Covid-19: भरोसे की कमी और संक्रमण के डर के बीच क्या कानून खत्म कर पाएगा डॉक्टरों पर हमले, | nation – News in Hindi
नई दिल्ली. कोई डॉक्टर कितना भी ईमानदार या सचेत क्यों ना हो, वह यह दावा नहीं कर सकता कि उस पर किस दिन या किस वक्त हमला नहीं होगा या ब्लैकमेल नहीं किया जाएगा या उसे नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा. यह बात 129 साल पहले जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में लिखी गई थी और आज भी तब सही साबित हो रही है, जब भारत वैश्विक महामारी कोविड-19 (Covid-19) से लड़ रहा है.
भारत में कोरोना वायरस (Coronavirus) के चलते जब से लॉकडाउन (Lockdown) किया गया है, तभी से डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ लोगों के निशाने पर है. उन्हें मकान मालिक घर से निकाल रहे हैं. पड़ोसी बदतमीजी कर रहे हैं. जब वे कोविड-19 के टेस्ट के लिए गए तो उन पर पत्थरबाजी हुई. पुलिसवालों ने भी ड्यूटी के लिए जा रहे डॉक्टरों से मारपीट की. इन सबके बाद केंद्र सरकार ने डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ के लिए पिछले सप्ताह एक अध्यादेश लाया. इसके तहत स्वास्थ्य सेवा से जुड़े लोगों से मारपीट करना गैरजमानती अपराध होगा. हालांकि, इस समस्या की जड़ें हमारे समाज में गहरी हैं.
भोपाल में 9 अप्रैल को पेट्रोलिंग कर रही पुलिस की टीम ने डयूटी से लौट रहे एम्स के दो डॉक्टरों युवराज सिंह और ऋतुपर्णा जना को बुरी तरह पीटा. युवराज के हाथ में फ्रैक्चर हो गया और ऋतुपर्णा के पैर में चोट आई. चेन्नई में तो डॉक्टरों पर हमले की इंतहा देखने को मिली. यहां एक डॉक्टर की कोरोना वायरस से संक्रमण के बाद मौत हो गई. जब शव अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा था तो स्थानीय लोगों ने ऐसा करने से रोक दिया और पत्थरबाजी की. इसके बाद शव को किसी तरह गड्ढा खोदकर दफनाया गया.इन सब घटनाओं के बाद ही सरकार को एपिडमिक डिसीज एक्ट में अध्यादेश लाकर संशोधन करना पड़ा. अब मेडिकल स्टाफ से मारपीट गैरजमानती वारंट होगा. ऐसे मामलों की 30 दिन के भीतर जांच होगी. गंभीर मामलों में दोषी को सात साल कैद और 5 लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है. यह अध्यादेश अपराध रोकने का एक तरीका हो सकता है, लेकिन यह तय है कि ऐसे मामलों की जड़ें गहरी हैं.
स्वास्थ्य सेवाओं में अविश्वास
भारतीय समाज में डॉक्टरों की बड़ी इज्जत है. माना जाता है कि उनके खिलाफ हिंसा शायद ही होती हो. लेकिन इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की स्टडी कुछ और ही कहती है. इसके मुताबकि 75% डॉक्टरों को वर्कप्लेस में हिंसा का शिकार होना पड़ा है. भारत में लोग तकरीबन हर जगह स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर अविश्वास जताते रहे हैं.
ईवाय और फेडरेशन ऑफ इंडियन चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री ने इस बारे में एक सर्वे किया. इसके मुताबिक के मुताबिक 2019 में 60% मरीजों ने कहा कि माना कि इंडियन हेल्थकेयर 2.0 में अस्पतालों की सर्विस अच्छी नहीं है. 2016 में ऐसे ही सर्वे में 37% लोगों ने यही बात की थी. साल 2018 में तो 92% लोगों ने कहा क उन्हें भारत की स्वास्थ्य सेवाओं पर यकीन नहीं करते. एक सर्वे के मुताबिक भारत में फॉर्मा एंड एंश्योरेंस कंपनी के बाद अस्पताल सबसे ज्यादा अविश्वनीय हैं. हालांकि, ये उदाहरण डॉक्टरों पर हमले को उचित साबित करने के लिए नहीं है, लेकिन इनसे हमलों की मनोवैज्ञानिक वजह जरूर समझी जा सकती है.
इंदौर में डॉक्टरों पर हमले के एक सप्ताह बाद एक पत्रकार उस इलाके में गया. उसने बताया कि लोग डरे हुए थे. उन्हें लग रहा था कि डॉक्टर टेस्ट के बहाने सबको क्वारंटाइन के लिए कहेंगे. उन्हें आइसोलेशन सेंटर भेज दिया जाएगा. इंदौर के ही एक नागरिक ने बताया कि सोशल मीडिया में चल रहे फेक वीडियो ने भी हालात बिगाड़े. वीडियो में बताया जा रहा था कि स्वस्थ मुस्लिमों को वायरस के इंजेक्शन दिए जाएंगे.
