1926 के पूरे सालभर गांधी जी ने साबरमती और वर्धा-आश्रम में विश्राम किया। उसके बाद वे देश भर में भ्रमण के लिए निकल पड़े जिसका मुख्य उद्देश्य था- खादी चरखा का विस्तार, अस्पृश्यता निवारण, हिंदू मुस्लिम एकता ।
बात सन् 1927 के आरम्भ की है। महाराष्ट्र मे एक दिन उनसे अनुरोध किया गया कि वे हनुमान जी की प्राण प्रतिष्ठा करें। विद्यार्थी गांधीजी को परम प्रिय थे। वे कोई भी ऐसा मौका नहीं चूकते थे जिससे कि देश की नयी पौध संस्कारवान, चरित्रवान, संयमी, स्वस्थ और सबल बनकर दीन-दरिद्र देश को ऊपर उठायें।
श्रीहनुमान की प्रतिष्ठा के उपरान्त गांधी जी बोले- ‘बच्चों तुम जानते हो मारुति को? मारुतसुत हनुमान कौन थे? वे थे वायुपुत्र। इन हनुमान की प्रतिष्ठा हम क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वे वीर योद्धा थे! क्या इसलिए कि उनमें अतुल शरीर-बल था? उनके जैसा शरीर हमे भी चाहिए। पर केवल शरीरबल हमारा आदर्श नहीं होना चाहिए। यदि शरीर बल ही हमारा आदर्श होता तो हम रावण की मूर्ति की स्थापना न करते ।
पर हम रावण के बदले हनुमान की मूर्ति की स्थापना किसलिए करते हैं! इसीलिए कि हनुमान जी का शरीर-बल आत्मबल से सम्पन्न था। श्रीराम के प्रति हनुमान जी का जो अनन्न प्रेम था, उसी का फल था यह आत्मबल।
इसी आत्मबल की हम प्रतिष्ठा करते हैं। आज हमने पत्थर की नहीं, भावना की प्रतिष्ठा की है। हम चाहते हैं कि आत्मबल की इसी भावना को आदर्श बना कर हम भी हनुमान बनें। भगवान हमें हनुमान सा शरीरबल दें। भगवान हमें हनुमान सा आत्मबल दें। भगवान हमें इसी आत्मबल की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य पालन का बल दें।’
इसी प्रसंग की चर्चा करते हुए गांधी जी ने बाद में एक दिन कहा- हम हनुमान दर्शन किसलिए करते हैं? हनुमान कौन थे? बंदर थे या क्या थे, मैं नहीं जानता। मैं तो उनकी शक्ति की, उनकी सेवा-भावना की पूजा करता हूँ। हनुमान राक्षस नहीं थे। वे मेघनाद की तरह श्रीराम के विरोधी भी नहीं थे। श्रीराम के सेवक थे। ब्रह्मचारी थे। उनमें अपार आत्मबल भरा था। उनमें सेवा की अपार भावना थी। उसी की मैं पूजा करता हूँ। हमें आवश्यकता है इसी आत्मबल और सेवा भावना की। इसी आत्मबल से भारतमाता की सेवा करें।
और एक दिन दरिद्र-नारायण की सेवा के लिए बेचैन गांधी जी बोले- मेरे हृदय में कैसी आग जल रही है, आपको पता है? हनुमान जी को एक माला मिली थी। उसके दाने तोड़-तोड़ कर वे देखने लगे। लोगों ने पूछा-‘क्यों करते हो ऐसा?’
बोले-‘देखता हूँ, इनमें श्रीराम-नाम है क्या? मुझे ऐसी कोई चीज नहीं चाहिए, जिसमें श्रीराम न हो।’
‘सबमें श्रीराम-नाम होता है क्या?’
‘मुझमें तो है?’-ऐसा कहते हुए हनुमान ने अपनी छाती चीरकर दिखा दी। श्रीराम तो वहां विराजमान थे ही।
गांधी जी बोले-मुझमें हनुमान जैसी शक्ति तो नहीं है कि मैं आपको छाती फाड़कर दिखा सकूं। किंतु आपकी तबीयत हो तो आप छूरी से मेरी छाती चीरकर देख लें, उसके भीतर आपको श्रीराम नाम ही मिलेगा।
बात आयी, गयी हो गयी। एक-दो नहीं, बीस-इक्कीस साल बीत गये।
जिस दिन गांधी जी की छाती में गोली लगी तो वह सत्य सबके आगे प्रकट हो गया।
- गोली लगते ही उनके मुख से निकला ‘राम’ !
