आश्रितों की कार्यसिद्धि ईश्वर का कार्य है-स्वामि: सदानन्द सरस्वती
आश्रितों की कार्यसिद्धि ईश्वर का कार्य है-स्वामि: सदानन्द सरस्वती
मध्यप्रदेश के परमहंसी गङ्गा आश्रम झोतेश्वर में चल रहे चातुर्मास में द्वारका शारदा मठ एवं ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम के द्वय पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामि: श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज के कृपापात्र शिष्य दण्डी स्वामि: सदानन्द सरस्वती ने आज के प्रवचन में श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया । स्वामि: जी ने कहा कि श्री कृष्ण की अद्भुत बाल लीलाओं को देखकर नंद यशोदा को आश्चर्य होता था । कृष्ण गौ चरण लीला करते हैं, कन्हैया से माता ने कहा तुम वन में गायों के पीछे पीछे विचरण करते हो, तुम्हारे क कोमल चरणों में कुछ कंटक लग जाते हैं अतः तुम चरणों में जूते पहनकर जाया करो । कृष्ण ने कहा जब मेरी गाय बिना जूती के वन में विचरण करती है तो मैं अपने पैरो में क्यों जूती पहनू । वन में गाय चराते समय कंस का भेजा हुआ धेनुकासुर नामक दैत्य कृष्ण को मारने आया, बलराम जी ने उसे पहचान कर उसे मार कर देश का उद्धार किया । कालीयादाह में कालिया नाग के विष के कारण जल विषैला हो रहा था, कृष्ण ने उस दाह से कालिया नाग को निकालकर रमणीक द्वीप भेजकर जल को शुद्ध किया । भगवान में विषमता और कठोरता नहीं है, पाप और पुण्य के फल स्वरुप सांसारिक सुखी और दुखी होते है । फलाभिसधिरहित आराधना से भगवान प्रसन्न होते हैं, चित्त की वासनाओं के हटते ही चित्त सुगंधित हो जाएगा । भगवान की पूजा बाहरी मनुष्य को अपने किए कर्म का फल स्वयं को भोगना होता है। कुछ पाने की इच्छा बांकी रहने से जिव की मृत्यु और पुनर्जन्म होता है । कृष्ण ने अपने पिता नंद जी से कहा हमारा धन गोधन है, जिसका पालन गोवर्धन के द्वारा होता है इसलिए हमें इंद्र कि नहीं गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए, अतएव सभी गोप ग्वालो के साथ इंद्र की पूजा के स्थान पर गोवर्धन पूजन कराया । यह देख कर इंद्र को क्रोध आया और उसने ब्रज को जलमग्न कर दिया, उस समय कृष्ण ने अपने बाएं हाथ की कनिष्ठा अंगुली पर गोवर्धन को उठाकर ब्रज वासियों की रक्षा की, भगवान ने सात दिवस तक गोवर्धन पर्वत को उठाए रखा और इंद्र के अभिमान का दमन किया। इंद्र को अपने अपराध का ज्ञान हुआ और वह कामधेनु गाय को आगे रखकर कृष्ण की शरण में आए और क्षमा प्रार्थना की । एरावत के द्वारा लाए आकाशगंगा के जल और कामधेनु के दूध से कृष्ण का अभिषेक किया, भगवान ने योगमाया का आश्रय लेकर गोपियों के साथ रास करने का मन बनाया, उनका मन वैसा नहीं था लेकिन गोपियों की इच्छा पूर्ति हेतु लीला की, सर्व ऐश्वर्य संपन्न होने पर भी भगवान ने रासलीला करने का मन बनाया । रास के लिए स्थान एवं वातावरण व्यवस्था की, बंसी बजाई मानो बंसी के स्वर से गोपियों का आवाहन किया, जो भगवान का आश्रय लेना चाहता है भगवान उसे अपना हाथ पकड़ा देते हैं । आश्रितों के कार्य की सिद्धि ईश्वर का कार्य है ,गोपी का अर्थ वृत्ति भी है।