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लॉकडाउन में कैसे मानसिक सेहत के मोर्चे पर जूझ रहा है भारत? | Know how India facing mental health conditions during lockdown | knowledge – News in Hindi

भारत में लॉकडाउन (Lockdown) का समय 17 मई तक के लिए बढ़ा दिया गया है. कोविड 19 (Covid 19) संक्रमण के चलते पिछले करीब सवा महीने से लॉकडाउन के हालात में उन लोगों की मुसीबत बेहद बढ़ गई है, जो पहले ही मानसिक रोगों (Mental Illness) के शिकार थे या लॉकडाउन के चलते जिन्हें मानसिक परेशानियां (Mental Health) हो रही हैं. कई तरह की चुनौतियों से जूझना इन हज़ारों लाखों लोगों की मजबूरी हो गई है.

बीते 30 जनवरी को जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने कोरोना वायरस (Corona Virus) संक्रमण को लोक स्वास्थ्य (Public Health) के लिए आपातकाल बताया था, तब मा​नसिक और मनोवैज्ञानिक (Psychological) स्वास्थ्य की ज़रूरतों पर भी ज़ोर दिया था. कहा गया था कि आइसोलेशन (Isolation) और लॉकडाउन के हालात से लोगों में चिंता, तनाव (Depression) और डर बढ़ेगा, जिससे स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं सामने आएंगी. और वाकई सामने आ रही हैं. जानिए कैसे भारत (India) इस स्थिति का सामना कर रहा है.

डब्ल्यूएचओ की गाइडलाइन
आपातकाल संबंधी ब्रीफिंग में संगठन ने कहा था कि व्यवस्थाओं को चाहिए होगा कि अपने लोगों की मदद करें क्योंकि अनिश्चितता भरे माहौल में न केवल ज़रूरी सेवाएं उपलब्ध करवाना बल्कि बेहतर काउंसिलिंग और पूरा सहयोग देना भी चुनौती होगी.corona virus update, covid 19 update, corona virus fears, lockdown update, covid 19 anxiety, कोरोना वायरस अपडेट, कोविड 19 अपडेट, कोरोना से तनाव, लॉकडाउन अपडेट, कोविड 19 डर

अस्पताल बंद, दवाओं का टोटा
बेंगलूरु स्थित मानसिक स्वास्थ्य ओर न्यूरो साइन्स के राष्ट्रीय इंस्टिट्यूट (NIMHANS) में मार्च के आखिर तक बाहरी मरीज़ों के विभाग को बंद कर दिया गया, जिसमें मनोचिकित्सा विभाग भी शामिल था. देशव्यापी लॉकडाउन के चलते ऐसे कदम देश के कई अस्पतालों में उठाए गए.

यानी मनोरोगियों के लिए अस्पताल की सुविधा तकरीबन नहीं है, कहीं इनके लिए कोई अस्पताल खुला भी है तो ट्रांसपोर्ट न होने के कारण पहुंचना मुश्किल है, खास तौर से ग्रामीण इलाकों के मरीज़ों के लिए. दूसरी बड़ी समस्या मनोरोगियों को दवा मिलना मुश्किल हो रहा है क्योंकि टेलिमेडिसिन पर महंगी दवाएं हैं और इनकी पहुंच ग्रामीण क्षेत्रों तक बिल्कुल नहीं है. वहीं, सामान्य रूप से भी मनोरोगों की दवाएं हर जगह आसानी से उपलब्ध नहीं हैं.

लॉकडाउन का नकारात्मक असर
सीज़ोफ्रेनिया रिसर्च फाउंडेशन यानी चेन्नई बेस्ड संस्था स्कार्फ के डॉ थरा के हवाले से न्यूज़ मिनट ने रिपोर्ट में लिखा है कि संस्था के पास उत्तर प्रदेश और बंगाल जैसे दूरदराज के इलाकों से दवाओं के लिए कॉल आ रहे हैं, जो कोरियर से किसी तरह दवाएं चाहते हैं क्योंकि वहां सब बंद है और दवाएं तक उपलब्ध नहीं. दूसरी बात डॉ थरा ने बताई कि ठीक हो चुके उनके कई मरीज़ लॉकडाउन के चलते दोबारा रोगी हो रहे हैं.

लॉकडाउन में किस कदर है मुश्किल?
स्वतंत्र मनोचिकित्सक मनीष गुप्ता का क्लीनिक दिल्ली मेट्रो से एक स्टेशन दूर है जबकि उनके मरीज़ दूर दूर से आते हैं. गुप्ता के हवाले से एक रिपोर्ट कहती है कि एक टीनेजर मरीज़ के लिए गुप्ता ने एक प्रेस्क्रिप्शन दिया लेकिन स्थानीय फार्मेसी में दवा नहीं थी. गुप्ता ने उन्हें बताया कि दिल्ली व उत्तर प्रदेश के बॉर्डर पर दवा मिलेगी.

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भारत में 11 करोड़ से ज़्यादा की आबादी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रस्त है

तब उस मरीज़ के पिता पर पुलिस ने भरोसा न कर उसे जाने नहीं दिया. किसी तरह रिश्ते के एक पुलिसकर्मी की मदद से पुलिस को मदद करने पर राज़ी किया गया. इसके बाद 15 वर्षीय मरीज़ के पिता ने 64 किलोमीटर पैदल जाकर वह दवा हासिल की. हज़ारों लाखों लोग इस तरह परेशान हो रहे हैं.

