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लाखों का तमाशा बनकर जाज्वलदेव महोत्सव मठाधीशों व चाटुकारों ने आम लोगों से किया दूर जाज्वल्या का लगातार गिर रहा स्तर , आयोजन की समीक्षा व बदलाव की आवश्यकता

जांजगीर चाम्पा:मठाधीशों व दरबारियों व चाटुकारों के हाथों खेलता जाज्वलदेव लोक महोत्सव लाखों का ऐसा तमाशा बनकर रह गया जिसका वास्तविक उद्देश्य कोसों दूर रह गया। आयोजन की निरंतरता नितांत जरूरी है पर यह उद्देश्य परक तभी होगा जब यह ऐसे मठाधीशों के पंजो से मुक्त हो जिन्होंने 22 वर्षों तक इसे दुधारू गाय की तरह दुहा है। जाज्वल्या स्मारिका,मंच संचालकों और स्वयं को वन मेन आर्मी बताने वालों की जगह नए और युवा सोच को इस महोत्सव मेले की कमान सौंपे जाने की जरूरत है।
*बदल नहीं पाए जाज्वल्या का कलेवर*
इस महोत्सव में निकाली जाने वाली स्मारिका का ढोल बहुत पीटा जाता है परंतु इस वर्ष की स्मारिका *ऊंची दुकान की फीकी पकवान* जान पड़ती है । जिसे इस महोत्सव की थीम बताया जा रहा था उस मोटे अनाज व लघु धान्य फसल की बात उतनी ही है जितनी *ऊंट के मुँह में जीरा।*
घिसे पिटे लेख कोई नवाचारों की बात नही की गई है। लेखों का चयन बताता है कि *अंधा बांटे रेवड़ी अपन अपन ल दे* कलेवर से लेकर लेख संपादन सभी में एकरसता से लोग ऊब चुके हैं और सभी अब कुछ नया बदलाव देखना चाहते है। विमोचन के बाद स्मारिका बंट नहीं पाती व बाबुओं की आलमारी में सड़ते पड़ी रहते हैं । लापरवाही के आलम यहां तक है कि जाज्वल्या की पुरानी प्रतियां तक संरक्षित नहीं है। सूत्रों के अनुसार 15,16 साल पहले के अंक अंत मे कबाड़ कर रद्दी के भाव मे भेजे गए हैं। 100 प्रतियां विमोचन के दौरान भी नहीं बंटी?आखिर कितनी प्रतियां छपती है कितनी आम जनता को बाँटी जाती है ये शोध का विषय है

*बच्चे तरस गए एक सर्टिफिकेट मोमेंटो के लिए, फिल्मी कलाकारों को लाखों भुगतान* लोक महोत्सव में स्थानीय कलाकारों को प्रोत्साहन का दावा खोखला दिखता है बाहर से आये कलाकारों को लाखों का भुगतान ,महंगे होटलों में लजीज भोजन व रूम आने जाने के लिए किराया लक्जरी गाड़ियां मिलते हैं परन्तु स्कूली बच्चों के एक सर्टिफिकेट तक नही। 20-25 के ग्रुप में प्रस्तुति करने वाले स्कूली बच्चों को केवल एक सर्टिफिकेट थमाया जाता है। मानो वे टुकड़े टुकड़े में उसे बाँट लें।मोमेंटो भले ही अलमारियों में टूटते फुटते रहें पर बच्चो को नहीं देंगे।चंद कर्मचारियों के कब्जे में शाल श्रीफल व मोमेंटो व भोजन कूपन रहते हैं। बच्चों व शिक्षकों को दुत्कारा जाता है कार्यक्रम के नाम पर । जबकि ये निःशुल्क तीन दिनों तक इनके मंच को रिक्त होने से बचाते हैं स्थानीय कलाकारों का चयन भी एक रिटायर्ड डॉक्टर अपनी मनमर्जी से करते हैं जिन पर उनकी कृपा होगी उसे फीस वह मोटी भारी-भरकम रकम और जिन्हें में पसंद नहीं करते उन्हें एक कागज का टुकड़ा तक नहीं मिलता मोमेंटो तो दूर की बात है
यह मुद्दे भी हैं विचारणीय
न स्टालों को पुरस्कार न काम करने वालों को सराहना जी हुजूरी व कोर्निश बजाने वाले दरबारी हावी

मंच माला का मोह नहीं छूट रहा एक रिटायर्ड अधिकारी का । पहले डॉक्टरी छोड़ परिक्रमा में व्यस्त रहते थे अधिकारियों के अब सेवानिवृत्त होने के बावजूद दखल व अफसरी का फितूर खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। दुसरे व्यवसायिक सहायक शिक्षक व कवि साहित्यकार जिन्होंने शायद ही स्कूल में एक कक्षा नहीं ली हो पर आयोजन के बहाने अफसरों पर रुतबा झाड़ने से पीछे नहीं हटते ,केवल उद्धाटन समापन के मंच संचालक बनकर खुद की पीठ थपथपाते हैं,बाकी समय वरिष्ठों को भी सहायक बताकर शेखी पधारने की बड़ी चर्चा है कहा जा रहा है कि जाज्वल्या से लेकर सब कार्यो को लीड करने का ढोंग कोई कार्य ढंग से नहीं कर पाते

जो अधिकारी व आला अफसर, राजस्व अधिकारी 10 बजे तक आम जनता के उत्सव शादी में घुसकर डीजे लाउडस्पीकर बन्द कराते हैं परीक्षा के समय यहाँ रात 1 बजजे तक कार्यक्रमो को खुली छूट देकर खुद बैठकर उनको सुरक्षा देते रहे ।
*इन बदलावों की हो है आवश्यकता*
-लोक महोत्सव की तैयारी सतत हो इसके लिए साल में कम से कम 2 बार आयोजन समिति की बैठक हो तथा हर वर्ष विविधता पर नवीनता के साथ आयोजन हो ।
– हर वर्ष समिति में नागरिक क्षेत्र से नए लोगों को जोड़ा जाए व कुछ बदलाव किया जाए
-जाज्वल्या स्मारिका का स्तर ऊंचा उठाने के लिए आनन-फानन में कार्य करने के बजाए कम से कम 6 माह से इसकी तैयारी हो। सम्पादन टीम में नए विचारों के लोगो को शामिल किया जाए । खानापूर्ति न् हो
– लोक महोत्सव को सरकारी दायरे से बाहर आकर लोक का महोत्सव बनाया जाए इसमें शहर के जिले के गणमान्य लोगों को जोड़कर इसे व्यापक रूप दिया जाए और उनकी भूमिका विस्तृत की जाए दो चार घिसे पीटे लोगों के बूते आयोजन की कमान ना हो।

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