#NindakNiyre: कॉम्बिनेशन से नतीजे आते हैं, नतीजों से कॉम्बिनेशन नहीं बनता, गणित की तरह जोड़-घटाना सियासत में नहीं होता
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Barun Sakhajee, Associate Executive Editor, IBC24
बरुण सखाजी श्रीवास्तव, राजनीतिक विश्लेषक
(9009986179)
दिल्ली चुनाव-2025
आप- 22 सीटें, 41.57 फीसद वोट यानि 41 लाख 33 हजार 898 वोट
भाजपा- 48 सीटें, 45.56 फीसद वोट यानि 43 लाख 23 हजार 110 वोट
कांग्रेस- 0 सीटें, 6.34 फीसद वोट यानि 6 लाख एक हजार 922 वोट
जदयू- 0 सीटें, 1.06 फीसद वोट यानि 1 लाख 580 वोट
अन्य- 0 सीटें, 6.57 फीसद वोट यानि लगभग साढ़े 6 लाख वोट
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इन आंकड़ों को आपने देख ही लिया है। इससे समझ आता है भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच सीटों में अंतर दोगुना से ज्यादा है, लेकिन वोट प्रतिशत में फर्क 4 फीसद का है। इस अंतर को विधानसभा की टर्म में बड़ा अंतर माना जाता है और लोकसभा की टर्म में यह उससे भी बड़ा अंतर होता है। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2013 में भाजपा की सरकार महज 0.75 फीसद वोट के अंतर से थी, जिसमें सीटों का अंतर लगभग 13 था। इसी तरह से मध्यप्रदेश में 2018 में भाजपा के पास कांग्रेस की तुलना में वोट लगभग 1 फीसद ज्यादा थे, लेकिन सरकार कांग्रेस की बन गई थी।
अब समझते हैं मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं। दरअसल वोट फीसद चुनावी प्रक्रिया में एक अहम फिगर होता है, लेकिन इससे सरकार बनने या न बनने पर कोई असर नहीं पड़ता। हाल ही में एक चर्चा कुछ लोगों ने छेड़ रखी है। इसके मुताबिक कांग्रेस के 6.34 फीसद वोट आप को मिल जाते तो भाजपा नहीं जीत पाती। यह थ्यर्टिकल बात है। इसक व्यवहार से बहुत ज्यादा वास्ता नहीं है। ये लोग फिगर्स को सिर्फ गणित की तरह जोड़-घटाकर बात कर रहे हैं। लेकिन जब व्यवहार में यह फिगर जेनरेट होता है तो ये सारे गणित धरे रह जाते हैं। क्योंकि जो सामने आई संख्या होती है वह बने कॉम्बिनेशन का नतीजा होती है। इसे काल्पनिक कॉन्बिनेशन का नतीजा नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह नतीजा उस कॉम्बिनेशन के बाद ही निकलेगा।
एक और उदाहरण से समझिए। छत्तीसगढ़ में 2018 में भाजपा सिर्फ 15 सीटों पर सिमट गई। वोट परसेंट के मामले यह लगभग 33 फीसद पर आ गिरी। कांग्रेस 44 फीसद के साथ 67 सीटों पर जा पहुंची। यह चुनाव 2018 दिसंबर में हुए थे। सिर्फ 68 दिनों के अंदर इन विधानसभा सीटों का रिफ्लेक्शन लोकसभा 2019 में नहीं हुआ। 2019 में भाजपा ने 52 फीसद वोट और 9 सीटें जीती। मतलब बहुत साफ है। विधानसभा का कॉम्बिनेशन कांग्रेस के फेवर का था तो 2019 का कॉम्बिनेशन मोदी के फेवर का।
और आसानी से समझिए। किसी वस्तु का मूल्यांकन उस वस्तु के अंतिम स्वरूप पर निर्भर करता है। जैसे कि एक पड़ी लकड़ी का मूल्य लकड़ी के बराबर ही होगा, लेकिन जब उससे चमकता हुआ कोई फर्नीचर बन जाएगा तो उसका मूल्य अलग होगा। इससे यह नहीं कह सकते कि लकड़ी का मूल्य तब भी उतना होता जितना कि प्रोसेस होने के बाद हुआ।
