तो ऐसे जागता है ‘सिनेमा’ में ‘संगीत’ का जादू!So this is how the magic of ‘music’ awakens in ‘cinema’!
सिनेमा हॉल हो या होम थिएटर संगीत के दीवानों के लिए डॉल्बी डिजि़टल, डीटीएस और सराउंड साउंड 5.1 जैसे नाम नए नहीं हैं. इनकी बदौलत आवाज़ की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव आए हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि सराउंड साउंड की यह विधा जिस इनकोडिंग की तकनीक पर निर्भर है उसका इन्वेंटर एक भारतीय था. इस पर आगे बात करेंगे. फिलहाल सिनेमा के बहाने आवाज की इस अद्भुत और रोमांचक दुनिया में तांक झांक करते हैं. मेकन्नास गोल्ड 70 के दशक की पापुलर हालीवुड मूवी है. ओपनिंग सीन में एक घुड़सवार स्क्रीन शेयर करता नज़र आता है. दूर तक फैली पहाड़ों की श्रंखला में घोड़ों की टॉप रोमांचक घ्वनि पैदा करती हैं. आगे गोलीबारी की एक छोटी सिक्वेंस है. एक स्थानीय बुजुर्ग, अजनबी घुड़सवार को रोकता है. जवाब में अजनबी, बुज़ुर्ग पर दूर से अपनी पिस्टल से निशाना साधता है. तमंचा चलता है, फायर होता है, गोली की तेज आवाज खामोशी को चीरती हुइ्र वातावरण में गूंजती है. गोली की यह गूंज परत दर परत फैली, ऊंची-नीची, ऊबड़-खाबड़ पहाडि़यों पर उनके ही अंदाज़ में सफर करती हुई ईको साउंड की एक कर्णप्रिय रचना क्रिएट करती है. दर्शक रोमांच से भर जाते हैं.
गोली तो थिएटर में पहले भी चला करती थीं लेकिन यह रोमांच कुछ अलग और नया था. जो बता रहा था कि आवाज की दुनिया में एक नए साउंड सिस्टम की आमद हो चुकी है, स्टीरियो फोनिक साउंड फिल्मों की रील पर घ्वनि के रूप में अंकित हो चुका है. यह 1969 की एक शाम थी. कट… कट टू शोले. 1975. कालिया ओर उसके साथी रामगढ़ में अनाज ओर सामान की बेजा वसूली के लिए पहुंचते हैं. वहां उनका सामना ठाकुर से होता है, फिर वो वीरू ओर जय को देखते हैं, जिनके हाथों में बंदूकें हैं. कालिया ठाकुर को बातों में उलझाकर चुपके से अपना हाथ अपनी बंदूक की तरफ बढ़ाता है. तभी वातावरण में गोली की तेज आवाज़ गूंज जाती है और कालिया लुहूलुहान हो जाता है. बंदूक से चली गोली का ये साउंड कुछ अलग ही था, लाउड होने के बावजूद कर्णप्रिय. ये भी स्टीरियोफोनिक साउंड का ही कमाल था, जो हालीवुड से होता हुआ बालीवुड दर्शकों तक अपनी पहुंच बना चुका था. मेकन्नास गोल्ड ने दुनिया भर में बाक्स आफिस पर तहलका मचाया, तो शोले ने भी अपनी सभी टेरीटरीज़ में कम धमाल नहीं किया.
