अनजाने पाप

एक गांव में कपिल वर्मा नाम का व्यक्ति रहता था । एक दिन कपिल वर्मा धीरे-धीरे सड़क पार कर रहे थे, चारों तरफ इतनी भीड़ थी कि सड़क पार करना कठिन था आज वर्मा जी को बहुत समय बाद इस क्षेत्र में आना हुआ था।
शौरूम में कदम रखते ही, सभी कर्मचारियों की निगाहें उनकी तरफ उठ गई। शौरूम के मालिक मोहन अपनी कुर्सी से उठकर उनके स्वागत के लिए आगे बढ़ गए। वर्मा जी एक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। समाज में लोग उनको एक ईमानदार समाज सुधारक के रूप में जानते हैं। मोहन ने एक कुर्सी वर्मा जी के बैठने के लिए आगे बढ़ा दी।
वर्मा जी ने चाय की चुश्कियाँ लेते हुए मोहन से पूछा, “मोहन कैसे हो?” जी ठीक हूँ। “अरे आज अजय दिखाई न हीं दे रहा”। हाँ आपने अजय की अच्छी याद दिलाई। अजय की वजह से तो मैं कई बार संकट में पड़ गया। कोई बात कहाँ करनी है, नहीं करनी है, अजय को इसकी समझ नहीं है। जिससे कई बार बहुत बड़ी समस्या में, मैं घिर जााता हूँ। ऐसे कई व्यक्ति होते हैं जो अपने व्यक्तित्व को हर जगह उजागर करने के चक्कर में संकट पैदा कर देते हैं। वैसे अजय की अच्छाईयों के आगे ऐसी कुछ बातें लुप्त हो जाती हैं।
वर्मा जी, आपने एक बार किसी अनजाने पाप के बारे में कुछ जिक्र किया था। यह अनजाने पाप क्या हैं कोई नावल है या कथानक है या किसी रचना का कोई निचोड़ है।
“मोहन, अभी तो मैं इस सम्बन्ध में कुछ ज्यादा नहीं कह सकता हूँ परन्तु हाँ जब मैं इस तथ्य को समझ लूंगा तो तुम्हें ही सबसे पहले बताऊँगा।” मोहन मैं समाज को “अनजाने” पाप के पात्रों के माध्यम से यह संदेश देना चाहता हूँ कि हम अपनी रोज-मर्राह की जिन्दगी में कुछ ऐसे कार्य कर जाते हैं जो दूसरों को कष्ट देते हैं। यदि हम थोड़ा सा प्रयास करें तो दूसरों को दिए जाने वाले दर्द कम या समाप्त किया जा सकता है।
मोहन सोचने लगा कि हमारी जिन्दगी में प्रतिदिन न जाने कितने अनजाने पाप होते रहते हैं, हमें दिखाई नहीं पड़ते, हम समझ नहीं पाते। अभी थोड़ी देर पहले ही मैं वर्मा जी को अजय का दुखड़ा बयान कर रहा था। मेरी नज़र में अजय की इस आदत से कइयों को नुकसान भी हो जाता है और कभी-कभी बहुत भारी तनाव भी सहना पड़ता है। सबसे ज्यादा पीड़ा ऐसे केसों में तनाव झेलने की है।
अजय जैसे कितने शालीन पुरुष एवं कितनी महिलायें इस अनजाने पाप से ग्रस्त हैं। है क्या कोई मामूली सी बात जो हमें पता चली और वो अगर हमने जानते हुए भी उस व्यक्ति को बता दी जो कि बताने वाले का विरोधी है। तो होगा क्या दोनों पक्षों में लड़ाई हो जाएगी और यह भी हो सकता है दुश्मनी बढ़ जाए। “इसे कहते हैे आग में घी डालना”। वर्मा जी मोहन को समझाते हुए बता रहे हैं कि जाने-अनजाने में अजय की तरह ही हम भी कभी-कभी ऐसा कर बैठते हैं। यह कोई बड़ी बात नहीं है। पाप तो हो ही गया, नुकसान भी हुआ वो कैसे, वो इस तरह कि उन पक्षों में तो तनाव बढ़ा और इस तरह अजय ने दूसरे को तनाव देकर अनजान पाप किया। क्या आप भी मेरी बात से सहमत हैं।
