कोरोना वायरस: जादुई उपाय नहीं लॉकडाउन, संक्रमण का दूसरा चक्र है वास्तविक खतरा | Corona virus lockdown is not a magic trick second cycle of infection is real danger | blog – News in Hindi

10 अप्रैल तक भारत में कोविड के मात्र 6 पॉज़िटिव मामले थे और प्रति 10 लाख की आबादी पर मौत के 0.2 मामले हुए थे; अगर इसकी तुलना अमेरिका और स्पेन से की जाए तो यह संख्या 1520 और 57 एवं 3385 और 344 थी. पर इसका मतलब यह नहीं है कि लड़ाई ख़त्म हो चुकी है. यह वायरस बहुत ही ज़्यादा संक्रामक है और जब तक इसका टीका उपलब्ध नहीं होता, और जब तक सामूहिक इम्यूनिटी की स्थिति नहीं प्राप्त कर ली जाती, जो कि अभी 12 से 18 महीना दूर है, हमें शारीरिक दूरी बनाए रखने, मास्क पहनने अलग-अलग स्तर के लॉकडाउन को अपने जीवन का आम हिस्सा बनाना होगा.
संक्रमण के दूसरे चक्र का खतरा वास्तविक
संक्रमण के बढ़ने और अपनी आर्थिक गतिविधियों को दोबारा धीरे-धीरे शुरू करने पर संक्रमण के दूसरे चक्र के शुरू होने का ख़तरा वास्तविक है और इसको कमतर नहीं आंकना चाहिए. हमें 1918 में स्पैनिश फ़्लू महामारी के कारण भारत में मरनेवाले लोगों की संख्या को नहीं भूलना चाहिए. एक अनुमान के अनुसार, उस समय 1.5 करोड़ लोगों की मौत हो गई थी – मार्च और अप्रैल में कम लोग मरे लेकिन आनेवाले जाड़े के महीनों में भारी संख्या में लोगों की मौत हो गई.जादुई उपाय नहीं है लॉकडाउन
लॉकडाउन, सामाजिक दूरी और अन्य प्रतिबंधात्मक उपाय कोई जादुई उपाय नहीं हैं. ये वायरस को समाप्त नहीं कर सकते; ये सिर्फ़ संक्रमण के फैलने की गति को धीमा कर देते हैं. लेकिन यह बात भी है कि इन्हें लंबे समय तक जारी नहीं रखा जा सकता. इनकी वजह से भारी आर्थिक और मानवीय क्षति उठानी पड़ती है. लॉकडाउन के कारण अपने रोज़गार की जगह से हज़ारों किलोमीटर दूर अपने घरों की ओर अपने बच्चों के साथ कूच करने के क्रम में प्रवासी श्रमिकों की दर्दनाक मौतों की हृदयविदारक खबरें इसी आर्थिक क़ीमत की एक बानगी है जो लॉकडाउन के कारण हमारी फ़र्मों, वित्तीय व्यवस्थाओं और सबसे ज़्यादा अनौपचारिक क्षेत्र में काम करनेवाले श्रमिकों पर पड़े प्रभावों का प्रतिफल है.
श्रमिकों का यह ऐसा वर्ग है जिनको सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था का मज़बूत संरक्षण नहीं मिला हुआ है. एक मोटे अनुमान के अनुसार, अर्थव्यवस्था की बंदी से हर दिन राष्ट्रीय उत्पादन को ₹50,000 करोड़ का घाटा हो रहा है. राजस्व की कमी के कारण कंपनियों के निवेश और परिचालन में कमी आना, इसकी वजह से बेरोजगारी का बढ़ना, भारी पैमाने पर ऋणों की अदायगी नहीं हो पाना, और फिर इस वजह से बड़े पैमाने पर वित्तीय अस्थिरता का पैदा होना कोई कोरी कल्पना नहीं है. स्थिति की गंभीरता को भाँपते हुए सरकार और रिज़र्व बैंक दोनों हरकत में आई है और कई तरह के क़दम उठाए गए हैं ताकि मामला हाथ से न निकल जाए.
