देश दुनिया

लॉक डाउन से रेगिस्‍तान में फंसे पशुपालकों और पशुओं पर भारी मुसीबत – cattle and animals stranded in desert face problems in Lock down | – News in Hindi

कोरोना वायरस के प्रकोप और महामारी से बचने के लिए किए गए लॉकडाउन के इस दौर में देश भर के पशुपालकों और पशुओं के सामने भारी मुसीबत आ गई है. होटलों और ढाबों के बंद होने से इसके आसपास के जानवर भूख-प्‍यास से मर रहे हैं तो गली-मोहल्‍लों में भी गाय, कुत्‍ते, सांड और अन्‍य की हालत खराब है. बड़े पशुपालक भी बुरी स्थिति में हैं जिनको चारा, भूसी और पानी के लिए मशक्‍कत करनी पड़ रही है. लेकिन सबसे ज्‍यादा भयावह हालात गुजरात के कच्‍छ और राजस्‍थान के मारवाड़ इलाके के पशुपालकों और उनके लाखों पशुओं की है. इनके जीवन पर ही संकट है. इनको बचाने के लिए सरकार को तत्‍काल अपनी संवेदनशीलता मुखर करनी होगी.

मीडिया की खबरों में इन पशुपालक समुदायों और इनके पशुओं का जिक्र नहीं है. वास्‍तविकता है कि हालात दिनोंदिन बिगड़ रहे हैं और जल्‍दी कुछ न किया गया तो कई दुष्‍परिणाम सामने आने की आशंका है. दरअसल कई पुश्‍तों से इस इलाके में बसे इन लोगों ने खुद के लिए एक अलग प्रकार की जीवन शैली विकसित की है और अपने पशुओं को भी इसके अनुकूल बनाया है. ये लोग गर्मी के शुरू होते ही पंजाब, हरियाणा, मध्‍यप्रदेश और अन्‍य प्रदेशों की ओर कूच कर जाते हैं. इनके साथ पशु भी होते हैं, जिनसे समाज के पोषण और अन्‍य जरूरतों को पूरा किया जाता है. बारिश के आने के बाद ही ये लोग अपने-अपने इलाकों में लौट आते हैं.

कहीं थम न जाए ‘रेगिस्‍तान की धड़कन’
ऊंट, गधे, गाय, भैंस और भेड़-बकरियों को पालन करने वाले समुदायों को रेगिस्‍तान की धड़कन कहा जाता है. ये लोग ही इस इलाके को दुनिया के गर्म मरूस्‍थलों में सबसे अधिक मानव बसाहट वाला बनाते हैं. यहां ये लोग सदियों से पशुपालन करते आ रहे हैं. इनमें रायका, रैबारी बागरी और बावरिया समाज के लोग प्रमुख हैं. रायका और रैबारी लोग ऊंटों की ब्रीडिंग कराने लिए खास तौर पर पहचाने जाते हैं. देश के अलग-अलग स्‍थानों पर इनके अलग-अलग नाम हैं. राजस्‍थान के पाली, जालौर जिलों में रैबारी को दैवासी नाम दिया गया है तो उत्‍तरी राजस्‍थान यानी जयपुर-जोधपुर में इन्‍हें राईका कहते हैं. गुजरात और मध्‍य राजस्‍थान में कहीं-कहीं इन्‍हें देवासी, रबारी, देसाई, मालधारी और हीरावंशी भी बुलाया जाता है. अनुमान के मुताबिक इनकी जनसंख्‍या करीब 4 करोड़ होगी. कभी ये लोग राजा-रजवाड़े की शान हुआ करते थे, लेकिन आज इसी समुदाय के लोगों और इनके पशुओं के पास खाने-पीने के लिए कुछ नहीं है. कुछ पशुपालकों ने अपने पशुओं को भगवान के भरोसे छोड़ दिया है. रायका रैबारी समुदाय के लोगों का कहना है कि जब हम अपना ही पेट नहीं भर पा रहे हैं तो अपने पशुओं का पालन-पोषण कैसे करें?

