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कोरोना से निपटने के लिए लाखों करोड़ों रुपये के राहत पैकेज देना कितना सही?-How will coronavirus impact Indias economy What is the impact of Coronavirus on Indian Economy | business – News in Hindi

नई दिल्ली. पूरी दुनिया मंदी (Global Economy) के मारे दहशत में है. साल भर से दुनियाभर के अर्थशास्त्री मंदी (Recession) से निपटने के लिए तरह तरह के उपाय सुझा रहे हैं. इधर कोरोना (Coronavirus Impact) ने वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं को और डरा दिया. हमें मान लेना चाहिए कि राजव्यवस्थाएं आमतौर पर आज की ही बात सोचती हैं. यह मान लेने में भी कोई हर्ज नहीं है कि राजसत्ताओं के दबाव में सरकारी अर्थशास्त्रियों को उसी हिसाब से सोचना और कहना पड़ता है. जबकि दूर की बात अनुभवी अर्थशास्त्री ही बता सकते हैं. ऐसी ही एक महत्वपूर्ण बात एक ऐसे अर्थशास्त्री ने कही है जो इस समय विश्वप्रसिद्ध विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं उनका नाम है अरविंद पनगढ़िया. वे कुछ ही साल पहले भारत के नीति आयोग के उपाध्यक्ष थे. उसके बाद वे वापस अर्थशास्त्र पढ़ाने कालंबिया विश्वविद्यालय चले गए.

ये अलग बात है कि उनके वक्तव्य को भारतीय मीडिया में ज्यादा तवज्जो नहीं मिली. लेकिन अर्थव्यवस्था पर भारी संकट के समय जरूर देखा जाना चाहिए कि भारत में हालात से निपटने के बारे में उन्होंने क्या कहा? उनके कहे का बारीकी से यह विश्लेषण भी होना चाहिए कि वेे संकेतों के जरिए और क्या क्या कह रहे हैं.

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क्या कहा उन्होंने?पनगढ़िया ने कहा है कि भारत सरकार को कोरोना से निपटने के लिए आसान कर्ज बांटने के तरीके से बचना चाहिए. यानी कर्जनुमा प्रोत्साहन पैकेज देने से बचना चाहिए. उनका कहना है कि बड़े प्रोत्साहन पैकेज देने से उन कंपनियां को आसान कर्ज मिल जाएगा जिनका कारोबार आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं है. उनका सुझाव है कि सरकार ऐसे बड़े प्रोत्साहन पैकेज की मांग के दबाव में कतई न आए. बल्कि इस समय जरूरतमंद लोगों के भोजन आश्रय वगैरह जैसी बुनियादी जरूरतें देखी जाएं.

क्यों कहा ऐसा?
अर्थशास्त्री ही तो वे लोग होते हैं जो कर्ज की प्रवृत्ति और उसके अच्छे बुरे नतीजों से अच्छी तरह समझते हैं. पनगढ़िया ने आगाह किया है कि सरकार आज जो अतिरिक्त खर्च करेगी उसकी भरपाई करदाताओं को भविष्य में करनी होगी.

प्रोत्साहन पैकेज के लिए कहां से आएगा पैसा?
पनगढिया ने बताया है कि किसी भी सरकार के पास अतिरिक्त खर्च करने के लिए आमतौर पर दो ही जरिए होते हैं. पहला सरकार कहीं से खुद कर्ज उठाए और दूसरा कि नए नोट छापे. उनकी इस बात का विश्लेषण करें तो हमें यह तो पहले से पता है कि कर्ज और कुछ नहीं होता बल्कि अपने भविष्य को वर्तमान में खा जाना होता है. इस तरह पनगढ़िया ने भविष्य के अवश्यंभावी संकट की तरफ इशारा किया है. दूसरी बात है नए नोट छापने की, सो यह भी पहले से पता है कि इसे मुद्रा का अतिरिक्त प्रसार कहते हैं जिसे मुद्रास्फीति या आम बोल चाल की भाषा में महंगाई कहा जाता है. यानी एक अर्थशास्त्री की चेतावनी में साफतौर पर महंगाई बढ़ने का अंदेशा जताया गया है.

बाद में सताएगाी महंगाई
अर्थशास्त्र के नियम के मुताबिक ज्यादा कर्ज बांटने से बाजार में पैसा ज्यादा होगा तो महंगाई बढ़ेगी ही. लेकिन पनगढ़िया ने एक बड़े नुक्ते की बात कही है. वह ये कि देश के मौजूदा हालात के मद्देनज़र ज्य़ादा कर्ज़ बांटने से महंगाई बढ़ने का यह नियम फौरन काम नहीं करेगा. इसका कारण यह कि देश के मौजूदा हालात में कुछ दिनों तक भारतीय बाजारों में खर्चीला सामान उपलब्ध ही नहीं होगा. ज़ाहिर है कि ज्य़ादा कर्ज़ या ज्यादा मुद्रा प्रसार से महंगाई का असर फौरन नहीं दिखाई देगा यानी यह कोरोना से निपट जाने के बहुत बाद में दिखाई देगा.

