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OPINION: सवाल सिर्फ रेल टिकटों का नहीं है | lockdown-3-blog-on-migrant-loborers-special-train-for-bihar | – News in Hindi

पिछले दिनों देश के अलग-अलग कोनों में फंसे श्रमिकों को घर पहुंचाने के लिए रेलवे ने विशेष ट्रेनों का परिचालन शुरू किया है. इस योजना के तहत रोज तीन से चार प्रवासी स्पेशल रेलगाड़ियां बिहार भी आ रही हैं. मगर इनको लेकर इन दिनों अलग तरह का विवाद शुरू हो गया है. विवाद यह है कि मजबूरी में फंसे इन प्रवासी श्रमिकों (Migrant Lobour) से रेल किराया क्यों लिया जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की इस घोषणा के बाद कि इन श्रमिकों का किराया कांग्रेस की तरफ से वहन किया जाएगा, देश में पक्ष-विपक्ष के बीच राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप की बौछार शुरू हो गई है. हालांकि कुछ न्यूज क्लिपिंग में मजदूर खुद यह शिकायत करते नजर आ रहे हैं कि उनसे न सिर्फ पूरा किराया वसूला गया है, बल्कि कुछ अतिरिक्त शुल्क भी लिए गए हैं. एकाध वीडियो में तो मजदूरों ने यह भी कहा है कि उनके कई साथी महज किराया नहीं होने के कारण यात्रा नहीं कर पाए. स्टेशन से वापस लौट गए.

यह मसला पूरी तरह जेनुइन है और इसको लेकर सवाला उठाना भी जायज है. मगर प्रवासी मजदूरों का मसला सिर्फ इतना ही नहीं है कि उनसे किराया क्यों लिया जा रहा है. कोरोना संक्रमण (COVID-19) और लॉकडाउन के इस वक्त ने हमें बताया है कि ये प्रवासी मजदूर वस्तुतः किन परिस्थितियों में जीते हैं. रेल किराये की माफी असल में उनकी बहुत छोटी समस्या का समाधान भर है. अगर उन्हें मुफ्त में रेल से लाया जाता तो हमारी व्यवस्था का एक बेहतर और सकारात्मक चेहरा सामने आता, मगर लॉकडाउन (Lockdown) में फंसे करोड़ों प्रवासी मजदूरों का मसला इतने भर ने नहीं सुलझ जाता.

इस बात को इन आंकड़ों से समझ सकते हैं. सिर्फ बिहार सरकार के पास लॉकडाउन में फंसे 28 लाख के अधिक मजदूरों ने मदद के लिए मोबाइल एप पर आवेदन किया है. जाहिर सी बात है कि संकट में फंसे मजदूरों की संख्या इससे काफी अधिक है. इनमें से कई ऐसे होंगे जिनकी स्मार्टफोन तक पहुंच नहीं होगी, आवेदन करने लायक समुचित कागजात नहीं होंगे और भी कई दिक्कतें होंगी. जिस वजह से वे आवेदन नहीं कर पाए होंगे. इसके बावजूद अगर हम 28 लाख की संख्या को ही आधार मान लें तो भी मौजूदा व्यवस्था के तहत यह हमें मान कर चलना चाहिए कि सरकार इनमें से 5 फीसदी मजदूरों को भी उनके घर तक नहीं पहुंचा पाएगी.

वह इसलिए क्योंकि रोज तीन से चार स्पेशल ट्रेनें ही बिहार आ रही हैं और इन ट्रेनों पर सवार होकर रोज बमुश्किल 5000 मजदूर आ पाते हैं. अगर इस तीसरे लॉकडाउन अवधि की बात करें तो भी इनमें बमुश्किल 70 हजार मजदूर ही आ पाएंगे. अगर सभी 28 लाख मजदूरों को वापस इसी गति से लाया जाए तो हमारी सरकारों को इसमें 560 दिन लगेंगे. तब तक शायद इसकी कोई जरूरत भी नहीं हो. यानी सरकार देश के विभिन्न इलाकों में फंसे सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर तक पहुंचाने के बारे में बहुत गंभीरता से नहीं सोच रही. बहुत मुमकिन है कि पिछले दो लॉकडाउन के शुरुआत में मजदूरों के फूटे गुस्से को देखते हुए यह प्रयास उनके गुस्से को शांत करने के लिए किया गया हो. इसके बनिस्पत सरकार के पास खाड़ी देशों में फंसे लोगों को भारत लाने की सरकार की बहुत सुव्यवस्थित योजना है. ऐसी योजना है कि कोई भी व्यक्ति छूट न जाए.

इसके बावजूद मजदूरों की वापसी के इस सीमित प्रयास से कई लोग खुश नहीं हैं. कम से कम दो राज्य सरकारों द्वारा निर्माण कंपनियों के दबाव में इन स्पेशल ट्रेनों को कैंसिल कर दिए जाने की खबरें हैं. खुद केंद्र सरकार के गृह विभाग ने पत्र जारी कर यह साफ किया है कि ये स्पेशल ट्रेनें सिर्फ उन लोगों के लिए चलाई जा रही हैं जो किसी विशेष काम के सिलसिले में अपने गृह राज्य से हाल ही में बाहर गए थे और लॉकडाउन की वजह से वापस नहीं आ पाए. ये रेलगाड़ियां उन लोगों के लिए नहीं हैं जो रोजगार के सिलसिले में अपने घरों से बाहर रहते हैं.

