छत्तीसगढ़

अबूझमाड़ के घने जंगलों-पहाड़ों में स्वास्थ्य योद्धाओं कर रहे इलाज नक्सल प्रभावित जिले में कोराना वायरस के साथ-साथ मलेरिया से भी लड़ाई है जारी  अबूझमाड़ में स्वास्थ्य कार्यकर्ता बांट रहे मच्छरदानी और कर रहे मलेरिया की जांच

अबूझमाड़ के घने जंगलों-पहाड़ों में स्वास्थ्य योद्धाओं कर रहे इलाज
 
नक्सल प्रभावित जिले में कोराना वायरस के साथ-साथ मलेरिया से भी लड़ाई है जारी 
 
अबूझमाड़ में स्वास्थ्य कार्यकर्ता बांट रहे मच्छरदानी और कर रहे मलेरिया की जांच
 
नारायणपुर सबका संदेस न्यूज़ छत्तीसगढ़- ऐसा नहीं कि नक्सल प्रभावित जिला नारायपुर में सिर्फ कोरोना वायरस (कोविड-19) संक्रमण की रोकथाम एवं नियंत्रण पर सब एक जुट है। बल्कि नारायणपुर सहित अबूझमाड़ के अन्दरूनी क्षेत्रों जो चारों और से घने जंगलों, पहाड़ों से घिरे हुए गांवों में स्वास्थ्य कार्यकर्ता या कहे कि स्वास्थ्य योद्धा लोगों को कोरोना वायरस से बचाव की बातें तो बता ही रही है बल्कि वे मलेरिया की रोकथाम और नियंत्रण के लिए गरपा, होरादी, हांदावाड़ा, कुन्दला, बासिंग
आदि में गांववासियांे को मेडिकेट मच्छरदानी भी बांट रहे, और मलेरिया पॉजिटिव लोगों का स्लाइड बना रहे है। वहीं बीमारों को जरूरी दवाईयां और बच्चों और गर्भवती महिलाओं का टीकाकरण भी कर रहे है। सोशल डिस्टेंसिंग के नियम का भी पालन कर रहे है। ग्रामीणों को हाथ धोने और साफ-सफाई के साथ रहने सर्दी-खांसी बुखार होने पर सरपंच, सचिव या मितानिन स्वास्थ्य कार्यकर्ता को बताने की बात भी समझा रहे है। 
पुरूष और महिला दोनों स्वास्थ्यकर्ता अपने-कामों को बेहतर ढंग से कर रहे है। अपने कंधांे पर मच्छरदानी और मेडिकिट को उठाकर कई किलोमीटर पैदल चल कर ग्रामीणों के सेवा में लगे हुए है। इसके साथ ही उनके कंधों और हाथों में अपनी जरूरत का सामान भी लेकर चलना होता है। सममुच ये सब बहुत बधाई के पात्र है। जो मानवता की सेवा में पूरी जोशखरोश के साथ जुटे हुऐ है और अपने कर्तव्यों और दायित्वों का पालन कर रहे है। यह तस्वीरों से जाहिर होता है कि नक्सल प्रभावित इलाका, घने-जंगलों, पहाड़ों, नदी नालों के बीच दूरस्थ अंचलों में महिलाएं बिलकुल अकेली अपने साथी कर्मचारी के साथ दायित्वों को पूरा कर रही है। 
जाटलूर गांव की स्वास्थ्य अमले की नर्स कविता पात्र बताती है कि कोराना वायरस से बचाव और मलेरिया या टीकाकरण आदि के लिए घर से निकलती है तो कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। यह दूरी लगभग 30-35 किलोमीटर भी हो जाती है। रास्ते में ही आश्रम शालाओं में रूकना भी पढ़ता है। घर वापसी लगभग 3-4 दिन बाद ही होती है। लेकिन बच्चों और मरीजों के मासूम चेहरे सामने आते है तो सब कुछ छोड़कर उनकी जिन्दगी बचाने और ईलाजे करने के लिए जाना ही पड़ता है। यह हमारा कर्तव्य और दायित्व भी है। बतादें कि मलेरिया मुक्त बस्तर अभियान का लक्ष्य माह विगत फरवरी में ही शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल भी कर लिया गया था । मलेरिया मुक्त बस्तर अभियान की शुरूआत 15 जनवरी 2020 से शुरू हुई है ।
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