कितना गहरा है संकट?
भारतीय राष्ट्रीय मा​नसिक स्वास्थ्य सर्वे 2015-16 के हिसाब से 10.6 फीसदी भारतीय यानी 11 करोड़ से ज़्यादा की आबादी मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से ग्रस्त है और इसमें से भी 80 फीसदी मरीज़ ऐसे हैं जो चिकित्सकीय इलाज नहीं लेते हैं. इसका एक बड़ा कारण मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच में कमी है.

क्या सरकार खुद तोड़ रही है कानून?
केंद्र सरकार ने 2017 में मेंटल हेल्थकेयर एक्ट के तहत मानसिक स्वास्थ्य सेवा को भारतीयों का अधिकार कहकर इसकी गारंटी दी है. ऐसे मरीज़ों को कैद किए जाने का भी विरोध यह एक्ट करता है. लेकिन लॉकडाउन के मौजूदा हालात में इन मरीज़ों के लिए ठीक व्यवस्था न किए जाने के कारण अल जज़ीरा की रिपोर्ट कहती है कि सरकार खुद अपने ही कानून का उल्लंघन कर रही है.

क्यों लोक स्वास्थ्य में शामिल हो मानसिक सेहत?
भारत के ज़िलों या ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंच रखने वाले स्वास्थ्य केंद्रों या अस्पतालों में ऐसे भी कई हैं, जहां मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं नहीं हैं. लॉकडाउन में तो ग्रामीण या गैर शहरी क्षेत्रों के मरीज़ दरकिनार हो ही गए हैं, लेकिन इन्हें सामान्य परिस्थितियों में भी कम मुसीबतें नहीं होतीं.

72 फीसदी ग्रामीण आबादी के लिए सिर्फ 25 फीसदी अस्पतालों तक पहुंच है. यही नहीं, 1 लाख आबादी पर 1 से भी कम यानी 0.75 मनोचिकित्सक है. एक रिपोर्ट में विशेषज्ञों ने कहा है कि देश में पहले वर्तमान मानसिक रोगियों की ज़रूरतों के लिए तैयारी की ज़रूरत है और फिर आगे पेश आने वाली दिक्कतों के मद्देनज़र नागरिकों के लिए मनोवैज्ञानिक सहायता की पूरी व्यवस्था किए जाने की.

कोविड 19 ने बढ़ा दी हैं समस्याएं
कोरोना वायरस के संक्रमण के दौर में लोगों में कई तरह का डर पैदा हुआ है जिससे मनोवैज्ञानिक समस्याएं बढ़ी हैं. रोज़गार से लेकर छात्रों में अपने भविष्य को लेकर कई तरह की चिंताएं और तनाव देखे गए हैं. लॉकडाउन के चलते मानसिक समस्याओं को लेकर महाराष्ट्र सरकार ने दो हेल्पलाइन शुरू कीं. मुंबई में तीन हफ्तों में एक हेल्पलाइन पर 35 हज़ार से ज़्यादा कॉल आए.

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कश्मीर से चेन्नई और महाराष्ट्र से बंगाल तक मानसिक समस्याओं के आंकड़े गंभीर स्थिति बयान करते हैं.

दूसरी तरफ, एनवायटी की एक रिपोर्ट में कश्मीर के हालात पर चिंता ज़ाहिर की गई. कहा गया कि सालों से तनाव की स्थिति से जूझ रही इस राज्य की आबादी में मानसिक समस्याएं पहले से ही गहराई हुई हैं और अब लॉकडाउन के चलते स्थिति और मुश्किल हो गई है ​क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हैं.

समाधान की तरफ कुछ कदम
समस्याएं और व्यवस्था को बेहतर करने की चुनौतियों के बीच कुछ कदम उम्मीद जता रहे हैं. कोविड 19 की आपदा के चलते सामुदायिक कार्यक्रमों की शुरूआत के अच्छे अवसर बने हैं. देश के 625 में से 125 ज़िलों में ज़िला मेंटल हेल्थ कार्यक्रम शुरू हुए हैं. सोशल मीडिया के ज़रिये भी डॉक्टर और कुछ प्रशासन मरीज़ों तक पहुंचने की कोशिश कर रहे हैं. वेबिनारों के ज़रिए और वॉट्सएप परामर्श समूहों के ज़रिये भी मरीज़ों की मदद की कोशिश की जा रही है. ऐसे ही टेलिमेडिसिन यानी फोन से दवाएं मंगवाने की सुविधाएं भी हैं.

लेकिन, गैर शहरी और ग्रामीण इलाकों में मानसिक रोगियों से संबंधित समस्याएं भयानक हैं. रोगियों तक वॉलेंटियरों के ज़रिये दवा व परामर्श पहुंचाने वाले मानसिक स्वास्थ्य संबंधी एनजीओ के फाउंडर और क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक रत्नबोली रे के हवाले से अल जज़ीरा की रिपोर्ट कहती है कि ‘टेलिमेडिसिन एक खास वर्ग के लिए है. हमारे कई मरीज़ दिन में एक बार चावल नमक के साथ खा रहे हैं. उनके पास दवाओं के पैसे नहीं है. ऐसे में सरकारी दवाई का न मिल पाना व्यवस्था का एक बड़ा संकट है.’

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