आज के ही दिन कांग्रेस से अलग हो गए सुभाष के रास्ते, कौन से नेता थे उनके खिलाफ। 29 april then subhash chandra bose parted his ways from congress establish new party | knowledge – News in Hindi
कई किताबों में इसका जिक्र है. खासकर दो किताबों में इसका वर्णन विस्तार से हुआ है. ये किताबें हैं रुद्रांशु मुखर्जी की “नेहरू एंड पटेल पैरलल लाइव्स” और लियोनार्ड गॉर्डन की “ब्रदर्स अगेंस्ट द राज”. ये दोनों किताबें कहती हैं कि सुभाष चंद्र बोस 1938 में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. इसके बाद अगले साल भी अध्यक्ष बनना चाहते थे. इससे पहले ये काम जवाहर लाल नेहरू कर चुके थे. वो 1936 और 1937 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे.
क्या लिखा था एमिलि शेंकल को पत्र
सुभाष काफी लोकप्रिय थे. उनकी लोकप्रियता कांग्रेस में ही कुछ नेताओं को खटकती थी. कम से कम सुभाष को तो ये बात महसूस हो रही थी. उन्होंने अपनी पत्नी एमिलि शेंकल को पत्र लिखा (नेताजी संपूर्ण वांग्मय खंड 7, 04 अप्रैल 1939), “ये संदेहजनक है कि अगर मैं अगले साल फिर से पार्टी का अध्यक्ष बन पाऊं. कुछ गांधीजी पर दवाब डाल रहे हैं कि इस बार कोई मुसलमान अध्यक्ष बनना चाहिए, यही गांधीजी भी चाहते हैं- किंतु मेरी अभी तक उनसे कोई बात नहीं हुई है.”कांग्रेस के किस नेता को अपने खिलाफ मानने लगे थे
सुभाष को इसके पीछे कांग्रेस के कुछ दिग्गज नेताओं की ईर्ष्या ही नहीं समझ में आ रही थी, जो उनकी उम्मीदवारी की राह में अड़चन बन सकती थी बल्कि एक और बड़ा कारण और भी था, कांग्रेस का एक बड़ा नेता उनसे नाराज था, वो थे सरदार वल्लभ भाई पटेल.
सुभाष और पटेल के रिश्ते तब से खराब हो गए थे जब से पटेल के भाई विट्ठल भाई पटेल ने मरने से पहले अपनी वसीयत में प्रापर्टी का एक हिस्सा सुभाष के नाम कर दिया था ताकि वो इसे पार्टी के प्रचार-प्रसार में लगा सकें. ये मामला बंबई हाईकोर्ट तक पहुंचा, जिसमें सरदार पटेल के खिलाफ सुभाष की हार हुई.
पटेल ने प्रसाद को क्या पत्र लिखा
अब सवाल यही था कि अगर सुभाष 1939 में अध्यक्ष के तौर पर एक साल का कार्यकाल और चाह रहे थे तो इसे लेकर पटेल का क्या रुख था. पटेल ने 1938 में ही सुभाष के अध्यक्ष बनने के बाद राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखा, जो तब बीमार थे. पत्र में लिखा, “जवाहर कम से कम चार महीने के लिए विदेश चले गए. आप भी छह महीने से नहीं हैं और हमें अब एक ऐसे अध्यक्ष के साथ निभाना है, जो अपने काम के बारे में जानता ही नहीं.”
सुभाष चंद्र बोस को लगता था कि कांग्रेस के जो सीनियर नेता उनके विरोध में हैं, उसमें सबसे आगे हैं सरदार पटेल
सुभाष की ऊर्जा की तारीफ हुई थी लेकिन ..
दरअसल सुभाष अध्यक्ष बनने के बाद विदेश के दौरे कर रहे थे ताकि कई देशों में कांग्रेस और भारत की आजादी की आवाज को मजबूत बनाया जाए. साथ ही वहां से नैतिक समर्थन भी हासिल किया जाए. ऐसे में निश्चित तौर पर उनके पास कांग्रेस वर्किंग कमेटी से बात करने का ज्यादा समय नहीं था.
