*एक निश्चित लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करें -ज्योतिष*
यदि किसी विद्यार्थी के पास अनेक विकल्प हों, कि वह डॉक्टर भी बन सकता है, इंजीनियर भी, वकील भी, पायलट भी, दार्शनिक विद्वान भी। तो उसे यह देखना चाहिए, कि मेरी सबसे अधिक रुचि किस विषय में है? मेरी बुद्धि किस विषय में अधिक चलती है? मेरे पिता जी के पास धन आदि साधन कितने हैं, ताकि मैं उस प्रकार की योग्यता प्राप्त कर सकूं? इस प्रकार से उन अनेक विकल्पों में से, उसे एक विकल्प को चुन लेना चाहिए।” और जब एक विकल्प चुन लिया, कि “मुझे डॉक्टर बनना है।” तो फिर पूरी शक्ति उसी में लगानी चाहिए।”*
*फिर ऐसा नहीं करना चाहिए*, कि वह दूसरे विकल्पों पर भी सोचे, कि *”डॉक्टर बनने में तो मेहनत बहुत अधिक लगती है। इससे तो अच्छा होता, मैं इंजीनियर बनता, या मैं वकील बनता।”* अब ऐसा सोचना ठीक नहीं है। ऐसा करने से तो वह विद्यार्थी दिग्भ्रमित हो जाएगा, कंफ्यूज हो जाएगा। तब वह किसी भी क्षेत्र में पूरी मेहनत ठीक प्रकार से नहीं कर पाएगा और जीवन में असफल हो जाएगा।
*”जैसे कि उसने 1 साल डॉक्टरी की पढ़ाई की। फिर मन उस विषय से उखड़ गया। फिर 2 साल उसने वकालत में लगाए। उसमें भी उसका मन नहीं लगा। फिर विषय बदल दिया, और इंजीनियरिंग में आया। इस प्रकार से तो वह प्रत्येक क्षेत्र में असफल हो जाएगा।”*
*”इसलिए किसी भी क्षेत्र में बहुत सोच समझकर एक निर्णय लिया जाए, और फिर उसमें पूरी शक्ति लगाई जाए। तब व्यक्ति उस कार्य में सफल होगा और वह ठीक प्रकार से उन्नति करके अपना जीवन सुख से जिएगा।”*
*”यही नियम व्यापार आदि सभी क्षेत्रों में भी लागू होता है। अर्थात अनेक व्यापारों में से एक व्यापार चुन लिया जाए। कपड़े का, लकड़ी का, मिठाई का, अथवा किरयाने का। फिर जो एक चुन लिया, उसी में पूरी शक्ति लगाएं।”* ऐसा न करें कि *”एक व्यापार 2 साल चलाया। उसमें कुछ असफलता मिली, तो व्यापार बदल दिया। फिर दूसरा। फिर अगले साल तीसरा। यदि ऐसे करेंगे, तो किसी भी व्यापार में आपको सफलता नहीं मिलेगी। व्यापार में उतार-चढ़ाव तो आते रहते हैं। हानि लाभ तो होता रहता है। अगर व्यापार आरंभ में एक दो वर्ष अच्छा नहीं चला, तो यह न सोचें, कि “इसमें मेरा भविष्य उत्तम नहीं बनेगा।”* व्यापार की कला को और अच्छी प्रकार से सीखें। तथा 2 – 4 वर्ष पूर्ण परीक्षण करें। *”ईमानदारी बुद्धिमत्ता और पूरे परिश्रम से काम करें। इन तीन चीजों में कोई कमी कसर न छोड़ें। फिर देखिए आपको सफलता अवश्य मिलेगी।”*
*”और फिर जितनी मात्रा में भी सफलता मिले, उतने में संतोष का पालन करें, तभी आपका कल्याण होगा।” “संतोष का मतलब आलस्य नहीं है, कि आप चुपचाप बैठ जाएं, और ऐसा सोचें, कि “जो हमारी किस्मत में लिखा है, वह तो अपने आप मिल ही जाएगा। फ़ालतू चिंता करने और मेहनत करने से क्या फायदा?” ऐसा सोचना आलस्य और मूर्खता का लक्षण है। संतोष का सही अर्थ यह है, कि जितना फल मिला, उतने की खुशी मनाएं, उसका लाभ लेवें, और आगे भविष्य में फिर से मेहनत करें।”*
—– *ज्योतिष कुमार रायपुर।*