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किसी न किसी को तो लेनी होगी प्रवासी मजदूरों की जिम्मेदारी | somebody-has-to-take-responsibility-of-migrant-laborers-amid-lockdown | patna – News in Hindi

आजकल एक वीडियो सोशल मीडिया पर काफी वायरल हो रहा है, उस वीडियों में एक पत्रकार एक ऐसे प्रवासी मजदूर से बात करता है, जो साइकिल से गुड़गांव से अपने घर बिहार के मधुबनी जिले की यात्रा कर रहा है. उसके साथ पांच अन्य लोग हैं. उसने कहा कि उसने अपनी तमाम जमा पूंजी जोड़कर यह साइकिल खरीद ली है, ताकि वह इस संकट की घड़ी में अपने घर पहुंच सके. पूछने पर वह बताता है कि उसकी नौकरी छूट गई है, सरकार की तरफ से मदद की कोई पुख्ता व्यवस्था नहीं है. लॉकडाउन की अवधि भी काफी बढ़ गई है. ऐसे में वह कैसे वहां रहे.

लॉकडाउन के बाद भी बिहार में लगातार ऐसे मजदूरों का आना लगा है. पिछले दिनों यहां एक ऐसे मजदूरों का जत्था पहुंचा, जो 23-24 मार्च को ही दिल्ली से पैदल निकल पड़ा था. राशन का सामान लाने वाले ट्रकों में तिरपाल के नीचे छिप कर मजदूरों के पहुंचने के कई मामले सामने आए हैं. देश के अलग-अलग राज्यों में फंसे बिहारी मजदूरों की मदद करने के लिए सरकार द्वारा समर्थित संस्था बिहार फाउंडेशन के सदस्यों के सामने पिछले दिनों कई मजदूरों ने गुहार लगाई कि ‘चाहे तो हमारा कोरोना टेस्ट करवा लीजिए, मगर हमें घर भिजवा दीजिए.‘

अलग-अलग राज्यों से रोजी-रोजगार के लिए देश के विभिन्न महानगरों में जुटे इन असंगठित क्षेत्र के प्रवासी मजदूरों के लिए कोरोना संक्रमण की वजह से लगा दोहरा लॉकडाउन एक बड़ा शॉक साबित हो रहा है. पिछले दिनों स्ट्रैंडेड वर्कर एक्शन नेटवर्क (स्वाम) नामक एक स्वयंसेवी संस्था ने देश के अलग-अलग महानगरों में फंसे ऐसे 11,159 मजदूरों से बातचीत की. इस बातचीत के नतीजे आंख खोलने वाले हैं. इस सर्वेक्षण में शामिल मजदूरों ने बताया कि 50 फीसदी लोगों के पास एक दिन से कम का राशन बचा हुआ है. 96 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें अब तक सरकार की तरफ से राशन नहीं मिला है, 70 फीसदी लोगों ने कहा कि सरकार की तरफ से उन्हें पका हुआ खाना नहीं मिला है. 78 फीसदी लोगों के पास 300 रुपये से भी कम की राशि बची है. 89 फीसदी मजदूरों ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान उनके नियोक्ताओं ने उन्हें न मजदूरी दी, न मदद की. ये आंकड़े बताते हैं कि इस वक्त देश भर के प्रवासी मजदूर किन स्थितियों में जी रहे हैं.

यह कहानी भले 11,159 लोगों की है, मगर देश में ऐसे मजदूरों की संख्या करोड़ों में है. सिर्फ बिहार से ऐसे मजदूरों की संख्या एक करोड़ के करीब मानी जाती है. पिछले दिनों जब बिहार सरकार ने मोबाइल एप के जरिये ऐसे मजदूरों से 1000 रुपए की मदद के लिए आवेदन मांगा तो 13 लाख से अधिक आवेदन आए. ये आवेदन जाहिर सी बात है, उन लोगों ने किए होंगे, जिनके पास स्मार्टफोन की सुविधा होगी और जो तकनीकी तौर पर दक्ष होंगे. सरकार का दावा है कि उसने 6.75 लाख लोगों के खाते में 1000 रुपए की मदद राशि भिजवायी है. हालांकि कई लोग लगातार यह शिकायत भी करते रहे कि अप्लाई करने और पैसे भेजे जाने का मैसेज मिलने के बावजूद राशि उन तक नहीं पहुंची. अगर सरकारी आंकड़ों को सही भी मान लिया जाये तो इसके बावजूद बड़ी संख्या में मजदूर अभी भी इस सुविधा से वंचित हैं. इस बीच बिहार सरकार ने साफ-साफ कह दिया है कि जब तक संकट नहीं टलता है, जो जहां है वहीं रहे.इस लॉकडाउन की अवधि में जब खुद बिहार की सरकार अपने तमाम राशनकार्ड धारियों को तीन महीने का मुफ्त राशन दे रही है, ये प्रवासी मजदूर जो अपने श्रम से अर्जित पैसों से बिहार पैसे भेजते हैं और यहां की अर्थव्यवस्था को मजबूती देते हैं, इस वक्त पेट भरने के लिए यहां-वहां भटक रहे हैं. लगातार मिल रही रिपोर्टों से जाहिर है कि इन पर कई तरह की मुसीबतें हैं. इन्हें रोजगार देने वालों ने इन्हें मेहनताना देना बंद कर दिया है, जिन किराये के मकानों में ये रहते थे, वहां से इन्हें भगाया जा रहा है. जिन राज्यों में रहकर ये मेहनत करते हैं और वहां की व्यवस्था बेहतर बनाने में योगदान देते हैं, वे दिखाने के लिए कुछ कम्युनिटी किचेन खोल बैठे हैं और उन्होंने अपने कर्तव्यों को पूरा मान लिया है. जिन राज्यों के वे निवासी हैं, वे भी किसी तरह इस संकट में उनसे पीछा छुड़ाने के चक्कर में हैं.