इन उद्धरणों से यह साफ है कि सरकार सभी प्रवासी मजदूरों को उनके घर वापस पहुंचाने का न कोई दृढ़प्रतिज्ञ इरादा रखती है, न ही मौजूदा स्पेशल ट्रेनों के जरिये इन्हें वापस लाया जा सकता है. ऐसे में क्या सरकारों को आगामी दिनों के लिए इन प्रवासी मजदूरों के बारे में कोई सुस्पष्ट योजना नहीं बनाना चाहिए. ये लोग पहले से ही गरीब हैं और लॉकडाउन की वजह से इनके रोजगार भी छिन गए हैं. ये जिन किराये के मकानों में रहते हैं, उनके मकान मालिक इन्हें लगातार परेशान करते हैं और ताने देते हैं.

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प्रवासी मजदूरों के टिकट को लेकर खूब बयानबाजी हुई है.

इन मजदूरों के बीच काम करने वाली संस्था स्टैंडर्ड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क, स्वान लगातार इन मजदूरों से बातचीत कर अध्ययन कर रही है. 26 अप्रैल, 2020 को जब लॉकडाउन के 32 दिन पूरे हो गए तो इस नेटवर्क ने 16,863 ऐसे मजदूरों से बातचीत की. इस बातचीत के नतीजे उन्होंने रिपोर्ट के रूप में प्रकाशित किए हैं. इसके मुताबिक 32 दिन बीत जाने पर भी ऐसे 68 फीसदी मजदूरों को न सरकारी राशन मिला है, न वे किसी रिलीफ कैंप की सुविधा का लाभ उठा पाए हैं. बिहार समेत कई राज्य सरकारों ने दावा किया है कि वे एक हजार से लेकर पांच हजार रुपए तक की मदद इन मजदूरों के खाते में डाल रहे हैं, मगर इनमें से 97 फीसदी मजदूरों ने दावा किया है कि उन्हें कोई नकद सहायता नहीं मिली है. इनमें से सिर्फ 6 फीसदी मजदूरों का कहना है कि उन्हें उनके नियोक्ताओं की तरफ से पूरी मजदूरी मिली है, 78 फीसदी मजदूरों को कोई मजदूरी नहीं मिली है. इनमें से 41 फीसदी मजदूरों ने कहा है कि लॉकडाउन के बाद भी उन्हें यहीं रहना है, क्योंकि इस दौरान उन पर काफी कर्ज हो गया है और मकान मालिक का किराया भी चुकाना है. इसके लिए वे यहीं रहकर मजदूरी करेंगे.

ये आंकड़े बहुत सटीक हों, यह जरूरी नहीं. मगर यह इशारा तो जरूर करते हैं कि अभी भी इन प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को लेकर सरकारें बहुत गंभीर नहीं हैं. उनकी स्थिति काफी नाजुक है. अगर उन्हें इस लॉकडाउन में और आगे भी अपने घरों से दूर रहना है तो उनकी समस्याओं के बारे में गंभीरता से सोचना होगा. महज कुछ ट्रेन चलाने से उनकी समस्या नहीं सुलझने वाली.

पिछले दिनों कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने नोबेल विजेता मशहूर अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी के साथ बातचीत में इन मजदूरों का सवाल उठाया था. उस बातचीत में अभिजीत बनर्जी ने कुछ बेहतरीन सुझाव दिए थे. जैसे इन मजदूरों के लिए अस्थायी राशनकार्ड बनाना. आधार कार्ड को देखकर उन्हें मुफ्त राशन उपलब्ध कराना. उन्होंने यह भी कहा था कि अगर देश के सभी गरीबों के जन-धन खाते में इस वक्त सरकार कुछ रकम मसलन 10 हजार रुपए डाल देती है तो इससे उनके संकट का समाधान भी हो जाएगा और अगर इस पैसे से डूबने के कगार पर पहुंची हमारी अर्थव्यवस्था को भी ताकत मिलेगी.

मगर यह देखना होगा कि क्या हमारी सरकारें इस बारे में बहुत गंभीर हैं. उन्होंने कहा था कि इन मजदूरों की समस्या का समाधान तभी होगा जब केंद्र सरकार इस विषय में सक्रिय होती है. मुझे भी लगता है कि केंद्र सरकार और संबंधित राज्य सरकारों को इस विषय में बैठकर कोई ठोस रणनीति बनानी चाहिए, इसमें बड़े कॉरपोरेट की भी मदद लेनी चाहिए. अगर इस संकट की घड़ी में सरकारें इन मजदूरों को संकट से नहीं उबार पाईं तो आने वाले दिनों में देश के महानगरों को इन सस्ते मजदूरों का घोर संकट झेलना पड़ेगा. इस दौर में जो लोग हताश होकर अपने गांव लौटेंगे, वे वापस फिर शहरों की तरफ नहीं जाएंगे.

(डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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