कैसे काम करता है लॉकडाउन
तो सवाल उठता है कि स्वास्थ्य ज़रूरतों का ख़्याल रखते हुए आंख मूंदकर शारीरिक दूरी बनाये रखने और आर्थिक ज़रूरतों की वजह से संपत्ति बनाने की निर्बाध स्वतंत्रता के बीच का कोई रास्ता है कि नहीं? सौभाग्य से ऐसा रास्ता मौजूद है. इससे पहले कि मैं समाधान गिनाऊं, यह समझना ज़रूरी है कि लॉकडाउन कैसे काम करता है. फ़र्ज़ कीजिए कि इस समय 1% लोग संक्रमित हैं. हम इस आंकड़े को इसलिए ले रहे हैं क्योंकि हमारे पास इसकी वास्तविक संख्या नहीं है. अगर हम संक्रमित परिवारों की सही-सही पहचान कर पाते, उनका पता लगा पाते तो शेष सभी लोग संक्रमण के डर के बिना अपना काम सामान्य तरीक़े से कर पाते. और कौन लोग संक्रमित हैं इसका पता लगाने का तरीक़ा क्या है? एक ही तरीक़ा है – कोविड-19 के संक्रमण की बार-बार जांच.
अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार जीत चुके और विश्व बैंक में मुख्य अर्थशास्त्री रह चुके पॉल रोमर ने अपने ब्लॉग में एक संभावना के बारे में इसकी बहुत ही दिलचस्प तस्वीर खींची है. वे कहते हैं, एक अनुमान के अनुसार, अगर हम जांच नहीं कर रहे हैं तो लगभग 60% परिवारों को क्वारंटाइन करना होगा जबकि अगर हम जांच करते हैं तो हमें सिर्फ़ 10% परिवारों को ही क्वारंटाइन करना होगा. और यह इसके बावजूद कि जांच अपने आप में ही पर्फ़ेक्ट नहीं है और ग़लत परिणाम के लिए हमें तैयार रहना होगा.
संक्रमण की आशंका वाले लोगों की जांच जरूरी
हर दिन 30,000 लोगों की जांच करके हम कहीं से भी इस लक्ष्य के आसपास नहीं हैं जो रोमर की शर्तों को पूरा करता हो. इसके अलावा, आरटी-पीसीआर जांच, जो कि सही तो है पर इसकी लागत काफ़ी अधिक होती है, इसमें समय ज़्यादा लगता है और इसके लिए सैंपल लेने से लेकर इसके परिणामों के विश्लेषण तक में काफ़ी ज़्यादा कुशलता की ज़रूरत होती है और फिर हमें पूरक सेरोलॉजिकल जांच भी करनी होगी. सीरम जांच आपके रक्त में ऐंटीबॉडीज़ की तलाश करता है जो आपके इम्यून सिस्टम में उस समय बनता है जब आपको कोविड-19 का संक्रमण होता है. यह सस्ता है, इसमें समय कम लगता है और ज़्यादा कुशलता की ज़रूरत नहीं होती.
चूंकि, सीरम जांच से संबंधित किट अभी शीघ्र विकसित होने की स्थिति में है, इसकी आपूर्ति और इसकी गुणवत्ता सुनिश्चित करना, दोनों ही चुनौती भरा है. कुछ राज्य सरकारों ने सीरोलॉजिकल जांच शुरू कर दी थी और अख़बारों में इस तरह की खबर छपी है कि आईसीएमआर ने गुणवत्ता की चिंता की वजह से अभी सीरम जांच पर अस्थाई रोक लगा दी है. पर हमें इस पर लगातार लगना होगा. हमें संक्रमण की आशंका वाले लोगों से निपटने के लिए सीरोलॉजिकल जांच करने, और उन्हें अलग-थलग करने के लिए सर्वेलेंस प्रोटोकॉल तैयार करना होगा ताकि इस बीमारी को फैलने से रोका जा सके. संक्रमित परिवारों की पहचान कर पाने की क्षमता के अभाव में हम लोगों को लॉकडाउन में रख रहे हैं. इसकी हमें बहुत ही भारी आर्थिक क़ीमत चुकानी होगी.
जैसा कि रोमर कहते हैं, “अगर हम सामाजिक दूरी की वर्तमान रणनीति को 12 से 18 महीने तक जारी रखते हैं तो हो सकता है कि हम में से अधिकांश लोग ज़िंदा बच जाएं. पर हमारी अर्थव्यवस्था मर जाएगी”. आर्थिक गतिविधियों को बहुत ही सावधानी से शुरू की जाए और स्थानीय गतिविधियों से इसकी शुरुआत होनी चाहिए; यह उद्देश्यपरक मानदंडों पर आधारित हो, जैसे कि संक्रमण के फैलाने की दर क्या है, उन लोगों की संख्या क्या है जिन पर नज़र रखी जा रही है, संक्रमण का ताज़ा आंकड़ा क्या है और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए संसाधनों की स्थिति क्या है.
आलोक कुमार
सलाहकार
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[ये लेखक के निजी विचार हैं]