कांग्रेस में उनकी अपार ऊर्जा को लेकर तारीफ तो जरूर हुई लेकिन ये कहा जाने लगा कि उनके अध्यक्ष के कार्यकाल में कांग्रेस ने कोई गतिविधि नहीं चलाई वो मूक अध्यक्ष ज्यादा बन गए. वो शायद ही कांग्रेस की किसी वर्किंग कमेटी की मीटिंग में कुछ बोले हों या कोई संबोधन दिया हो.
गांधीजी ने पट्टाभि को उम्मीदवार के खिलाफ खड़ा किया
1939 में जब त्रिपुरी के कांग्रेस अधिवेशन में नए अध्यक्ष का चुनाव होना था तब महात्मा गांधी की पहली पसंद इस पद के अबुल कलाम आजाद माने जा रहे थे. लेकिन अबुल कलाम खुद सुभाष के खिलाफ नहीं लड़ना चाहते थे. दोनों ही कलकत्ता से आते थे, जहां सुभाष की लोकप्रियता ना केवल बहुत ज्यादा थी बल्कि दिनोंदिन बढ़ती जा रही थी. तब गांधी ने पट्टाभि सीतरमैया को उम्मीदवार के तौर पर खड़ा किया.
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने गांधी जी द्वारा अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए खड़े किए गए उनके उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया को 200 वोटों से हराया
पटेल ने सुभाष से बैठने को कहा लेकिन वो नहीं माने
रुद्रांशु मुखर्जी की किताब नेहरू एंड बोस-पेरलल लाइव्स कहती है, सीताराम इच्छा नहीं होते भी दावेदार बन गए. उनका कहना था कि उनसे इसके बारे में पूछा तक नहीं गया कि क्या वो दावेदार बनना चाहते हैं. सुभाष के रुख से कांग्रेस में कलह बढ़ने लगा, क्योंकि वो अपनी दावेदारी पर अडिग थे. पटेल ने सुभाष से कहा कि बेहतर हो कि वो बैठ जाएं और पट्टाभि का अध्यक्ष बनने का रास्ता साफ करें.
पट्टाभि 200 वोटों से हारे
कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव इसी माहौल में 29 जनवरी 1939 में हुए. सुभाष को 1580 वोट मिले और सीता रमैया को 1377 वोट. गांधीजी और पटेल पूरा जोर लगाने के बाद भी पट्टाभि को जीत नहीं दिला सके.
गांधीजी ने सार्वजनिक तौर पर इसे अपनी हार माना. इसी समय गांधीजी कांग्रेस वर्किंग कमेटी से अलग हो गए. इसके बाद पटेल और अन्य सदस्यों ने भी कार्यसमिति से इस्तीफा दे दिया. नेहरू ने इस्तीफा नहीं दिया. सुभाष ने गांधीजी से मिलकर टकराव टालने का प्रयास किया. लेकिन हालात लगातार बिगड़ते गए. सुभाष और गांधी के बीच समझौते जैसे हालात खत्म हो गए.
सुभाष चंद्र बोस ने 29 अप्रैल 1939 को कांग्रेस के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के अंदर ही फारवर्ड ब्लॉक के नाम से नई पार्टी गठित की
सुभाष ने त्यागपत्र दिया और बनाई नई पार्टी
ये भी कहा जा सकता है कि इस दौरान कांग्रेस दो टुकड़ों में बंट गई. अप्रैल 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति की कलकत्ता बैठक में सुभाष ने उन्होंने त्यागपत्र दे दिया. उनकी जगह तुरंत राजेंद्र प्रसाद ने ले ली. बोस ने इसके बाद कांग्रेस के अंदर ही अपनी वामपंथी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक बनाई. हालांकि इसका बहुत विरोध भी हुआ.
फिर सुभाष के खिलाफ उठाया ये कदम भी
भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद की शोध परक पत्रिका इतिहास में जेपी मिश्रा ने अपने लेख कांग्रेस में दलीय प्रभुत्व-सुभाष बोस की चुनौतियां और उनका संघक्ष में लिखा, बोस के फारवर्ड ब्लाक बनाने के बाद कांग्रेस हाईकमान राजनीतिक तौर पर बोस के प्रभाव को पूरी तरह खत्म करने का मन बना चुका था. हालांकि सुभाष अभी बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष थे लेकिन जुलाई 1939 में उस पद से भी हटाकर तीन बरस के लिए किसी अन्य पद के लिए अयोग्य घोषित कर दिया.
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