अब फिर से दिल्ली पर आते हैं। दिल्ली में यह बात कही जा रही है कि कांग्रेस के 6.34 फीसद वोट आम आदमी पार्टी के 41.56 वोटों के साथ मिल जाते तो यह 47.90 हो जाते, जो कि भाजपा के 45.57 फीसद से 2.33 फीसद ज्यादा होते। बेशक अगर यह जोड़े जाएं तो यही फिगर निकलेगा और फिर जब 2.33 फीसद वोट का अंतर होगा तो सीटों में भी बड़ा अंतर होगा।
दरअसल, चुनावी फिगर्स को गणित की भाषा में इंटरप्रिट नहीं करना चाहिए। एक वोटर के मेंटल को समझने की आवश्यकता होती है। जैसे कांग्रेस को जिन 6 लाख लोगों ने वोट किया है, वे आप को भी देते, यह कहना ठीक नहीं। या इसके ठीक उलट जिन 41 लाख लोगों ने आप को वोट दिया वे कांग्रेस को भी देते, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक वोटर किसी पार्टी, प्रत्याशी के प्रति सिर्फ एक चुनाव चिन्ह, चेहरा देखकर इनक्लाइन नहीं होता। वह समेकित मूल्यांकन करता है। कांग्रेस का आधार दिल्ली में खत्म होने की ओर है। आम आदमी पार्टी का आधार बना हुआ है। भाजपा का आधार वापस आया है। असल में आधार के बाद बचे हुए फ्लोटिंग वोट से सरकारें बनती और गिरती हैं। अगर कोई पार्टी अपना आधार बनाए रखती है तो वह सरकार में आए या न आए, लेकिन विकल्प बनी रहती है। कांग्रेस दिल्ली में विकल्प भी नहीं है। अब यहां दो ही विकल्प हैं। एक भाजपा दूसरा आम आदमी पार्टी। यानि कुल पड़े वोट में से 86 लाख वोटर्स इन दोनों दलों के पास हैं। कांग्रेस के पास आए 6 लाख वोट आप के पास आते यह जरूरी नहीं। एक वोटर जब किसी दल को नहीं चुनना चाहता तो वह हर किसी को चुनेगा ऐसा नहीं होता। वह कई बार वोट न डालना भी चुन लेता है। दिल्ली में 53 हजार 738 लोगों ने यही किया। इन्होंने नोटा दबाया। इनका परसेंट 0.57 रहा। 5.53 फीसद वोटर जो अन्य को गए इन्हें भी अगर गिनेंगे तो ये उन वोटर्स में शुमार हैं जिन्हें भाजपा, आप, कांग्रेस और जदयू ने आकर्षित नहीं किया। ये जो वोट हैं जो किन्ही शीर्ष 4 दलों में नहीं आए उनकी संख्या लगभग साढ़े 6 लाख है। दिल्ली में 60.42 फीसद वोटिंग हुई। यानि लगभग एक करोड़ 5 लाख लोगों ने वोट डाले, यानि दिल्ली के डेढ़ करोड़ वोटर में से 45 लाख घर पर बैठे रहे। तो कोई ये कह सकता है कि ये 45 लाख वोट कांग्रेस वाले गठबंधन के साथ आ सकते थे। कतई नहीं, ये लोग वो हैं जिनमें से 25 लाख लोग कभी वोट डालते ही नहीं और बचे हुए 10 लाख ऐसे हैं जिन्हें आप ने निराश किया, कांग्रेस निराश पहले कर चुकी थी और भाजपा ने भी कोई खास उत्साहित नहीं किया। नतीजतन वे वोट डालने निकले ही नहीं।
फिर दोहरा रहा हूं, कॉम्बिनेशन का नतीजा होते हैं अंतिम रिजल्ट, रिजल्ट का नतीजा कॉम्बिनेशन नहीं होता। यानि सरल भाषा में कहें तो कॉम्बिनेशन से रिजल्ट तो बनते हैं, लेकिन रिजल्ट के हिसाब से कॉम्बिनेशन नहीं। कांग्रेस के नेतृत्व में अनौपाचारिक रूप से चर्चा में आए यूपीए के परिवर्धित गठबंधन के वोट नतीजों से नहीं गिने जा सकते, क्योंकि वोटर फिर अलग ढंग से तय करता। मेरे हिसाब से यह व्यर्थ का वनरोदन ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा होता ही नहीं है।
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