मथुरा-वृन्दावन संघ की बैठक होने जा रही थी। भाई साहब जी डी. राय जो कि इस संघ के संस्थापक एवं चेयरमेन भी हैं, आज की बैठक की अध्यक्षता कर रहे हैं। कपिल वर्मा जी को भी इस बैठक में विशेष रूप में आमन्त्रित किया गया है। संघ के महासचिव श्री मोहन जी भी 10 मिनट देर से अपनी आदत के अनुसार पहुँच ही गए थे। अभी हाल ही में भाई साहब के बहुत करीब आए भी आर.के. चोहान जो कि सहायक सचिव बनाए गए थे, का आगमन हुआ। आजकल जो भी कार्य मीटिंग में तय होते हैं, वो सारे के सारे श्री चोहान जी को सौंप दिए जाते हैं और मोहन जी को भाई साहब के संघ से सम्बन्धित सारे कार्य स्वयं करने की इच्छा रहती है और प्रयास भी करते हैं परन्तु पारिवारिक परिस्थिति के कारण मोहन उन कार्यों को समय पर आजकल पूरा नहीं कर पा रहे थे या भाई साहब की इच्छा के अनुसार नहीं हो पा रहा थाा। परन्तु मोहन को चोहान जी से इस कारण कुछ दिन ईष्र्या हुई कि जो स्थान भाई साहब के हृदय में था वो अब स्थान चोहान जी ने ले लिया है। अरे वर्मा जी भी आए हुए हैं। मोहन उन्हें बहुत सम्मान देता है।
मोहन ने कहा आपके ‘अनजाने पाप’ में एक और किस्सा बताना चाहता हूँ जब तक अन्य सदस्य आये तब तक एक-एक कप चाय ले लेते हैं। मोहन, वर्मा जी के लिए चाय ले आये और चाय पीते-पीते, मोहन ने सारा किस्सा वर्मा जी को बयान कर दिया। वर्मा जी कहने लगे, “एक ऐसी ईष्र्या जो अच्छे कार्यों के लिए थी, वो हमारी नज़रों में तो पाप नहीं है परन्तु चित्रगुप्त जी के दरबार में ‘अनजाने पाप’ की तरह रिकार्ड हो गई होगी।” चर्चा को जारी रखते हुए मोहन ने कहा, “वर्मा जी अब मेरे दिल में वो नासमझी समाप्त हो गई है। आप से चर्चा करते हुए ही मुझे ईश्वर की अनुभूति हुई और मुझे लगा कि जो कुछ मैं गलत भाव मन में लाए अब समाप्त हो गए। चलिए वर्मा जी बैठक आरम्भ हो रही है।”
वर्मा जी ने मोहन को समझाते हुए कहा कि देखो मोहन, मैं समझता हूँ, इसमें कहीं भूल भाई साहब से भी हुई है क्योंकि वो बहुत ही निर्मल स्वभाव के हैं और बहुत जल्दी ही किसी भी करीबी व्यक्ति से भावुकता में बहकर, ऐसे निर्णय बिना दूसरे को बताए ले लेते हैं जैसा कि इससे एक बार पहले भी घटित हो चुका है। याद है तुम्हें उस बैठक में भी मुझे आप लोगों ने आमन्त्रित किया था और ऐसे ही श्री शेरावत को अचानक बिना किसी पूर्व भूमिका के भाई साहब ने कार्यकारिणी में स्थान दे दिया था अब तुम दोनों घटनाओं का विश्लेषण करो तो पाओगे कि तुम्हारी तरफ से दो बार गलती हुई और वो भी बड़ी गलती की वैसे ही भाई साहब ने छोटी गलती की। यदि तुम चाहते तो तुम भी अपने स्वभाव में और सोचने के ढंग में परिवर्तन कर, दौबारा अपने मन को दूषित नहीं करते परन्तु ऐसा हुआ नहीं। मैं इसलिए इस तथ्य को बढ़ा रहा हूँ क्योंकि भाई साहब के अथाह प्रेम के कारण ही तुम बार-बार “अनजाने पाप” करते हो।
