Lockdown diarie migrant labour with children left city to village for food in lockdown covid 19 corona up bank dlnh | delhi-ncr – News in Hindi

वहीं कुछ मजदूर ऐसे भी हैं जो गांव से अपने घरों को बेचकर शहर में आ गए और अब उनका कोई गांव नहीं है. कुछ ऐसे भी लोग हैं जो पहले अपने घरों में छोटे-मोटे काम करते थे लेकिन लॉकडाउन में उन्हें दूसरों के खेतों में मजदूरी करनी पड़ रही है. लॉकडाउन डायरीज में ऐसी ही एक महिला मिथलेश ने News18Hindi को अपनी कहानी बताई जो लॉकडाउन में पहली बार मजदूर बनी है.
आजमपुर को छोडकर रोजगार तलाशने आये छरौरा गांव
मिथलेश बताती हैं कि वे पहले आजमपुर में रहते थे लेकिन घर में छह बच्चे, देवर, जेठ और उनके बच्चों का बड़ा परिवार है. लॉकडाउन होने के 20 दिन तक किसी तरह रोजी रोटी चलती रही लेकिन फिर भूखे मरने की नौबत आ गयी. लिहाजा उन्होंने अपने दो बड़े बच्चों को घर पर छोड़ा और चार बच्चों और पति के साथ छरौरा गांव आ गए. यहां कई दिन तो काम मांगने में ही बीत गए. वे कहती हैं कि शहर को न छोड़ते तो भूखे मरते.इससे पहले कभी नहीं की मजदूरी न काटे खेत
मिथलेश बताती हैं कि वे अपने घर पायल की झलाई, मीनाकारी का काम करती थीं. उन्होनें न कभी खेतों में काम किया था और न ही घर से बाहर निकलकर कोई और काम किया था लेकिन कोरोना के कारण हुए लॉकडाउन में उन्हें घर से बेघर होना पड़ा. इतना ही नहीं उन्होंने पहले कई घरों के गेंहू काटे.जिसके एवज में उन्हें अनाज मिल गया. फिर गांव के लोगों से ही मांग करके उनके खेत पर एक झोपड़ी बना ली और उनके बाग की रखवाली करने लगे. वे कहती हैं कि ऐसा करने पर बहुत मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं. पति और बच्चे बीमार हो गए लेकिन बस इतना है कि भूखे नहीं मर रहे.
आंधी के बाद कई बार बना चुके झोपड़ी और सरसों की लकड़ियों का बिस्तर
वे कहती हैं, ‘अप्रैल से लेकर अभी तक कई बार आंधी और बारिश आ गयी. जिसमें रात रात में झोपड़ी उड़ गई, बाहर पड़ा सरसों की लकड़ियों का बनाया बिस्तर उखड़ गया.तेज बारिश में काम चलाने के लिए बनाया चूल्हा भी टूट गया. ऐसे में बच्चे डर के मारे चिपक जाते. हम सब रात रातभर भीगते रहते लेकिन फिर झोपड़ी बनाते, चूल्हा बनाते. बहुत संकट का समय है. ऐसे दुर्दिन पहले कभी नहीं देखे.’
तीन दिन बैंक के चक्कर काटकर भी नहीं मिले 500
मिथलेश ने बताया, ‘हमें कहीं से पता चला कि सरकार 500 रुपये खातों में डाल रही है. मेरा जनधन खाता है. इसलिए लॉकडाउन में पैदल चलकर मैं तीन दिन बैंक गयी लेकिन तीनों बार कुछ न कुछ कमी बताई और कई जगह जाने के लिए कहा. तीन दिन में मेरी मजदूरी भी मारी गयी. आखिरकार परेशान होकर मैं पैसा मांगने नहीं गयी और खेत पर काम करने चली गयी. जिसका अनाज मुझे मिल गया.’
मेरे जैसे कितने ही लोग हैं परेशान
मिथलेश कहती हैं,’ मेरी तरह न जाने कितने लोग हैं जो रोजी रोटी के लिए इधर से उधर भटक रहे हैं. हमने कभी रोटी मांगकर नहीं खाई तो अब भी कभी-कभी कुछ लोग खाना बांटने आते भी हैं तो मांग नहीं पा रहे. ये लोग 2-1 दिन खिला देंगे, फिर तो हमें ही इंतज़ाम करना है. जितना मिल रहा है मेहनत करके खा रहे हैं.
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