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OPINION: युद्धों के लिए 1330 खरब रुपये का खर्च और कोरोना- 1330 trillion rupees cost for wars and what about coronavirus | nation – News in Hindi

(सचिन कुमार जैन)

कोरोना वायरस (Coronavirus) से ज्यादा तेज़ गति से फ़ैल रहा है भय. हम तत्काल नाप ले रहे हैं दूरी उस स्थान की जहां अभी अभी किसी को कोरोना से संक्रमित पाया गया है. कोरोना कुछ नहीं करता, बस सांस लेना दूभर कर देता है. अभी तक इसका कोई इलाज़ नहीं है, कोई दवा या मशीन भी नहीं है, जो इस विषाणु को ख़त्म कर सके. सबसे ख़ास बात यह है कि कोरोना का विषाणु कोई सजीव इकाई नहीं है. यह तो निर्जीव इकाई है. यह एक बहुत ही सूक्ष्म अणु है. यह जब इंसान की आँख, नाक, आंसू या बलगम यानी नम द्रव में मिलता है, तो इसके स्वरुप में बदलाव होता है. फिर यह निर्जीव अणु कोशिका में परिवर्तित हो जाता है और मानव शरीर के भीतर बहुत तेज़ गति से बढ़ने लगता है. इसका सबसे गहरा असर श्वसन तंत्र और फेंफडों पर पड़ता है. यह सांस लेने में तकलीफ करने लगता है. हम सब जानते हैं कि इसके इलाज़ की खोज की जा रही है. अभी तक इसके उपचार के लिए कोई दवा इजाद नहीं हो पायी है. हो सकता है कि बहुत जल्दी ही इसका कोई इलाज़ सामने आ जाएगा. ढेर सारे वैज्ञानिक दवा के आविष्कार में जुटे हुए हैं. कोरोना से जूझा भी जा सकता है और जीता भी जा सकता है; अगर हम तय कर लें कि दुनिया अब युद्ध और सशस्त्र संघर्ष बंद किये जायेंगे. युद्धों की तैयारी पर विश्व एक साल में 1330 खरब रुपये खर्च करता है.

सवाल यह है कि क्या कोरोना का चिकित्सकीय उपचार आ जाने से बात ख़त्म हो जायेगी? हम मान लेंगे कि अब संकट ख़त्म हो गया है? शायद आधुनिक विश्व यह भयंकर गलती करेगा. वह कोरोना के पाठ से कुछ नहीं सीखेगा. अब तक भारत, चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, ईरान सरीखे देश जिस तरह की योजनायें बना
रहे हैं, उससे तो यही लगता है कि कोई भी राष्ट्र प्रमुख कोरोना से कोई सबक नहीं लेना चाहता है. वे अपने अहंकार से वसा की उस परत को काटना चाहते हैं, जिसमें यह निष्प्राण वायरस सुरक्षित रहता है.

लॉकडाउन के कारण भारी संख्‍या में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर अपने गांव लौटने को मजबूर हुए हैं

असंगठित क्षेत्र यानी भारत का असली समाज
भारत की 81 करोड़ की वयस्क जनसंख्या में से दिसंबर 2019 की स्थिति में 29.58 करोड़ लोग किसी न किसी उपक्रम में रोज़गार से जुड़े हुए थे. इनमें से लगभग 26 करोड़ लोग अनौपचारिक (असंगठित) क्षेत्र में रोज़गार हासिल करते हैं. एक महीने में 30 प्रतिशत लोग बेरोजगार हो गए हैं. व्यापक तौर पर असंगठित क्षेत्र में कार्यरत होने का मतलब है कि उनके रोज़गार ने स्थायित्व नहीं है, उनका काम कभी भी छिन सकता है, इन्हें बीमा, सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, महिलाओं को मातृत्व हक़ आदि का अधिकार नहीं मिलता है. भारत में लगभग 5.5 करोड़ मजदूर दैनिक शारीरिक मजदूरी पर काम करते हैं. इन मजदूरों से भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 9 प्रतिशत का योगदान आता है. यानी ये व्यापक अर्थव्यवस्था में बहुत बड़ा योगदान करते हैं. विभिन्न आंकलन बताते हैं कि 90 से 100 लाख मजदूर भवन-अधोसंरचना निर्माण और उत्पादन के क्षेत्र में काम करने के लिए गाँव से शहरों या विकसित होते शहरी क्षेत्रों की तरफ पलायन करते हैं.

नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में विभिन्न समय में (मौसम अनुकूल) पलायन करने वाले मजदूरों में 23 लाख महिलायें और 1.3 करोड़ पुरुष होते हैं. इन मजदूरों का जीवन असीम असुरक्षाओं से भरा होता है. इन्हें मानवीय गरिमा का मूल अधिकार भी प्राप्त नहीं होता है. मैदानी आंकलनों के अनुसार अब लगभग 15 करोड़ लोग गांव से शहरों की तरफ पलायन करते हैं.

कोरोना महामारी से निपटने के प्रयासों में जब मुल्क की तालाबंदी की गयी तो इन 5.5 करोड़ मजदूरों और पलायन करने वाले लगभग 1 करोड़ मजदूरों के बारे में एक पल के लिए भी विचार नहीं किया गया. इन मजदूरों ने तालाबंदी का कोई विरोध नहीं किया, कोई धरना प्रदर्शन नहीं किया. इन्होॆने तालाबंदी की जरूरत को भलीभांति समझा और देश के हित में चुपचाप अपने गांव-अपने घर की तरफ वापस चल पड़े. असंख्य मजदूर बस, कार या रेलगाड़ी से घर वापस नहीं जा रहे थे. लगभग 6 लाख मजदूर 50 किलोमाटर से 1000 किलोमीटर तक की घर वापसी यात्रा पर अपने कुछ कपड़ों और बर्तनों की पूंजी को पोटली में बंद कर पैदल ही चल पड़े.

हर दिन कोरोना के मरीजो की संख्या लगातार बढ़ रही है

भारत के मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बेहद अमानवीय है. उसने कहा कि ये लोग मूर्ख हैं और देश का हित नहीं समझते हैं. ये राजनीति का हिस्सा हैं. वरना कौन सैकड़ों किलोमाटर पैदल चल कर वापस जाता है. ये कोरोना को भारत में महामारी बना देंगे. मध्यम वर्ग का यह वो समूह है, जो अपने आरामगाह में पेटभर खाना खाकर राष्ट्रहित के बारे में विचार करता है.

इन्हें यह भी पता नहीं होता है कि जो महिला इनके घर को साफ़ करने या भोजन बनाने आती है, वह भी ऐसे की किसी मजदूर परिवार से ताल्लुक रखती होगी. जो सब्जी बेंचने वाला इनके घर के सामने से ठेला लेकर निकलता है, वह भी इसी समुदाय का हिस्सा होता है. शायद उनके जीवन की 80 फीसदी मशीन इन्हीं पलायनकर्ता मजदूरों के बल पर चलती है. मध्यम वर्ग में शामिल 13 करोड़ लोगों को यह नहीं मालूम कि तालाबंदी ने मजदूरों को पहले दिन ही धक्का लगाया था, तो माध्यम वर्ग को यह 30वें या 40वें दिन धक्का लगाना शुरू करेगी. यह उल्लेखनीय है कि तालाबंदी को अभी हटा देना शायद विकल्प नहीं है, किन्तु समाज के 90 प्रतिशत इंसानों को भुखमरी में धकेल देना अमानवीयता है.
कोरोना से निपटने के लिए एक महत्वपूर्ण और तात्कालिक कदम उठाकर देश में तालाबंदी कर दी गयी, यानी जो जहां था उसे वहीं रोक दिया गया और सबको अपने घरों की सुरक्षित कैद में चले जाने के निर्देश दे दिए गए. यह जरूरी कदम था. इसी तालाबंदी के बीच नागपुर में काम करने वाले युवक लोगेश ने अपने घर तमिलनाडु में नामक्कल के लिए घर वापसी शुरू की. 500 किलोमाटर चल कर वह सिकंदराबाद पहुंचा. वहां आराम के लिए वह एक आश्रय गृह में रुका. वह बैठा हुआ था और बैठे-बैठे ही लुड़क गया. जांचा गया तो पता चला की वह अपनी अंतिम यात्रा के लिए जा चुका था. दिल्ली में घर-घर भोजन पहुंचाने का श्रम करने वाले रणवीर सिंह ने दिल्ली से अपने गांव मध्यप्रदेश के मुरैना जिले के बदफा जाने के लिए यात्रा शुरू की. 200 किलोमीटर चल कर आगरा पहुंचे, किन्तु इसके आगे वे नहीं जा पाए और उनकी मृत्यु हो गयी.