ऐसा ही संसर में होता रहता है जिससे ज्यादा लगाव होता है। हम अपने निजी सोच पर भी अंकुश लगााने की कोशिश करते हैं। जरा सोचिए यह कहाँ तक उचित है। क्यों होता है ऐसा क्योंकि मनुष्य जिसके प्रति भी बहुत आस्था, विश्वास एवं प्रेम रखता है तो वो चाहता है कि सारा दुलार उसी के खाते में जाए, किसी ओर के खाते में नहीं जाए। जैसे एक माँ के कई छोटे-छोटे बच्चे हों तो भी माँ की निकटता पाने की होड़ बच्चों में रहती है, ऐसी ही ईष्र्या जो भाई बहनों में आपस में है, वैसी ही स्थिति मेरी हो गई थी। वर्मा जी आज जब मैं आपको बैठक आरम्भ होने से पहले की घटना सुनाई थी तब भी मेरी स्थिति वैसी ही हो गई थी परन्तु आत्मचिंतन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि प्यार देने वाले का प्यार लेना चाहिए बस, जितना मेरे हिस्से में होगा उतना तो मिल ही जाएगा। ईष्र्या अनजाने पाप का एक बहुत बड़ा रूप है।
श्रीधर जो मोहन के सहायक एवं दाहिने हाथ भी थे। हर काय्र में मोहन श्रीधर की राय जरूर लेता था। श्रीधर की अनेकानेक अच्छी आदतों में एक आदत ऐसी थी जिसकी वजह से मोहन को तनाव हो जाता था। उस दिन मोहन सोचने लगा, वर्मा जी के “अनजाने पाप” की व्यख्या में क्या श्रीधर की आदत भी आती है? मोहन अचानक सपनों मे खो गया।
कोई छोटी गलती भी यदि हो जाती तो श्रीधर को अजीब किस्म का तनाव हो जाता क्योंकि श्रीधर को यह सुनना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि कोई यह कहे कि श्रीधर ने कोई गलती कर दी। श्रीधर को उत्पन्न तनाव काफी दिनों तक चलता है और उसका प्रभाव मोहन के कामकाज पर पड़ता है। परन्तु श्रीधर को इसका एहसास तो होता नहीं अपितु काफी दिनों तक तनाव चलता ही रहता।
मोहन ने कहा श्रीधर को, आपने यह क्या कर दिया इतनी बड़ी गलती हो गई। बस इतना सुनते ही श्रीधर तुरन्त तनाव में आ जाते हैं। मेरी कोई गलती नहीं है। उनको लगता है कि मैं जो भी करता हूँ वो कभी गलत नहीं होता है। अनेकानेक अच्छाईयों के होते हुए भी अपने अन्दर समाए हुए अहम् भाव के कारण भी अनजाने पाप हो जाते हैं। हमारे अन्दर कुछ ऐसे भाव जो जन्म से होते हैं जिन्हें समाप्त करना तो कदाचित मुश्किल होता है परन्तु उन भावों को कुछ कम करने का प्रयास करने से, होने वाले अनजाने पापों को कुछ कम किया जा सकता है।
किसी व्यापारी ने मुझे दीपावली के अवसर पर घड़ी दी मेरे पास पहले से घड़ी थी। क्योंकि मैं श्रीधर से बहुत लगाव रखता हूँ, अतः मैंने मन में सोचा यह घड़ी श्रीधर को दे दूँ। अगली सुबह जब मैं काम पर पहुँचा तो मैं यह बताना चाहता था कि मुझे जो उस व्यापारी ने घड़ी दी है वो मैं श्रीधर को देना चाहता हूँ परन्तु मेरे कहने से पहले ही मैंने देखा आज श्रीधर हुबहु वही घड़ी पहन कर आये हैं। मुझे समझते देर नहीं लगी कि उस व्यापारी ने वैसे ही दो घड़ियाँ ली होगी। मैं स्तब्ध रह गया क्योंकि मुझे यह बात पहली बार बतायी नहीं गई थी। मेरे मन में ठेस पहुँची, वर्मा जी, आप समझ सकते हैं, मोहन ने कहा।
हालांकि मोहन यह श्रीधर की निगाह में कोई गलती नहीं है परन्तु आज तब जब सबकुछ बताया जा रहा था तो 100-150 रुपए की घड़ी इतने उच्च विचारों के श्रीधर को क्यों अनजाने पाप की तरफ ले गई। वर्मा जी ने अपनी बात पूरी की। अच्छा भई मोहन आज अब चला जाये। नहीं वर्मा जी, इस प्रकरण पर तो आपने अभी प्रकाश डाला ही नहीं।