क्या वाकई सरकारी खजाने की इतनी हैसियत है?
खजाने की हैसियत के बारे में अरविंद पनगढ़िया ने कुछ नहीं कहा है. अलबत्ता नीति आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष होने के नाते उन्हें भारतीय अर्थव्यवस्था की वास्ततिक स्थिति के बारे में पता जरूर होगा. लेकिन हम अगर कोरोना के पहले उद्योग जगत को दी गईं सरकारी रियायतों, प्रोत्साहन पैकजों की कुल रकम और रिजर्व बैंक के मौद्रिक उपायों के जरिए बैंकों को दी गईं सारी छूटों को मिलाकर देखें तो मंदी से निपटने के लिए सरकार के खजाने की हैसियत से कहीं ज्यादा रकम निकाली जा चुकी है.

मसलन कोरोना के पहले ही कारपोरेट टैक्स घटाकर कोई एक लाख 45 हजार करोड़ रुपये उद्योग व्यापार जगत को दिए जा चुके हैं. उसी दौरान रीयल एस्टेट और आटोमोबाइल सैक्टर को भी राहत पैकेज दिए गए. हाल ही में रिजर्व बैंक कोई पौने तीन लाख करोड़ रुपए से ज्यादा का कर्ज बांटने के लिए बैंकों को छूट दे चुका है. मोटा हिसाब लगाएं तो सब प्रकार की राहतों और कर्ज की व्यवस्थाओं के लिए सरकार अपने ऊपर कोई छह से सात लाख करोड़ का बोझ लाद चुकी है.

राहत पैकेजों का असर क्या हुआ अबतक
अर्थशास्त्रियों को यह हिसाब लगाकर भी बताना चाहिए कि इन सरकारी उपायों का असर अबतक हुआ क्या है? और अगर प्रत्यक्ष रूप् से अभी नहीं हुआ है तो अप्रत्यक्ष रूप् से इसका अच्छा असर पड़ने के संकेत या लक्षण क्या हैं?

यह भी देखा जाना चाहिए कि जब जब सरकार की तरफ से भारी भरकम राहत या प्रोत्साहन पैकेज या करों में भारी छूट दी गई उसका असर दिखना कहां चाहिए था यानी किस तबके पर? इसे जांचने के लिए निवेश बाजार यानी शेयर बाजार पर इसके फौरी असर का आकलन जरूर किया जाना चाहिए.

एक दो रोज़ में ही काफूर हो जाता है असर
यह अनुमान लगाने के लिए ज्यादा हिसाब लगाने की जरूरत नहीं है. शेयर बाजार के सेंसेक्स पर नज़र डालें तो जब भी सरकार की तरफ से उद्योग जगत को पैकेज का ऐलान हुआ उसका असर एक दो रोज़ में जाता रहा. बिल्कुल आज की स्थिति देखें तो कल यानी चैबीस घंटे पहले ही सरकारी तंत्र से प्रचारित हुआ कि हम कोरोना से उबर रहे हैं.

कहा गया कि हमारे यहां कोरोना पीड़ितों का जो आंकडा पहले साढे़ तीन दिन में दुगना हो रहा था वह अब साढ़े सात दिन में दुगना हो रहा है. यानी कोरोना के हालात काबू में आ रहे हैं. इससे शेयर बाजार पर सकारात्मक प्रभाव का अनुमान था. लेकिन आज यानी 21 अप्रेल को शेयर बाजार का सेंसेक्स आश्चर्यजनक रूप से 800 अंक नीचे खुला. दिनभर सेंसेक्स को ऊंचा उठाने की कोशिश करने वाले पक्षकर अपना पूरा जोर लगाते रहे लेकिन बाजार चढ़कर नहीं दिया. बल्कि शाम को सबेरे के मुकाबले और दो सौ अंक नीचे जाकर यानी एक हजार अंक के नुकसान के साथ बंद हुआ.

बेशक शेयर बाजार की हलचल निवेश कारोबार का रोजमर्रा का काम है. पल पल उतार चढ़ाव वाले इस कारोबार में अर्थशास्त्री ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेते. लेकिन भयावह मंदी से निपटने की सरकार की कई महीनों से हो रही चैतरफा कवायद के बावजूद अगर शेयर बाजार की कुल पूंजी का एक चैथाई हिस्सा कपूर की तरह उड़ गया हो तो अर्थशास्त्रियों को सोचकर विस्तार से समझाना चाहिए. शेयर बाजार का दैनिक या मासिक विश्लेषण भले ही अकादमिक अर्थशास्त्रयों के कार्यक्षेत्र में न आता हो लेकिन पिछले छह साल के दौरान भारतीय शेयर बाजार की हालत को देश की अर्थव्यवस्था के नज़रिए से क्यों नहीं देखा जाना चाहिए.

बहरहाल, देश के माली हालात पर तसल्ली से और बारीकी से देखने का यही सबसे जरूरी समय है. अर्थव्यवस्था पर संकट का दौर लंबा खिंच रहा है. उपर से वैश्विक महामारी इस संकट को और बढ़ा रही है. यानी इस समय आज की सोचने के साथ साथ दूर की भी सोचना है. आज का फौरी उपाय सरकारी अर्थशास्त्री कर सकते हैं. लेकिन दूर की बात सिर्फ अर्थशास्त्र के विद्वान और अर्थशास्त्र के दार्शनिक ही सोच सकते हैं. यह शौकिया अर्थशास्त्रियों से बचने का समय है. आगे की सोचे बगैर आज की समस्या से निपटने के लिए उद्योग व्यापार जगत को अंधाधुंध प्रोत्साहन पैकेजों का ऐलान कल बहुत ही दुख देगा. इस तरह अरविंद पनगढ़िया ने ठीक ही आगाह किया है.



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