कोविड-19 ने भारत की जाति, वर्ग असमानताओं को और मजबूत किया है: लेखक सूरज येंगड़े । Covid-19 Reaffirmed India’s Caste, Class Inequalities: Author Suraj Yengde on Learning Inclusion from Ambedkar | nation – News in Hindi

नई दिल्ली. नए कोरोना वायरस (Novel Coronavirus) की बीमारी के प्रसार को रोकने के लिए लगाए गए लॉकडाउन (Lockdown) से बड़ी संख्या में प्रवासी मजदूरों (Migrant Workers) का पलायन हुआ. इस वैश्विक महामारी (Global Pandemic) और इसके चलते लगाए गए लॉकडाउन (Lockdown) के चलते यातायात सेवाएं (Transportation Services) पूरी तरह से रुक गईं, जिससे प्रवासी मजदूरों और उनके परिवारों को पैदल ही लंबी दूरियां तय करनी पड़ीं.
हाईवे (Highway) पर फंसे हुए मजदूरों, उन पर किए जा रहे कीटाणुनाशक के छिड़काव आदि की परेशान करने वाली तस्वीरें सामने आती रहीं. कई लोगों ने इस परिस्थिति से निपटने के राज्य के तरीकों की आलोचना भी की. इस वैश्विक महामारी के हाशिए पर पड़े लोगों पर होने वाले दूरगामी परिणामों को लेकर भी चिंता जताई जा रही है, जिन पर आपदा का सबसे बुरा प्रभाव हुआ है.
ऐसे में ‘कास्ट मैटर्स’ (Caste Matters) नाम की किताब के लेखक-कार्यकर्ता सूरज येंगड़े कहते हैं कि कोरोना वायरस ने भारत में जाति और वर्ग की असमानताओं को और मजबूत किया है. News18 के साथ एक विशेष इंटरव्यू में येंगड़े ने शासक वर्ग की कामगारों के प्रति निष्ठुरता और सामाजिक दूरी के विशेषाधिकार पर बात की है.पढ़ें उनके इंटरव्यू के अंश-
सवाल: लॉकडाउन की घोषणा से प्रवासी मजदूरों का बड़ी संख्या में पलायन हुआ. क्या शासक वर्ग, आपदा के दौर में असहाय लोगों की जरूरतों पर ध्यान दे पाने में असफल रहा, क्या यह राज्य की निष्ठुरता को दिखाता है?
उत्तर: छाले से भरे पैरों के साथ प्रवासी मजदूरों और उनके बच्चों की लंबी दूरी तय करती तस्वीरें किसी भी इंसान के मन को दहला सकती हैं. ये कामगार खेतिहर मजदूर हैं, जिनमें से ज्यादातर दलित या आदिवासी (Scheduled Tribes) हैं. रिपोर्ट्स में सामने आया कि 71 फीसदी दलित खेतिहर मजदूर, भेदभाव के चलते औसतन 43 दिन की नौकरी खो चुके हैं.
ऐसे में वे गरीबी से बचने के लिए कहां जाएंगे? शहरी इलाकों में. जब, बहुत कम आय वाला बड़ा हिस्सा जो कि आम और रोजमर्रा का काम करता है, दलितों (Scheduled Castes) से भरा हुआ है. लॉकडाउन (Lockdown) के दौरान कॉन्ट्रैक्ट पर रखे गए कई मजदूरों को निकाल दिया गया और उनमें से कई राहत पैकेज के लिए योग्यता नहीं रखते क्योंकि उनके पास कंस्ट्रक्शन वर्कर वेलफेयर बोर्ड के कार्ड नहीं हैं.
मैं इसे केवल निष्ठुरता कहूंगा, यह शासक वर्ग की असंवेदनशीलता है, जो कभी नहीं समझ सकता कि उनके जैसे जीना क्या होता है. उनका कोई प्रतिनिधित्व नहीं करता, जाहिर सी बात है एक वोट (Vote) किसी प्रतिनिधित्व की गारंटी नहीं देता.
आर्थिक सलाहकार ब्राह्मण हैं. न्यायपालिका (Judiciary) जैसे संस्थानों में भी, ज्यादातर हाईकोर्ट के जज ब्राह्मण हैं. ऐसे में आदिवासियों से जुड़े मामलों की सुनवाई कौन करेगा. वे बहुत सारे अनुभव के साथ वरिष्ठ जज होंगे लेकिन वे नहीं जानते की कई पीढ़ियों तक आघात के साथ जीने पर कैसा महसूस होता है. कोरोना वायरस को एक बड़ा समानता लाने वाला बताया गया, कुछ हद तक यह सही भी है लेकिन भारत में इसने जाति और वर्ग की असमानताओं को फिर से मजबूत किया है.
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