अरे मोहन, देखा, कभी-कभी कोई छोटी वस्तु, भी हमें इतनी पसन्द आ जाती है कि हम, अपने नज़रिये मे थोड़ा बहुत बदलाव ले आते हैं। ये तो अच्छा है कि तुम श्रीधर की अच्छाईयों को ही महत्व देते हो, इससे तुम्हारे पक्ष पर तो कोई बात नहीं आती। हाँ अनजाने में श्रीधर से एक बहुत बड़ा ”अनजाना पाप“ हो गया और यह भी हो सकता है श्रीधर को इस बात का अहसास भी न हुआ हो कि यह भी कोई गलती थी।
“मोहन”-“मोहन” पीछे से कोई जोर से पुकार रहा है, मोहन अपने पड़ोसी राधेश्याम के साथ बातों मे इतने तल्लीन थे कि फिर दोबारा जब कपिल वर्मा जी की आवाज़ उसके कानों में गई तो मोहन ने उन्हें दूर से ही नमस्कार किया। वर्मा जी के समीप आ जाने पर, मोहन अपनी बातचीत के क्रम को मध्य में ही छोड़कर वर्मा जी के शोरूम में ले गया।
जैसा कि वर्मा जी की आदत है वो मोहन से मिलने वाले हर किरदार के बारे में पूरी गहराई से जानना जरूरी समझते हैं। अतः जब चाय आ गई तो उन्होंने पूछा भई आज किससे चर्चा कर रहे थे। मोहन–“अरे वर्मा जी, ये सज्जन हमारे पड़ोस में ही अपना कारोबार करते हैं, नाम है इनका राधेश्याम, दिल के बुरे नहीं हैं परन्तु बातें इनसे जितनी मर्जी करवा लो पर पैसे खर्चे की बात पर पीछे हट जाते हैं। जहाँ कहीं जरूरी होता है वहाँ तो मैं अपनी तरफ से प्रार्थना करके समायोजित करा देता हूँ परन्तु कहीं बहुत जरूरी होता है तो भी ये पीछे हट जाते हैं जिससे दूसरे लोग इस बात पर, कभी-कभी मुझसे नाराज़ हो जाते हैं”।
इनकी रूचि दूसरों की अंदरूनी बातों मे ज्यादा है जिससे व्यर्था की बातों में समय लगता है। मुझे लगता है कि राधेश्याम जी को समझ आ जाए ताो अनेकानेक अनजाने पापों से इन्हें मुक्ति मिल सकती है।
मेरे साथ इनके सम्बन्ध बहुत अच्छे हैं परन्तु ढेर सारे सामाजिक कार्य इनकी असहमति के कारण अपूर्ण रह गए हैं। न जाने किस वेश में नारायण मिल जाए और आजकल मैं इसी आशा में हूँ कि राधेश्याम जी में छुपी अच्छाई ही हमारे रूके हुए कार्यों को इन्हीं के हाथों से पूर्ण करा दें।
कभी-कभी हमें द्वेश, ईष्र्या, लोभ, अहंकार इत्यादि जैसी मौजूदा बुराईयाँ, इतना घेर लेती हैं कि हम अनेकानेक “अनजाने पापों” को करते जाते हैं।
वर्मा जी ने अपनी बात जारी रखते हुए मोहन को कहा-अरे मोहन एक कप चाय कम चीनी की तो मंगवाना
“अरे मैं तो भूल ही गया-वर्मा जी अभी चाय आ रही है”। वर्मा जी चाय के बहुत शौकीन हैं और कुछ मिले न मिले परन्तु चाय जरूरी है। अच्छा बेटा मोहन मैं अब चल रहा हूँ। मुझे घर से निकले काफी देर हो गई।
वर्मा जी धीरे-धीरे सीढियाँ उतरते हुए बाहर निकल जाते हैं। मोहन सोचने लगता है एक ऐसे किरदार के बारे में जो “अनजाने पाप” में एक अहम भूमिका रखेगा। मोहन को याद आ जाती है बलवन्त की जो कि मोहन का ही सहपाठी था। एक बार बलवन्त ने मोहन की माँ को उसके बारे में मनगढन्त किस्से सुना कर, मोहन को समस्या में डाल दिया था। बलवन्त जैसे किरदार किसी को भी अपने पक्ष में करने के लिए इतना झूठ बोल जाते हैं कि अपने सम्बन्धों की चिन्ता भी नहीं करते हैं। ऐसे कितने मौके आए जब बलवन्त ने झूठ बोलकर, अपनी बात का पक्ष बनाए रखा और दूसरों के बीच मतभेद कर दिए। ऐसे में दूसरों को जो तनाव मिलता रहा, उसके लिए बलवन्त पूरी तरह जिम्मेदार होते हुए भी अनजान हैं। ऐसा अनजाना पाप जिसके बारे में बलवन्त को कभी भी एहसास नहीं हुआ।