मेनस्ट्रीम मीडिया ने भी हालात बिगाड़े हैं. नेशनल प्रेसिडेंट ऑफ इंडियान एकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के दिगंत शास्त्री ने अपनी रिसर्च पेपर में बताया है कि मीडिया चीजों को भड़काऊ अंदाज में दिखाता है. अस्पतालों की हालत भी स्थिति बिगाड़ती है. आगरा में पिछले महीने एक महिला ने कोविड-19 पॉजिटिव पाए गए पित को भी सरकारी अस्पताल में आइसोलेट करने का विरोध किया. उसका कहना था कि यह अस्पताल बहुत गंदा है. मैंगलोर में कोरोना वायरस संक्रमण का एक संदिग्ध सरकारी अस्पताल से भाग गया. उसने कहा कि वह निजी अस्पताल में इलाज कराएगा. इन सब कारणों से लोग सरकारी अस्पतालों से डरे रहते हैं. हालांकि, इस सबसे हमले को उचित नहीं ठहराया जा सकता.
व्यवहार में आने वाला बदलाव
महामारी आमतौर पर एक पीढ़ी के लिए अभूतपूर्व होती है. सबकुछ सामान्य होने के बाद वे अचानक मरने वालों की बड़ी संख्या देखते हैं. यह सब दिमाग में बस जाता है. वैसे भी इंसान सामाजिक प्राणी है. जब वह आइसोलेट करने की बात सुनता है तो कुछ अजीब सा लगता है. और जब अचानक लॉकडाउन लागू हुआ और आइसोलेशन की खबरें आने लगीं तो इसका दिमाग पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा. यूनिवर्सिटी ऑफ कोलंबिया के मार्क शेलर कहते हैं, इंसान में कुछ आदतें अचेतन में विकसित हो जाती हैं, जिसे हम बिहैवियरल इम्यून सिस्टम कहते हैं. किसी भी महामारी पर यह हमें बदलते व्यवहार के प्रति सचेत करता है.
बिहैवियरल इम्यून सिस्टम यानी, हम कुछ भी संदिग्ध दिखने पर उसका प्रतिरोध करते हैं. एक उदाहरण गुजरात के डॉक्टर संजीबनी पणिग्रही के साथ हुई घटना है. पड़ोसियों ने उनसे सिर्फ इसलिए बदतमीजी की क्योंकि वे कोविड-19 के मरीजों का इलाज कर रहे थे. जब डॉक्टर ने पड़ोसियों को नजरअंदाज किया तो लोगों ने उन्हें अपने ही घर में घुसने से रोक दिया. मैक्गिल यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के मुताबकि जब लोगों को कुछ लगता है कि वे संक्रमण से नहीं बच पाएंगे तब उनके भीतर डर बैठ जाता है. हमने देखा कि कई शहरों में डॉक्टरों को घर से बाहर निकाल दिया गया. वे अपने सामान के साथ पर रोड पर दिखे. मकानमालिकों ने ऐसे किराएदारों से घर खाली करा लिया, जो स्वास्थ्य सेवाओं में काम कर रहे थे.
क्या कानून रोक सकता है ऐसी घटनाएं
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने द एपिडमिक डिसीज (एमेंडमेंट) ऑर्डिनेंस 2020 पर हस्ताक्षर कर दिए हैं, जो कोविड-19 से लड़ रहे मेडिकल स्टाफ की सुरक्षा के लिए लाया गया है. इसमें कहा गया है कि ना सिर्फ मेडिकल स्टाफ पर हमला, बल्कि उसके घर या किसी और संपत्ति को नुकसान पहुंचाना संज्ञेय और गैरजमानती अपराध होगा. लेकिन सवाल यह है कि क्या सिर्फ कानून बनाकर ऐसी घटनाएं रोकी जा सकती हैं.
ज्यादातर ऐसे कानून, जो समाज में गहरी पैठ जमाए बुराइयों को खत्म करने के लिए बनाए जाते हैं, वे ज्यादा असरकारक साबित नहीं हुए हैं. जैसे कि अमेरिका में नस्लभेद खत्म करने के लिए कई कानून हैं, लेकिन यह अब भी पूरी तरह खत्म नहीं हो सका है. सजा के डर से लोग कानून का पालन करते दिखते तो हैं, लेकिन मन में बसा गहरा विरोध खत्म नहीं होता. इसके लिए मौजूदा इकॉनामिक और हेल्थकेयर सिस्टम में बदलाव की जरूरत होती है. हमारे देश में स्वास्थ्य पर बजट का सिर्फ दो फीसदी खर्च होता है. इसे बढ़ाने की जरूरत है. हेल्थ सिस्टम में सुधार, डॉक्टरों की संख्या बढ़ाना और मरीजों से लगातार बातचीत कर उनका भरोसा लौटाया जा सकता है.
हालांकि, यह मान लेना भी गलत होगा कि कानून सामाजिक बदलाव नहीं ला सकते. पहले स्मोकिंग को रोकने के लिए तमाम जागरूकता और चेतावनी जारी किए गए. ज्यादा असर नहीं पड़ा. फिर सार्वजनिक स्थान पर स्मोकिंग को बैन कर दिया गया. इसका असर हुआ और पब्लिक प्लेस में स्मोकिंग कम हो गई. यह कहना ज्यादा सही होगा कि कानून तो सिर्फ एंटीडॉट है, पर समस्या को खत्म करने के लिए वैक्सीन की जरूरत है.
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