चेचक का पहला विवरण मिलता है. फिर वर्ष 1600 के आस-पास अँगरेज़ चिकित्सक रिचर्ड मोर्टन ने बताया था कि चिति माता/चिकन पाक्स चेचक का सौम्य स्वरुप है.
वर्ष 1767 में पहली बार अग्रेज चिकित्सक विलियम हेबरडेन ने स्पष्ट रूप से बताया कि चिकन पाक्स चेचक से भिन्न संक्रमण और बीमारी है. जब चिकित्सकों ने इस बीमारी के बारे में खोजें कीं, उसके पहले से ही इसे चिकन पाक्स कहा जाता रहा था. सेमुअल जानसन कहते हैं कि चूंकि यह गंभीर जानलेवा बीमारी नहीं है, इसलिए इसे सहज नाम दिया गया. यह भी माना जाता है कि इसके निशान/चकत्ते वैसे ही दीखते थे, जैसे बिना पंखों की मुर्गी के दिखते हैं, इसलिए भी यह नाम दिया गया हो सकता है. चूंकि छोटी माता के फफोले चने (चिक पीज़) सरीखे होते हैं, इसलिए भी यह नाम दिया गया हो सकता है.
निपाह वायरस
निपाह वायरस एक आरएनए वायरस है और इससे होने वाला संक्रमण हाल के वर्षों में सामने आया है. निपाह वायरस की गिरफ्त में आने वाले लोगों में मृत्यु दर 50 प्रतिशत से ज्यादा होती है. यह वायरस उड़ने वाले और फल खाने वाले चमगादड़ों में पाया जाता है. ऐसा माना जाता है कि इसने कई स्तनधारी जीवों, इंसानों को भी, इस वायरस से संक्रमित किया है. इसे जैविक आतंकवाद का स्रोत माना गया है. लेकिन यह समझना जरूरी है कि चमगादड़ों से यह वायरस इंसान तक कैसे पहुंचा? जिस तरह से जंगलों का विनाश हो रहा है या पारिस्थितिकी के साथ प्रयोग किये जा रहे हैं, उसके कारण ये वायरस अपने मूल स्थान से बाहर निकल रहे हैं. सितम्बर 1998 में मलेशिया प्रायद्वीप के मुख्य सूअर उत्पादन क्षेत्रों में सूअर फेब्रिल एन्सिफिलाइटिस से प्रभावित होने लगे और सूअर के बच्चे अज्ञात बीमारी से मरने लगे. यह स्थितियां फ़रवरी 1999 तक जारी रहीं. इसके बाद इस संक्रमण का दो अन्य स्थानों तक फैलाव हुआ. शुरू में इसे जापानीज़ एन्सिफिलाइटिस माना गया. हांलाकि यह जापानीज़ एन्सिफिलाइटिस नहीं था. इसके बाद सूअरों के संपर्क में रहने वाले लोग भी बीमार पड़ने लगे. तब आस्ट्रेलिया के पशु स्वास्थ्य व्यवस्था और मलेशिया के पशु स्वास्थ्य विभाग के वैज्ञानिक ने मानवों, सूअर, कुत्तों, बिलियन, घोड़ों, बकरियों, और चमगादड़ों में निपाह वायरस का संक्रमण होने का निष्कर्ष सामने रखा. संक्रमण को बढ़ने से रोकने के लिए मलेशिया में 10 लाख सूअरों को मारा गया और मई 1999 में इस संक्रमण रुका.
वर्ष 2001 की सर्दियों में बांग्लादेश में निपाह वायरस का प्रभाव दिखा. तब सवाल यह था कि बांग्लादेश मुख्य रूप से मुस्लिम बहुल देश है, और इसलिए यहाँ सूअरों को निपाह का स्रोत नहीं माना सकता है. अध्ययन से पता चला कि फल खाने वाली टेरोपस चमगादड़ इसका मुख्य स्रोत है. चमगादड़ द्वारा खाए गए या छुए गए फलों को बच्चों ने खाया होगा और इससे यह वायरस फैलना शुरू हुआ. इसके बाद वायरस से प्रभावित खजूर का उपयोग भी इसका एक कारण हो सकता है. इसके बाद यह भी पता चला कि चमगादड़ ऐसे क्षेत्रों तक भी आते हैं, जहाँ इंसानों के खाने का सामान और बर्तन रखे होते हैं. वहां उनकी लार और पेशाब से निपाह वायरस प्रसारित हो सकता है. इसके बाद वर्ष 2004 में व्यक्ति से व्यक्ति का संक्रमण भी देखा गया. निपाह वायरस अभी एक बड़ी चुनौती है.
रोटा वायरस
रोटावायरस मुख्य रूप से बच्चों को प्रभावित करता है. दुनिया के 5 साल तक के लगभग हर बच्चे को यह वायरस प्रभावित करता है, लेकिन बच्चों और व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता के कारण से यह तय होता है कि इसका प्रभाव कितना गहरा होगा. इसके कारण बच्चों में डायरिया होता है. रोटावायरस मल द्वार से बच्चों को संक्रमित करता है. यह छोटी आँतों को संक्रमित करता है जिससे गेस्ट्रोएंट्राईटिस (पेट का फ्लू) की समस्या होती है. इस वायरस की खोज वर्ष 1973 में रूथ बिशप ने की थी. इसके कारण गंभीर डायरिया होता है और अस्पताल में भर्ती होने वाले बच्चों के डायरिया का यही कारण होता है. यह वायरस दुनिया के किसी भी हिस्से में पाया जा सकता है. यह मुख्य रूप से ऐसे जल स्रोतों में पनपता है, जिनमें संक्रमित मानव मल मिलता है. हम जानते हैं कि जल स्रोतों में कई रास्तों में मानव मल आकर मिलता है. अतः जरूरी है कि हर स्थान पर मल निष्पादन की बेहतर व्यवस्थाएं हों.