बलवन्त एक ऐसा किरदार है जो हमारे से सम्बन्न्ध केवल अपने स्वार्थों के लिए रहता है और इधर-उधर की सच्ची-झूठी बात बनाकर दूसरों को संकट में डाल देता है।
मोहन और जी.डी. राय जी यात्रा पर जा रहे थे। मौसम बहुत सुहावना था। रास्ते में दोनों यात्रा के सम्बन्ध में ही बात करते जा रहे थे। ऐसा अक्सर होता था जब भी दोनों यात्रा मे जाते थे तो वहाँ के स्थानों एवं इतिहास पर आपस में चर्चा करते जाते थे परन्तु मोहन अक्सर किसी न किसी विचार पर अटक जाते जिस पर उन्हें राय साहब की डांट खानी पड़ती थी। ऐसे में कभी-कभी मोहन बालते तो कुछ नहीं परन्तु मन ही मन उन्हें लगता कि मेरी तो कोई गलती नहीं परन्तु डांट खानी पड़ गई।
ऐसे में बिना विचारे जो मन में दूसरे के बारे में गलत विचार आ जाते हैं, उन विचारों को भी किसी अनजाने पाप से कम नहीं समझना चाहिए, क्योंकि यहाँ अपना अहम् छिपा है-है तो छोटा अहम् परन्तु है तो सही। ये अलग बात है कि बाद में मोहन को आत्मग्लानी होने लगती कि मैं कैसे अपने से ज्ञानी, उम्र में बड़े और निःस्वार्थ भाव से कहे कथनों के बारे में उल्टे विचार मन में लाया।
कपिल वर्मा जी आज मैं आपसे अनजाने पाप के सम्बन्ध में कुछ बातें करना चाहता हूँ-मोहन ने वर्मा जी से निवेदन किया। आदरणीय वर्मा जी मुझे परिवार सहित एक अवधि के लिए श्री ज्ञानेन्द्र जी के यहाँ किरारे पर रहना पड़ा। ज्ञानेन्द्र जी थोड़ा बहुत मुझे जानते थे और मुझे मकान किराये पर दे दिया। वैसे उन्हें उस फ्लोर के ज्यादा पैसे भी मिल रहे थे फिर भी उन्होंनने मुझ रखना उचित लगा।
एक दिन सुबह-सुबह बेल बजी, ओह आइये ज्ञानेन्द्र जी कैसे कष्ट किया। कुछ नहीं ये देखना फाटक पर आपने रोटी रख दी क्या। मैंने तुरन्त जवाब दिया कि अपने घर का कूड़ा मुझे सड़क पर या बाहर रखना अच्छा नहीं लगता।
फिर एक दिन मिलना हुआ तो कहने लगे आपने कोई सामान ऐसा नीचे बाथरूम में तो नहीं रखा हुआ। रात को आवाजें आती हैं। मुझे पत्नी ने बताया कि सामने के मकान के मिलखा सिंह जी रहते हैं उन्हीं सरदार जी के लड़के ने दीवार पर बत्तियों की लड़ियाँ लगाई हुई हैं जो आवाज करती हैं।
अच्छा एक बार शाफ्ट में उनके सीवर के पाइप बन्द हो जाने से पानी भर गया। मैंने भी सोचा अभी जाकर साफ करवा दूंगा लेकिन वो तो अपनी आदत में मजबूर उन्होंने कहा कि आज करवा लें नहीं तो मच्छर हो जायेंगे। समझ में कुछ नहीं आया खैर मैंने सफाई करवा दी।
एक बार वहाँ दीमक का आक्रमण हो गया तो मुझे कहा गया कि शायद भूल से कोई कोई ऐसा-वैसा सामान तो नहीं ले आए जिसमें दीमक लगी हो। एसी छोटी-छोटी बातें जिनसे मोहन तो ज्यादा आहत नहीं होते परन्तु उनकी पत्नी परेशान हो जाती हैें।