अचानक दिल्ली-उत्तरप्रदेश, हरियाणा, मध्यप्रदेश-गुजरात-राजस्थान-तेलंगाना-ओड़ीसा-बिहार-झारखंड-पंजाब यानी देश में जितनी भी राज्यों की सीमाएं हैं, वहां मजदूर पहुंचने लगे. वे अपने घर वापस जाना चाहते थे. उनका रोज़गार इन राज्यों के बड़े शहरों में था, किन्तु फिर भी इन शहरों ने अप्रवासी मजदूरों को अपना नहीं बनाया. केवल इनका और इनके श्रम का शोषण किया. ये शहर और इन शहरों के लोग मजदूरों को यह विश्वास ही नहीं दिला पाए कि कोरोना संक्रमण के इस संकट में वे अपने गांव-घर वापस न जाएँ. उनका ख्याल हम रखेंगे. कारखाने बंद हुए, तो मजदूर लावारिस कर दिए गए. इन मजदूरों को समझ आया कि बेहतर है कि घर की लौट जाया जाए. कम से कम वहां दो अच्छे बोल बोलने वाले और ख्याल रखने वाले अपने लोग तो होंगे. यदि मृत्यु भी हो गयी तो कम से कम लावारिश लाश की तरह अंतिम संस्कार तो न होगा. ऐसा ही बहुत कुछ सोचते हुए, 7 लाख मजदूर अपने घरों की तरफ चल पड़े.

इन्हें भारत और राज्यों की सरकारों ने सस्ता और कुछ मुफ्त राशन देने की व्यवस्था की है. जनधन के खातों में पांच-पांच सौ रूपये नकद डाले जा रहे हैं. इन्हें विश्वास दिलाने की कोशिश की जा रही है कि कोरोना संक्रमण के इस वक्त में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जायेगी; किन्तु मजदूर को अपनी सरकारों पर कोई विश्वास नहीं है. क्योंकि अब तक उनके साथ केवल छलावा ही तो हुआ है. उनकी निर्धनता और धर्म-परायणता का पूंजीपतियों, नीति निर्माताओं और राजनीति के उद्योगपतियों ने खूब शोषण किया है, तिरस्कार किया है.पिछले दो सालों से आर्थिक संकट बहुत गहरा गया था. हम केवल आंकड़ों की बाजीगरी से नागरिकों को उलझाए हुए थे. भीतर से सरकारें खोखली हो रही थीं. महल धसकने वाला ही था कि कोरोना ने दस्तक दे दी.

नवंबर 2019 से शुरू हुआ संकट मार्च 2020 तक लगभग पूरी दुनिया में फ़ैल गया. ख़ास बात यह है कि जो देश अस्त्र-शस्त्र और पूंजी के लिए लड़ मर रहे हैं, वे सब सबसे पहले और सबसे खतरनाक तरीके से इसके प्रकोप के साए में आये. इन देशों ने ही इसके फैलाव को रास्ता भी दिया है. कोरोना के श्रंखला को तोड़ने के लिए जरूरी हुआ कि भौतिक-शारीरिक दूरी स्थापित की जाए और बेहद सावधानी के साथ व्यवहार किया जाए. चार घंटे की घोषणा पर देश में सभ कुछ बंद कर दिया गया.

ऐसा लगता है कि भारत बालीवुड की फिल्म का मंच है. जिसे कलाबाजियों से चलाया जा रहा है. यह कदम अनिवार्य भी था, किन्तु बिना तैयारी के लागू किये जाने का परिणाम है कि बिना कोरोना के 40 लोग मृत्यु को प्राप्त हो गए और करोड़ों लोगों के सामने रोटी का संकट खडा हो गया. सरकार गेहूं और चावल बांट रही है किन्तु उनके बच्चों को दूध नहीं मिल रहा है और रोटी को दाल का साथ नसीब नहीं हुआ. एक तिहाई लोगों को 200 ग्राम पका हुआ खाना भी मिला. पलायन पर गए.

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अभी तक इसके वैक्सिन को लेकर कोई कामयाबी नहीं मिली है

मजदूरों को रातों रात शहर-कारखाने-दफ्तर-निर्माण क्षेत्र छोड़ने पड़े. उन्हें बकाया मजदूरी भी नहीं मिली. जब यह कहा गया कि मजदूरों को आर्थिक सहायता मिले, तो न्यायाधीश कहते हैं कि जब सरकार खाना दे रही है, तो नकद की क्या जरूरत है? यह समाजवाद स्थापित करने का भी वक्त है. क्या ऐसा नहीं हो सकता है कि सार्वजनिक और निजी क्षेत्र मिलकर सभी कर्मचारियों और पदासीन लोगों को अच्छे से अच्छा भोजन दें और उन्हें नकद वेतन न दें.

