मेहनत का फल
एक दिन विंध्याचल प्रदेश के राजा के दरबार में तीन व्यापारी आए और राजा से बाले, महाराज! हम रत्नों के व्यापारी हैं, व्यापार के लिए आपके राज्य में आ रहे थे कि रास्ते में डाकुओं ने हमें लूट लिया। हमारे पास भोजन लायक भी पैसा नहीं हैं, आप कुछ सहायता करें।
व्यापारियों ने सोचा कि राजा उनकी धन से करेंगे परन्तु उनकी बातें ध्यान से सुनने के बाद राजा ने उन्हें एक-एक बोरी गेहूं देने का आदेश दिया। जब व्यापारी गेहूं लेकर जाने लगे तो राजा ने कहा, तुम्हारे रत्न इस राज्य की सीमा के भीतर लूटे हैं। यह अन्न इसी राज्य की भूमि से उपजा है। इससे तुम्हारा भरण-पोषण होगा। लेकिन इस गेहूं को तुम खुद ही साफ करना और खुद ही खाना। न किसी को देना, न किसी की मदद लेना। जाओ, एक महीने बाद आकर हमसे मिलना।
व्यापारी चले गये। उनमें से दो व्यापारी थे। उन्होंने बोरे से थोड़ा गेहूं लिया, उसे साफ किया और बाकी बोरी सहित चक्की वाले को बेच दिया । तीसरा व्यापारी ईमानदार और कठिन परिश्रम करने वाला था, वह सारा गेहूं निकाल कर उसे साफ करने लगा। जब वह खाली बोरी झोड़ रहा था, तभी उसमें से एक पत्थर गिरा। व्यापारी चौंक पड़ा, वह अनगढ़ हीरा था। जौहरी ने उसे तराशने के लिए रख लिया।
निश्चित दिन तीनों व्यापारी फिर राजा के दरबार में पहुँचे। राजा ने उनसे हालचाल पूछा। दो व्यापारी खाली हाथ थे, उन्होंने बताया कि उनका गेहूं खत्म हो गया है, अब और चाहिए ताकि पेट भर सकें। जब तीसरे व्यापारी से उनका हालचाल पूछा, तो उसने राजा को प्रणाम कर अपना तराशा हुआ हीरा भेंट किया।
राजा मुस्करा कर बोला, यह तुम्हारी मेहनत का फल है, यह तुम्हारा ही है, इसे बेच कर जो धन मिले, उससे शुरू करो । फिर दूसरे व्यापारियों को देखकर बोला, ऐसा रत्न तुम्हारी बोरियों में भी था, लेकिन तुमने मेहनत ही नहीं किया।