परन्तु मकान मालिक आपका कितना ही करीबी क्यों न हो, कोई न कोई अहम् का मुद्दा तो बन ही जाता है। वर्मा जी ने मोहन को समझाते हुए कहा, “वैसे मोहन यह भी हो सकता है कि कभी-कभी हम दूसरे की बात को उसके नज़रिये से समझ नहीं पाते हैं। अगर हमारे आपस में इतना ताल-मेल है तो फिर ज़रा-ज़रा सी बात में आहत् होने से भी जीवन नहीं चल सकता। दरअसल, मोहन, भावुक लोग समाज पर ज्यादा प्रभाव डालते हैं लेकिन क्या जो ज्यादा भावुक होते हैं, वो ही छोटी-छोटी बातों को कभी-कभी तूल भी देते हैं। हमारी भावना यदि सही है तो हमारे दृृष्टिकोण से कोई बात सही है तो दूसरे को समझाने का प्रयास करना चाहिए। मोहन, क्या तुमको नहीं लगता जो लोग भावुक नहीं होते वो छोटी-छोटी बातों को तूल भी नहीं देते लेकिन वो दूसरे को कब आहत् कर देते हैं वो समझ भी नहीं पाते हैं। मोहन, यहाँ यह कहना भी गलत नहीं होगा कि जाने-अनजाने में जब भी दूसरे को आहत् किया जाता है तो पाप होता ही है”।
“अरे मोहन”-“अरे मोहन” कहाँ खो गए, कपिल वर्मा जी ने मोहन के कमरे में कदम रखते हुए आवाजें लगाई। मोहन अपनी किसी पुरानी याद में खो गया था। वर्मा जी की आवाज पर-मोहन हड़बड़ा कर खड़ा हो गया। “ओर भाई मोहन कैसे हो” वर्मा जी ने पूछा। “जी ठीक हूँ” मोहन ने उत्तर दिया। आज मोहन की आवाज़ बहुत शांत एवं धीमी थी क्योंकि अभी-कभी जिस कल्पना सागर में मोहन गोता लगा रहा था उसके पूरी तरह बाहर नहीं आया था।
वर्मा जी, मैं आपको एक विशेष राज बताना चाहता हूँ मोहन ने बताया। आज से लगभग 30-31 वर्ष पूर्व की बात है। मोहन की माँ ने मोहन की शादी की बात कहीं चलाई और सगाई कर दी। लड़की की माँ को लगा कि शायद मोहन की माँ देहज चाहती है जबकि यह स्पष्ट थी कि केवल 100 व्यक्तियों का सादा भोजन, सारे तरीके से किया जाए। अनुभव के कम होने के कारण मोहन लड़़की की भावनाओं को नहीं समझ पाया और मोहन ने तो केवल अपने परिवार का पक्ष ही समझा। इतने बड़े फैसले को मोहन ने जल्दबाजी में शादी करने ने इंकार कर दिया।
“वर्मा जी मैंने कभी भी दूसरे की भावनाओं को ठेस पहुँचाने की कोशिश नहीं की परन्तु आप तो देख ही रहे हैं मैं आज भी आत्मग्लानि महसूस कर रहा हूँ और कुदरत की मार सह रहा हूँ”। मोहन ने वर्मा जी के समक्ष अपनी सफाई रखी।
इस प्रकार भी होता है अनजाने पाप का कारण जब बोलने वाले को समझ नहीं आता कि जो शब्द कहे गये वो सुनने वाले को आहत तो नहीं करेंगे। जाने अनजाने हम कहीं न कहीं भावनात्मक रूप से भी समझ नहीं पाते कि शब्दों को कैसे कहा जाए।
सेठ मेठामल जो कि आज इस दुनिया में नहीं हैं, बहुत ही शरीफ सीदे-सादे व्यवहारिक व्यक्ति थे। उनके दो लड़के हैं, बड़े लड़के की शादी चार वर्ष पहले ही हो चुकी थी। उसके बाद छोटे की शादी के बारे में सेठ मेठामल ने अपने चिर-परिचितों को कह भी रखा था। ऐसे ही एक जगह उनकी बात बन गई और रिश्ता तय हो गया। जैसे मेठामल जी वैसे ही उनके समधी, दोनें के स्वभाव में लगभग समानता थी। शादी बहुत ही सीधे-सादे ढंग से सम्पन्न हुई। डेढ साल कैसे बीत गए, पता नहीं चला। परन्तु एक दिन अचानक ही मेठामल जी की छोटी बहु कहीं चली जाती है। सभी परेशान हैं। ऐसे में जबकि मेठामल जी की लड़की की सगाई अगले दिन होने वाली थी। सभी बातों को गुप्त रखते हुए दोनों सम्बन्धी