क्या होंगे बुनियादी असर?
मेरा मानना है कि अब हर क्षेत्र और हर इकाई को अपने स्थानीय संसाधन विकसित करना चाहिए. महाराष्ट्र ने बिहार और उत्तरप्रदेश के मजदूरों के साथ खूब दुर्व्यवहार किया है, गुजरात ने मध्यप्रदेश के आदिवासी मजदूरों के साथ खूब दुर्व्यवहार किया है, ओड़ीसा के मजदूर भी खूब अपमानित हुए हैं और कोरोना ने जता दिया है कि संकट में ये जीडीपी (सकल घरेलु उत्पाद) वाला समाज सांत्वना भी नहीं देता है.

परिवारों के लिए आजीविका सुनिश्चित न कर पायें या उनके लिए उद्यम विकसित न कर पायें. यदि यह करना है कि स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा का स्वरुप में बदलना होगा. हमें उस शिक्षा को त्यागना होगा, जो भारत की ग्रामीण व्यवस्था को हिकारत से देख कर पाठ पढ़ाती है.

हथियार-युद्ध का खेल बंद करें!
यह एक उचित अवसर है कि भारत को अगुवाई लेकर दुनिया में यह नेतृत्व लेना चाहिए कि अब हम हथियारों और युद्धों पर अपने संसाधन खर्च नहीं करेंगे. भारत के लिए बस यही उचित भूमिका है, वरना चीन-अमेरिका-रूस को गिद्धों के भांति मानव समाज को ख़तम करने का प्रण कर चुके हैं. भारत को उनके इस प्रण का हिस्सा नहीं बनना चाहिए. जो विचारधाराएं युद्ध और हथियारों को बहादुरी या ताकत का प्रतीक मानती हैं, उनसे ज्यादा आत्मघाती विचारधारा कोई और नहीं हो सकती है.

जिन्हें यह लगता है कि भारत या दुनिया की सरकारें अब आर्थिक आपातकाल की तरफ बढ़ रही हैं, या सरकारों के पास इतने आर्थिक संसाधन नहीं है कि वे आर्थिक मंदी से निपट सकें; तो यह कतई सच नहीं है. दुनिया की कोई भी सरकार आज भी आर्थिक संकट में नहीं है बशर्ते वह शान्ति, सद्भावना में विश्वास रखे और युद्धों को आर्थिक विकास का साधन मानने वाले विचार को त्याग दे. लोगों को तय करना है कि वे युद्धों को ख़त्म करें या नहीं? वे हथियारों को पूजना बंद करेंगे या नहीं? यदि लोगों को युद्ध में आनंद आने लगा है, तो फिर क्या आप इसे सभ्य समाज कह सकते हैं? क्या वास्तव में हम यह मानते हैं कि हमारे धर्म-मजहबों युद्धों और हिंसा को ख़तम करने में नाकाम हैं? यदि अंधभक्ति से निकल कर तार्किक बात करना चाहेंगे तो विकल्प सामने है.

स्टाकहोम इंटरनेश्नल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिपरी) की वर्ष 2019 की रिपोर्ट बताती है कि पूर्ववर्ती वर्ष (2018) में दुनिया में सैन्य मद में (यानी हथियार, सीमाओं की साज-सज्जा, नए आविष्कार-शोध और अत्याधुनिक उपकरण) होने वाला खर्च 1.8 लाख करोड़ डालर (यानी लगभग 1330 ख़राब रूपए) तक पहुँच गया. यह वर्ष 2017 से 2.6 प्रतिशत ज्यादा है.

दुनिया के पांच देश अमेरिका, चीन, सऊदी अरब, भारत और फ्रांस मिलकर दुनिया में सैन्य व्यवस्था-हथियार पर होने वाले कुल खर्चे का 60 प्रतिशत हिस्सा व्यय करते हैं. सिपरी का अध्ययन बताता है कि यह व्यय 239 डालर प्रतिव्यक्ति सालाना बैठा है.