परंपरागत व्‍यवसाय छूट जाने का डर
रायका, रैबारी बागरी और बावरिया समाज के पशुपालकों को अपना परंपरागत व्‍यवसाय छूट जाने का डर सता रहा है. ये लोग मार्च में बाड़मेर में लगने वाले चैत्री मेले में हिस्‍सा लेने के बाद अपने पशुओं को लेकर चारागाह और पानी की तलाश में निकल पड़ते हैं और इसी तरह गुजरात के कच्‍छ से भी रायका रैबारी समुदाय के लोगों का कारवां कूच करता है. ये साल में चार-पांच महीने अपने घरों से दूर रहते हुए दूसरे प्रदेशों की यात्रा करते रहते हैं, क्‍योंकि इस समय अवधि में इनके निवास स्‍थलों पर न तो चारा होता है और न पानी. परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल हो जाती हैं कि इंसान का रहना ही मुश्किल हो जाता है. अपने काफिले के लिए इन लोगों ने कुछ नियम बनाए हुए हैं, ताकि रास्‍ते में आने वाले गांवों में इनके कारण कोई समस्‍या न हो. ये गांवों के करीब से गुजरते हैं, लेकिन गांवों में प्रवेश नहीं करते. अगर रुकना भी पड़े तो एक-दो दिनों से ज्‍यादा किसी भी जगह नहीं रुकते. ये लोग अगस्‍त के आखिरी सप्‍ताह तक अपने निवास स्‍थलों के लिए लौट आते हैं. लेकिन इस साल सरकार ने मेले को बीच में ही बंद करा दिया था और इन समुदायों की यात्रा भी नहीं हुई. जिन लोगों ने अपनी यात्रा शुरू कर दी थी, उनको भी लॉक डाउन के कारण अपने टोलों-निवासों की ओर लौटना पड़ा. पशुपालकों के सामने चिंता है कि अब पशुओं को क्‍या खिलाएं और क्‍या पिलाएं? न तो सूखा चारा मिल रहा है और न ही पानी. एक अनुमान के मुताबिक राजस्‍थान के मारवाड़ इलाके में करीब 2 लाख ऊंट, 65 हजार गधे, 95 लाख भेड़-बकरियां आदि हैं. आज न तो कोई इनका खरीदार है और न ही कोई हमदर्द. इनमें से कुछ के मालिकों ने पहले तो इन्‍हें बेहद कम कीमतों पर बेचने की कोशिश की, लेकिन जब खरीदार ही नहीं मिला तो मिला तो उन्‍होंने पशुओं को खुले में ही छोड़ दिया है. समुदाय के लोगों का कहना है कि जब पशु ही नहीं होंगे तो हमारा परंपरागत व्‍यवसाय कैसे रह पाएगा?

न जंगल, न चारागाह और अब कोरोनापशुपालकों का कहना है कि पहले जंगल में पशु चराने पर रोक नहीं थी और चारागाह भी अतिक्रमण से मुक्‍त थे, लेकिन अब तो सरकार ने जंगल में घुसने पर ही प्रतिबंध लगा दिया है और चारागाह पर लोगों का कब्‍जा है. जैसे तैसे हम लोग गुजर बसर कर रहे थे कि न जाने कहां से कोरोना बीमारी आ गई और हमारे सामने अब तक की सबसे बड़ी समस्‍या आ गई है. जीने-मरने का प्रश्‍न हो गया है. गरीबों के लिए भेड़-बकरी पालना आसान होता था, लेकिन इन दिनों वह भी मुश्किल हो गया है. पशुपालक कहते हैं कि हम कहने को सौ-पचास जानवरों के मालिक हैं, लेकिन पांच-दस किलो आटा तक उधार लेना पड़ रहा है. ऐसे में सवाल है कि क्‍या सरकार इन जानवरों को चारा-पानी उपलब्‍ध करा पाएगी? यह सब व्‍यवस्‍था अगस्‍त तक के लिए चाहिए जब तक रेगिस्‍तान में कुछ चारा-पानी की प्राकृतिक व्‍यवस्‍था नहीं हो जाती.

घुमंतु और घुमक्‍कड़ चरवाहों की भूमिका का महत्‍व ऐसे समझें
विविधता भरे भारत देश में एक ऐसा भी समुदाय है जो घुमंतु है और साल के कुछ महीने अलग-अलग स्‍थानों पर रहते हुए यात्रा करते हैं. ऐसे भी लोग हैं जो अपने पशुओं को लेकर लगातार स्‍थान बदलते रहते हैं. अपने साथ सैकड़ों की तादाद में पशुओं को लिए ये घुमक्‍कड़ चरवाहे एक प्रकार से भूमि प्रबंधन और पारिस्थितिकीय संतुलन में अपनी जरूरी भूमिका निभाते हैं. जिस इलाके से ये गुजरते हैं, वहां पशुओं के मल से भूमि की उर्वरता बढ़ती है और जल भी प्रदूषण से बच जाता है. जैव विविधता के लिए भी पशुओं का होना जरूरी है. फसल कटने के बाद खेतों में बचा अनाज, बालियां, भूसा, फल-पत्‍ते, अनावश्‍यक खरपतवार, छोटे-छोटे पौधे, लताएं आदि को प्राकृतिक रूप से पशु ही खाकर नए चक्र को जन्‍म दे पाते हैं. इस कारण से कई किसान इन घुमंतु पशुपालकों को अपने खेतों में ठहराते हैं और बदले में अनाज और धन भी देते हैं. किसानों और पशुपालकों की यह आपसी साझेदारी सदियों से चली आ रही है. लॉक डाउन के कारण यह समुदाय गहरी पीड़ा में अपने अस्‍तित्‍व की लड़ाई लड़ रहा है.

इसे भी पढ़ें :-



Source link

Related Articles

Back to top button