श्री कृष्णा आत्मा है, शरद पूर्णिमा का चंद्रमा पूर्ण विकसित था, चारों ओर चंद्रिका छिटकी थी कृष्ण के संकल्प से रास हेतु सारी सामग्री एकत्रित हो गई, क्लीबीज युक्त बंसी का सर शंकर गोपियां घर गृहस्ती के कार्य को छोड़कर बंसी की ध्वनि से आकर्षित होकर कृष्ण के पास पहुंच गई । बाल, युवती, विवाहित, अविवाहित, वृद्ध सारी गोपियां कृष्ण से विशुद्ध प्रेम करती थी, इसमें कहीं विकार नहीं है, जो हमारे दोसों का नाम ब्रह्म ज्ञान करा दे उसे उपनिषद कहते हैं ।भगवान ने गोपियों के साथ रास आरंभ किया, चारों और आनंद छा गया देवता, गंधर्व, अप्सरा, आकाश में विराजमान थे, बैठकर इस रास का दर्शन और आनंद पाने के लिए एकत्रित हो गए । दो दो गोपियों के बीच एक एक कृष्ण का रूप धारण किये हुये थे, राधोल्लास उमड़ने लगा वीणा, वेणु, मृदंग आदि अनेक वाद्यों की आवाज से आकाश गूंजने लगा । गोपियों के अंग आभूषण नुपुर, घुंघरू, वेणु, करधनी, कुंडल, कंकेण आदि आभूषण एक दूसरे से टकराकर झंकृत हो उठे । गोपियां कृष्ण को अपने साथ नृत्य करते देख गोपियों को अभिमान हो गया ,विचारने लगी कि अन्य स्त्रियों से हम श्रेष्ठ हैं इसीलिए कृष्ण हमसे अधिक प्रेम करते हैं, भगवान ने यह देख गोपियों के अभिमान को नष्ट करने के लिए अंतर्ध्यान हो गए । प्रेम मार्ग में अभिमान विघ्नकारक है ,अपने बीच से कृष्ण को अंतर्ध्यान देखकर वियोग में गोपियां व्याकुल होकर उन्हें खोजने लगी । वन की लताओं, वृक्षों ,पशु, पक्षी, तुलसी से बात कर कृष्ण के विषय में पूछने लगी, थक कर गोपियों ने बिरह होकर कृष्ण से प्रार्थना की, दिन होकर विलाप करने लगी , जो श्रीमद्भागवत में गोपी गीत के नाम से सुप्रसिद्ध है । गोपियों के विरह वेदना युक्त गीत को सुनकर कृष्णा प्रसन्न हो गए ,उन्होंने वहीं प्रकट हो गए और गोपियों के साथ आनंद परिहास किया। कालांतर में कंस ने अक्रूर को कृष्ण बलराम को धनुष यज्ञ के बहाने मथुरा में आमंत्रित किया और कृष्ण, बलराम को मारने के लिए कुबलयापीढ़ हाथी, चारुण,मुष्टिक,मल्ल और अपनी सेना के द्वारा मारने का प्रयास किया ,किंतु कृष्ण, बलराम ने इन सब का उद्धार किया ,फिर कृष्ण ने उछलकर जिस सिंहासन पर कंस बैठा था वहां पहुंचकर भूमि पर पटक दिया । कंस ने खड़क से कृष्ण को मारने का प्रयास किया किंतु कृष्ण ने तलवार छीन ली फिर कुछ समय तक कंस और कृष्ण का मल्लयुद्ध हुआ, कृष्ण ने मुष्टिप्रहार कर कंस का उद्धार किया। श्री कृष्ण ने आगे जरासंध से युद्ध किया और समुद्र से स्थान मांग कर विश्वकर्मा द्वारा द्वारकापुरी का निर्माण कराया, जो दिव्य इंद्रपुरी की तरह वैभव संपन्न थी रुक्म सुपुत्री रेवती से बलराम का विवाह हुआ, भीष्म की पुत्री रुक्मणी, रुक्मणी का भाई रुक्मणी का विवाह चेदि नरेश शिशुपाल से कराना चाहता था किंतु रुक्मणी ने कृष्ण का चरित्र सुनकर कृष्ण को पति के रूप में मन ही मन वरण कर लिया, रुक्मणी ने एक ब्राह्मण के द्वारा संदेश लेकर पहुंचाया, संदेश पाकर कृष्ण रुकमणी का हरण कर द्वारका ले आए और विधि विधान से धूमधाम से रुक्मणी के साथ विवाह किया ।
उक्ताशय की जानकारी पण्डित देव दत्त दुबे ने दी