जरा सोचिये कि अमेरिका 649 अरब डालर (सरकार के बजट का 9 प्रतिशत), चीन 250 अरब डालर (सरकार के बजट का 5.5 प्रतिशत), फ्रांस 63.8 अरब डालर (4.1 प्रतिशत), रूस 61.4 अरब डालर (11.4 प्रतिशत), भारत 66.4 अरब डालर (8.7 प्रतिशत), सऊदी अरब 67.6 अरब डालर (24.6 प्रतिशत) जर्मनी 49.5 अरब डालर (2.8 प्रतिशत), जापान 46.6 अरब डालर (2.5 प्रतिशत), ब्रिटेन 50 अरब डालर (4.6 प्रतिशत), ब्राजील 27.8 अरब डालर (3.9 प्रतिशत), आस्ट्रेलिया 26.7 अरब डालर (5.1 प्रतिशत) और दुनिया भर के स्तर पर 1822 अरब डालर (दुनिया की सरकारों के कुल व्यय का 6.1 प्रतिशत) हिस्सा सेनाओं और हथियारों यानी युद्ध की तैयारियों पर खर्च करते हैं. क्या यह संभव नहीं है कि कम से कम अब देश और दुनिया की सरकारें आत्म सुरक्षा के नाम पर हथियारों और युद्धों का बाज़ार सजाना बंद कर दें?

इस वक्त हथियार और युद्ध सामग्री बनाने वाली दुनिया को 100 कंपनियों की सूची में सबसे ऊपर की पांचों कम्पनियाँ – लाकहीड मार्टिन, बोईंग, नार्थरोप, ग्रुम्मेन, रेथियोन और जनरल डायनामिक्स अमेरिका की हैं. इन पांच ने वर्ष 2018 में 148 अरब डालर का व्यापार किया. ये कम्पनियां अमेरिका की कूटनीति और राजनीति में इस वक्त सबसे अहम् हैं, क्योंकि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने सैन्य सामग्री के आधुनिकीकरण

युद्धों पर होने वाला व्यय कितना है?
के कार्यक्रम की घोषणा कर रखी है. जिनका इस्तेमाल अमेरिका विभिन्न देशों के बीच युद्ध बरकरार रखने के लिए करती हैं और वे दूसरे देशों की सरकारों को दारा धमका कर उन्हें इन कंपनियों से हथियार खरीदने के लिए मजबूर करते हैं. दुनिया की सरकारों ने हथियार निर्माता कपनियों के साथ मिलकर इंसानों को गहरे संकट में धकेल दिया है. संकट इसलिए क्योंकि कहा यह जा रहा है कि कोरोना एक जैविक हथियार है.

युद्ध चुनावी राजनीति का भी अंग हैं!
आर्थिक सिद्धांतों के नज़रिए से जरूर यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि युद्ध के साजो सामान के व्यापार में 50 प्रतिशत कमी से सकल घरेलु उत्पाद में 2 प्रतिशत की कमी आएगी, किन्तु सकल खुशहाली के स्तर में कई गुना की वृद्धि हो जायेगी. आज कई देशों की राजनीति में राजनीतिक दल और उनकी षड्यंत्र विशेषज्ञ टीमें नागरिकों को दूसरे देशों और दूसरे सम्प्रदायों का भी दिखा कर उन्हें मूल मुद्दों से भटकाती हैं. यह एक वास्तविकता यह है कि भारत से लेकर अमेरिका में आम चुनाव भय और सशस्त्र सघर्ष या युद्धों का माहौल बना कर ही लडे जा रहे हैं. सामाजिक सद्भाव, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक समानता चुनावी मुद्दे नहीं हैं. जिसका परिणाम हमारे यहाँ शिक्षा-स्वास्थ्य-बेहतर आर्थिक और आजीविका की व्यवस्थाएं नहीं बनाई गयीं. इनके लिए आवंटित किये जाने वाला संसाधन हथियारों और युद्धों के लिए आवंटित कर दिया गया. आज कोरोना के दो महीनों के संक्रमण काल ने इस राजनीति को उजागर कर दिया है. इससे यह साबित हुआ है कि सरकारें लोक स्वास्थ्य, लोक शिक्षण और बेहतर जीवन शैली के विकास के लिए निवेश नहीं कर रही हैं.
मानने लगी हैं कि अब आर्थिक संकट भी बढ़ रहा है, तो फिर नागरिकों को आतंकित करने या उद्योगों को डराने के बजाये दुनिया में युद्धों की समाप्ति के साझा निर्णय क्यों नहीं लिए जा रहे हैं?  कई राष्ट्र प्रमुख यह कह चुके हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद यह सबसे बड़ी विपत्ति है; अगर यह सच है तो क्या हम इसका सामना करने के लिए तैयार हैं या सिर्फ तर्कविहीन होते जा रहे समाज को सांप्रदायिक-आर्थिक निश्चेतना की गहराई में धकेलते जा रहे हैं.

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