वर्ष 2013 में डायरिया के कारण होने वाली बाल मृत्यु में 37 प्रतिशत का कारण रोटावायरस था. इससे संक्रमित व्यक्ति के एक ग्राम मल में 10 लाख करोड़ संक्रमण कण हो सकते हैं, जबकि केवल 100 कणों से ही कोई बच्चा इससे बीमार हो सकता है. रोटावायरस से बचाव के लिए अब इसकी वैक्सीन का उपयोग किया जाने लगा है.
हेपिटाटाइटिस
हेपिटाटाइटिस वायरसों के कारण लीवर में संक्रमण और सूजन होती है. यह स्थिति गंभीर होकर तन्तुमयता (फाइब्रोसिस) और लीवर कैंसर में तब्दील हो सकती है. हेपिटाटाइटिस वायरस हेपिटाटाइटिस का मुख्य कारण है, किन्तु नशीले पदार्थों का सेवन और शरीर के भीतर की स्थितियां भी इसका (हेपिटाटाइटिस) का कारण हो सकती हैं.
यह बीमारी मृत्यु का कारण भी बन जाती है. अभी पांच तरह के हेपिटाटाइटिस (ए, बी, सी, डी और ई) पहचाने गए हैं. हेपिटाटाइटिस ए और ई मुख्य रूप से दूषित खाने या पानी के कारण उत्पन्न होता है, जबकि अन्य तीन संक्रमण संक्रमित व्यक्ति के शरीर के आंत्र द्रव के संपर्क में आने के कारण होते हैं. यह एक महामारी ही है. हेपिटाटाइटिस बी और सी करोड़ों लोगों में गंभीर बीमारी पैदा कर रहा है.
यह माना जाता है कि हेपिटाटाइटिस-बी ताम्र युग से मानवों को संक्रमित करता रहा है. 4500 वर्ष पहले के मानवों में इस संक्रमण के प्रमाण मिले हैं. 16वीं सदी में यूरोप में हेपिटाटाइटिस बी होने के प्रमाण मिले हैं.
सार्स–कोव (अति तीव्र श्वसन सिंड्रोम)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक यह पहली बार दक्षिण चीन के गुआंगडोंग प्रांत में वर्ष 2002 में अवतरित हुआ. यह पहले चमगादड़ों में पैदा हुआ और फिर दूसरे निशाचर स्तनधारियों में इसका फैलाव हुआ. इसके बाद इसने मानवों को संक्रमित करना शुरू किया. अब तक यह 26 देशों में फ़ैल चुका है. इसके संक्रमण में भी बुखार, कंपकंपी, बदन दर्द होता है, इससे निमोनिया भी हो जाता है. गंभीर स्थिति में इसके कारण फेंफडों में सूजन आ जाती है और मवाद जमा होने लगता है.
मर्स – कोव (मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम)
जिस वायरस ने मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम को पैदा किया, वह सऊदी अरेबिया में वर्ष 2012 में और दक्षिण कोरिया में 2015 में सामने आया. यह भी सार्स-कोव परिवार का ही अंग है. संभावना व्यक्त की जा रही है कि यह वायरस भी चमगादड़ में पाया गया. इस वायरस ने मनुष्यों तक पहुँचने से पहले ऊंटों को बीमार किया. इसके कारण बुखार, सूखी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होती है. गंभीर स्थितियों में निमोनिया हो जाता है. इससे संक्रमित लोगों में मृत्यु की दर 30 से 40 प्रतिशत होती है.
सार्स–कोव2 (अति तीव्र श्वसन सिंड्रोम) – कोरोना वायरस
कोरोना वायरस सार्स समुदाय का ही अंग है. यह पहली बार दिसंबर 2019 में चीन के वुहान में पाया गया. यह माना गया कि इस वायरस का स्रोत चमगादड़ है. चमगादड़ से यह वायरस किसी अन्य पशु या जानवर में आया और फिर इसके बाद मनुष्यों में आया. अभी इसका प्रकोप जारी है. इससे निपटने के लिए बहुत बड़ी संख्या में लोगों को क्वारंटाइन किया गया है. इससे संक्रमित होने वाले लोगों में मृत्यु की औसत दर 2.35 प्रतिशत है, किन्तु कुछ देशों में यह दर 5 से 7 प्रतिशत तक भी है. अब तक के अनुभव बताते हैं कि इससे निपटने में प्रतिरोधक क्षमता की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. इसके कारण बुखार, सूखी खांसी और सांस लेने में तकलीफ होती है. गंभीर स्थितियों में निमोनिया हो जाता है.
वायरसों और बैक्टीरिया जनित बीमारियों के इतिहास को जानने से एक बात सिद्ध हो जाती है कि जब भी मानव समाज अपनी सीमाओं को लांघता है, तभी किसी न किसी किस्म का जैविकीय या अजैविकीय प्रकोप होता है. मुख्य रूप से कुदरत की व्यवस्था के साथ खिलवाड़ करने या उस पर नियंत्रण करने की कोशिशों ने सबसे ज्यादा महामारियों को जन्म दिया है. इसके साथ ही वैश्विक व्यापार की नीति ने भी महामारियों को जन्म दिया है. इसके साथ ही एक बड़ा कारण है जलवायु में परिवर्तन होना और मौसमों के चक्र में बड़ी तब्दीली आना. वास्तव में हम विषाणु या कीटाणु को मारने के रास्ते खोजते हैं. जबकि जरूरत यह समझने की है कि ये मानव शरीर में दाखिल क्यों और किन परिस्थितियों में होते हैं? वायरस और बैक्टीरिया अकारण मानव पर हमला नहीं करते हैं.
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