पंडरिया-अमेरा में आदिवासी समाज ने होली के अवसर पर किया डंडा नृत्यपंडरिया-अमेरा में आदिवासी समाज ने होली के अवसर पर किया डंडा नृत्य*
*पंडरिया-अमेरा में आदिवासी समाज ने होली के अवसर पर किया डंडा नृत्य
पण्डरिया क्षेत्र अंतर्गत आने वाली ग्राम अमेरा में छत्तीसगढ़ की संस्कृति का लोकनृत्य डंडा नृत्य में *समाजशास्त्र के रहे छात्र रवि मानिकपुरी हुए शामिल।*
आदिवासी समाज के वरिष्टगढ़, व कर रहे नृतकों से चर्चा के दौरान डंडा नृत्य के बारे में जानकारी मिली की होली के अवसर पर यह नृत्य किया जाता है।
हमारे पण्डरिया क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली पर्वतीय क्षेत्र में बहुत से नृत्य संस्कृति कला विद्यमान है जो एक ग्राम तक ही प्रचलित होकर सिमट रही है जिसका संरक्षण आज के इस आधुनिक युग में करना बहुत ही अनिवार्य हैं।
पण्डरिया का अधिकांश क्षेत्र पर्वतीय और पहाड़ी है,जिसके कारण और यहाँ की बस्तियां विकीर्ण हैं।
डंडा नृत्य छत्तीसगढ़ राज्य का लोकनृत्य है।
इस नृत्य को ‘सैला नृत्य’ भी कहा जाता है। यह पुरुषों का सर्वाधिक कलात्मक और समूह वाला नृत्य है। डंडा नृत्य में ताल का विशेष महत्व होता है। डंडों की मार से ताल उत्पन्न होता है। यही कारण है कि इस नृत्य को मैदानी भाग में ‘डंडा नृत्य’ और पर्वती भाग में ‘सैला नृत्य’ कहा जाता है। ‘सैला’ शैल का बदला हुआ रूप है, जिसका अर्थ ‘पर्वतीय प्रदेश’ से किया जाता है।
डंडा नृत्य करने वाले समूह में 46 से लेकर 50 या फिर 60 तक सम संख्या में नर्तक होते हैं। ये नर्तक घुटने से उपर तक धोती-कुर्ता और जेकेट पहनते हैं। इसके साथ ही ये लोग गोंदा की माला से लिपटी हुई पगड़ी भी सिर पर बाँधकर धारण करते हैं। इसमें मोर के पंख की कडियों का झूल होता है। इनमें से कई नर्तकों के द्वारा ‘रूपिया’, सुताइल, बहुंटा, चूरा, और पाँव में घुंघरू आदि पहने जाते हैं। आँख में काजल, माथे पर तिलक और पान से रंगे हुए ओंठ होते हैं।
एक कुहकी देने वाला, जिससे नृत्य की गति और ताल बदलता है; एक मांदर बजाने वाला और दो-तीन झांझ-मंजीरा बजाने वाले भी होते हैं। बाकी बचे हुए नर्तक इनके चारों ओर वृत्ताकार रूप में नाचते हैं। नर्तकों के हाथ में एक या दो डंडे होते हैं। नृत्य के प्रथम चरण में ताल मिलाया जाता है। दूसरा चरण में कुहका देने पर नृत्य चालन और उसी के साथ गायन होता है। नर्तक एक दूसरे के डंडे पर डंडे से चोंट करते हैं। कभी उचकते हुए, कभी नीचे झुककर और अगल-बगल को क्रम से डंडा देते हुए, झूम-झूमकर फैलते-सिकुड़ते वृत्तों में त्रिकोण, चतु कोण और षटकोण की रचना करते हुए नृत्य किया जाता है। डंडे की समवेत ध्वनि से एक शोरगुल भरा दृश्य उपस्थित होता है। नृत्य के आरंभ में ठाकुर देव की वंदना फिर माँ सरस्वती, गणेश और राम-कृष्ण के उपर गीत गाए जाते हैं।
‘पहिली डंडा ठोकबो रे भाई, काकर लेबो नाम रे ज़ोर,
गावे गउंटिया ठाकुर देवता, जेकर लेबो नाम रे ज़ोर।
आगे सुमिरो गुरु आपन ला, दूजे सुमिरों राम ज़ोर,
माता-पिता अब आपन सुमिरों गुरु के सुमिरों नाम रे ज़ोर।’
डंडा नृत्य कार्तिक माह से फाल्गुन माह तक होता है। पौष पूर्णिमा यानी की छेरछेरा के दिन मैदानी भाग में इसका समापन होता है।
*सुप्रसिद्ध साहित्यकार पंडित मुकुटधर पाण्डेय* ने इस नृत्य को छत्तीसगढ का रास कहकर सम्बोधित किया है।