ऐसे में सवाल उठता है कि ये प्रवासी मजदूर आखिरकार किनकी जिम्मेदारी हैं, इस संकट की घड़ी में उनकी मदद करना किसका कर्तव्य है. अपने नियोक्ताओं का, जिन राज्यों में वे रहकर मेहनत मजदूरी करते हैं उनका या जिन राज्यों में उनका मूल निवास है, उनका. दुर्भाग्यवश इस समय कोई उनकी जिम्मेदारी उठाने के लिए तैयार नहीं है.

यह सिर्फ आज का मामला नहीं है. ये प्रवासी मजदूर अपनी इस खास स्थिति की वजह से लगातार सरकार की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से वंचित रहते हैं. आज अगर जिन राज्यों में वे रह रहे हैं, वहां उनका राशन कार्ड होता तो वे इस असहाय स्थिति में नहीं होते. अगर वे प्रवास करने वाले राज्यों के वोटर होते तो उन राज्यों की सरकारें भी उनकी चिंता कर रही होती. अगर इन मजदूरों का भी ईएसआइसी (कर्मचारी राज्य बीमा निगम) के तहत निबंधन होता तो उन्हें काम छूटने की इतनी फिक्र नहीं होती. मगर अफसोस रोजी-रोटी के चक्कर में सीमित अवधि के लिए प्रवास करने वाले देश के करोड़ों मजदूर इस तरह की तमाम सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से वंचित रहते हैं. न इन परिवारों की गर्भवती महिलाओं का नियमित चेकअप हो पाता है, न इनके बच्चों का नियमित टीकाकरण. इन परिवारों के ज्यादातर बच्चे शिक्षा का अधिकार कानून से वंचित हैं. ये कुपोषण और एनीमिया को कम करने के लिए बने सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित हैं. इन्हें रोजगार गारंटी योजना का लाभ नहीं मिल पाता. खाद्यान्न सुरक्षा योजना और राशन की दूसरी व्यवस्थाओं से ये वंचित हैं ही.

यह अवसर है कि सरकार देश भर के ऐसे प्रवासी मजदूरों के बारे में अलग से सोचे. इनके प्रवास का निबंधन हो, प्रवास के दौरान इनका राशन कार्ड ट्रांसफर हो. सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से संबंधित इनके हिस्से का फंड उन राज्यों को ट्रांसफर हो, जहां ये प्रवास के लिए गए हैं. इन्हें भी ईएसआईसी के तहत लाया जाये. तभी इन मजदूरों को इस संकट की स्थिति से उबारा जा सकेगा. इस काम में इनके नियोक्ता, दोनों संबंधित राज्य सरकारें और केंद्र सरकार को सामूहिक जिम्मा लेना पड़ेगा. नहीं तो इस वक्त ये मजदूर जिस शॉक को झेल रहे हैं, आने वाले दिनों में महानगरों को इन मजदूरों की किल्लत का सामना करना पड़ सकता है.

उन्हें निर्माण कार्य, सुरक्षा कार्य, घरेलू काम-काज, छोटी फैक्टरियों के लिए और दूसरे ऐसे कामों के लिए इतने सस्ते मजदूर शायद ही मिलें. क्योंकि इस भीषण संकट को झेल रहे ये मजदूर शायद ही अब दुबारा महानगरों में जाने की हिम्मत कर पाएंगे.

(डिस्क्लेमरः ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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