1926 के पूरे सालभर गांधी जी ने साबरमती और वर्धा-आश्रम में विश्राम किया। उसके बाद वे देश भर में भ्रमण के लिए निकल पड़े जिसका मुख्य उद्देश्य था- खादी चरखा का विस्तार, अस्पृश्यता निवारण, हिंदू मुस्लिम एकता ।
बात सन् 1927 के आरम्भ की है। महाराष्ट्र मे एक दिन उनसे अनुरोध किया गया कि वे हनुमान जी की प्राण प्रतिष्ठा करें। विद्यार्थी गांधीजी को परम प्रिय थे। वे कोई भी ऐसा मौका नहीं चूकते थे जिससे कि देश की नयी पौध संस्कारवान, चरित्रवान, संयमी, स्वस्थ और सबल बनकर दीन-दरिद्र देश को ऊपर उठायें।
श्रीहनुमान की प्रतिष्ठा के उपरान्त गांधी जी बोले- ‘बच्चों तुम जानते हो मारुति को? मारुतसुत हनुमान कौन थे? वे थे वायुपुत्र। इन हनुमान की प्रतिष्ठा हम क्यों करते हैं? क्या इसलिए कि वे वीर योद्धा थे! क्या इसलिए कि उनमें अतुल शरीर-बल था? उनके जैसा शरीर हमे भी चाहिए। पर केवल शरीरबल हमारा आदर्श नहीं होना चाहिए। यदि शरीर बल ही हमारा आदर्श होता तो हम रावण की मूर्ति की स्थापना न करते ।
पर हम रावण के बदले हनुमान की मूर्ति की स्थापना किसलिए करते हैं! इसीलिए कि हनुमान जी का शरीर-बल आत्मबल से सम्पन्न था। श्रीराम के प्रति हनुमान जी का जो अनन्न प्रेम था, उसी का फल था यह आत्मबल।
इसी आत्मबल की हम प्रतिष्ठा करते हैं। आज हमने पत्थर की नहीं, भावना की प्रतिष्ठा की है। हम चाहते हैं कि आत्मबल की इसी भावना को आदर्श बना कर हम भी हनुमान बनें। भगवान हमें हनुमान सा शरीरबल दें। भगवान हमें हनुमान सा आत्मबल दें। भगवान हमें इसी आत्मबल की प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य पालन का बल दें।’
इसी प्रसंग की चर्चा करते हुए गांधी जी ने बाद में एक दिन कहा- हम हनुमान दर्शन किसलिए करते हैं? हनुमान कौन थे? बंदर थे या क्या थे, मैं नहीं जानता। मैं तो उनकी शक्ति की, उनकी सेवा-भावना की पूजा करता हूँ। हनुमान राक्षस नहीं थे। वे मेघनाद की तरह श्रीराम के विरोधी भी नहीं थे। श्रीराम के सेवक थे। ब्रह्मचारी थे। उनमें अपार आत्मबल भरा था। उनमें सेवा की अपार भावना थी। उसी की मैं पूजा करता हूँ। हमें आवश्यकता है इसी आत्मबल और सेवा भावना की। इसी आत्मबल से भारतमाता की सेवा करें।
और एक दिन दरिद्र-नारायण की सेवा के लिए बेचैन गांधी जी बोले- मेरे हृदय में कैसी आग जल रही है, आपको पता है? हनुमान जी को एक माला मिली थी। उसके दाने तोड़-तोड़ कर वे देखने लगे। लोगों ने पूछा-‘क्यों करते हो ऐसा?’
बोले-‘देखता हूँ, इनमें श्रीराम-नाम है क्या? मुझे ऐसी कोई चीज नहीं चाहिए, जिसमें श्रीराम न हो।’
‘सबमें श्रीराम-नाम होता है क्या?’
‘मुझमें तो है?’-ऐसा कहते हुए हनुमान ने अपनी छाती चीरकर दिखा दी। श्रीराम तो वहां विराजमान थे ही।
गांधी जी बोले-मुझमें हनुमान जैसी शक्ति तो नहीं है कि मैं आपको छाती फाड़कर दिखा सकूं। किंतु आपकी तबीयत हो तो आप छूरी से मेरी छाती चीरकर देख लें, उसके भीतर आपको श्रीराम नाम ही मिलेगा।
बात आयी, गयी हो गयी। एक-दो नहीं, बीस-इक्कीस साल बीत गये।
जिस दिन गांधी जी की छाती में गोली लगी तो वह सत्य सबके आगे प्रकट हो गया।