लड़की की सगाई सम्पन्न करवाते हैं। अगले दिन से फिर खोज शुरू होती है। फिर पता चलता है कि मानसिक संतुलन बिगड़ जाने की वजह से बहु कहीं चली गई थी और मिल गई। उसके पति ने उसे घर में रखने से इंकार कर दिया था। मेठामल जी के समधी ने बिना किसी विवाद के अपनी लड़की को अपने घर में रख लिया। बस एक बार अपने दामाद से जरूर प्रार्थना की थी कि किसी विशेष परेशानी की वजह से गलती हो गई। माफ कर दो। परन्तु मेठामल जी के छोटे लड़के एवं उनकी पत्नी यानि लड़के की माँ ने इंकार कर दिया। मेठामल जी गम में बीमार रहने लगे थे। छोटे लड़के की दूसरी शादी कर दी गई। मेठामल जी इस घटना को सह नहीं पाये और चिर निद्रा में सो गए। सुनने में पढ़ने में कितनी सीधी सी कहानी लगती है। परन्तु इस घटना ने रचना के पिता की जिन्दगी पूरी तरह ही बरबाद कर दी थी।
लड़की के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है माँ-बाप की परेशानी। लड़कियों की प्रारम्भिक शिक्षा ही इस तरह की हो कि उन्हें पता हो कि वे जहाँ जन्म ले चुकी हैै और जिस परिवार में जायेंगी, दोनों ही परिवारों के मान-सम्मान का ध्यान रखना होगा। जरा सी भूल को समाज माफ नहीं करता। कहने को हम कितने आधुनिक क्यों न बन जायें परन्तु हमारी रूढ़िवादी विचारधार में, लड़की की गलती तो गलती है परन्तु लड़के के बड़े-बड़े कसूर भी माफ कर दिए जाते हैं। भारतीय समाज एक पुरुष प्रधान समाज है। वर्मा जी इस सम्बन्ध में आप क्या कहना चाहते हैं। मोहन ने वर्मा जी से सलाह मांगी। मोहन, रचना का कदम चाहते हैं। मोहन ने वर्मा जी से सलाह मांगी। मोहन, रचना का कदम बहुत गलत था, ऐसे में सामाजिक मर्यादाओं के अन्तर्गत शायद मेठालाल जी ने मजबूरी में परिवार का साथ दिया।
रचना के पति ने भी यह जरूरी नहीं समझा कि क्या ऐसा कारण था। जाने-अनजाने जो कुछ भी हुआ रचना के पिताा के परिवार पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा।
अनजाने पाप के दायरे में अनुशासन की भी अपनी भूमिका है। ईश्वर की अराधना करने वाले असंख्य भक्त आपको कहीं न कहीं अनुशासन तोड़ते हुए मिलेंगे। आप दूर क्यों जाते हैं उस दिन मंदिर में काफी लम्बी लाइन लगी हुई थी। वासुदेव जी जो कि भगवानरन की अराधना में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं परन्तु यदाकदा कहीं भी लाइन में लगकर, अपने नम्बर आने का इंतजार नहीं कर पाते हैं। उनकी ऐसी आदत बन गई है रेलवे टिकट आरक्षित करानी हो या कोई भी जगह हो जहाँ लाइन में लगकर कोई कार्य सम्पन्न करना होता है वासुदेव जी से नहीं हो जाता है, वे कोई न कोई तरीका निकाल कर, लाइन में आगे जगह बना लेते हैं और अपना कार्य जल्दी से जल्दी पूर्ण कर लेते हैं।
वासुदेव जी की तरह बहुत से लोग आपको अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी में बहुत जगह मिल जायेंगे, उनके लिए माता वैष्णव देवी मन्दिर में माता के दर्शन के लिए लाईन हो या किसी बिल जमा कराने की लाईन हो तो और अस्पताल में किसी मरीज को दिखाने की लाईन हो सब जगह ऐसी ही बाल, इस प्रकार के लोगों में नज़र आती है।