दोनों ही फिल्मों ने अपने निर्माताओं की झोली दौलत से भर दी थी. एक और सीन. गब्बर अपने अड्डे पर पत्थर की छोटी-छोटी चट्टानों पर चहलकदमी कर रहा है. मिलिटरी कलर की ड्रेस ओर पांवों में मिलिटरी वाले काले जूते, हाथ में चमड़े का एक बेल्ट, जिसमें कारतूस रखने के लिए लोहे की मैगज़ीन. चहलकदमी के दौरान जूते की भारी आवाज़ और मैगज़ीन के पत्थर से टकराने का साउंड मिक्स होकर एक अलग ही तरह माहौल क्रिएट कर रही है. ये साउंड इफेक्ट का कमाल है. बताते चलें कि ये इफेक्ट एक छोटे से कमरे में रचे जाते हैं. साउंड इफेक्ट के इस रचनात्मक काम को फोली आर्टिस्ट, फोली स्टुडियो में बैठकर अंजाम देते हैं. पहली नज़र में बेतरतीब से नज़र आने वाले छोटे से कमरे में बने ये फोली स्टूडियो बड़ी-बड़ी फिल्मों के साउंड इफेक्ट रच देते हैं. ये जुगाड़ का एक बेहद रचनात्मक और कलात्मक रूपांतरण है. बाहुबली के साउंड इफेक्ट तो आपको याद होंगे ही. जी हां, उन्हें भी इन्ही 10 बाई 12 के एक छोटे से कमरे में बैठकर क्रिएट किया गया है.
साउंड इफेक्ट फिल्मों में पहले से मौजूद हैं, लेकिन नई तकनीक की एंट्री के बाद इनका ‘इफेक्ट’ कुछ ज्यादा ही ‘इफेक्टिव’ हो गया है. मोनो साउंड से शुरू हुई आवाज की इस यात्रा में स्टीरियो साउंड एक पड़ाव था, मंजि़ल नहीं. साउंड की यह फिल्मी जर्नी डॉल्बी डिजि़टल से होते हुए डॉल्बी साउंड 7.1 और डॉल्बी एटमॉस तक पहुंच चुकी है. तो चलिए फिल्मों के संदर्भ में साउंड की इस बेहद दिलचस्प और रोमांचक यात्रा पर चलते हैं. देखते हैं ये साउंड है किस बला का नाम ? डॉल्बी डिजि़टल जो पहले कैसेट के जमाने में डॉल्बी स्टीरियो के नाम से जानी जाती थी एक अमेरिकन कंपनी है. जो एसी 3 कम्प्रेसर का पर्याय है. इसी तरह डीटीएस भी एक दूसरी अमेरिकन कंपनी है डीटीएस भी 5.1 सराउंड सिस्टम है. सराउंड सिस्टम और 5.1 आदि के बारे में हम आगे जानेंगे.
पहले ये समझ लें कि ये ओर इस तरह की सभी कंपनियां इनकोडिंग और डिकोडिंग टेक्नॉलाजी का यूज. करती हैं. डिजि़टल के आने से पहले इसमें हर ट्रेक के लिए एक अलग वायर होता था. अब एक से ज्यादा चैनल को एक ही वायर से ले जाया जा सकता है. आपको यह जानकर हैरत और खुशी होगी कि इनकोडिंग की यह टैक्नॉलाजी जो एसी 3 और दूसरे सभी फार्मेट में उपयोग की जाती है, इसका अविष्कार एक भारतीय वैज्ञानिक नासिर अहमद ने 1972 के आसपास किया था. नासिर इंडियन अमेरिकन सिटीज़न हैं. ट्रांसमिशन और डाटा ट्रांसफर में भी इस का इस्तेमाल होता है. हम जो साउंड सराउंड का अनुभव कर पा रहे हैं वो इसी की बदौलत है. हार्ड डिस्क और डेटा मेमोरी कार्ड डेटा स्टोर कोडिंग से ही संभव होता है.
आईये सरल भाषा में समझते हैं मोनो, स्टीरियो, सराउंड साउंड, डॉल्बी डिजि़टल, 2.1, 5.1, 7.1 और 9.1 आदि क्या बला हैं ?
हम घर के अंदर हैं. प्लेन की आवाज हमारे कानों तक पहुंचती है और बिना देखे हमें पता चल जाता है कि प्लेन किधर से आ रहा है. दरअसल जिस ओर प्लेन होता है उस तरफ वाले कान को तेज आवाज सुनाई देती है दूसरे कान की तुलना में. इसी तरह जब प्लेन दूसरी दिशा में चला जाता है तो दूसरे कान को तेज आवाज सुनाई देने लगती है और पहले वाले को कम. इससे हमें दिशा की जानकारी मिल जाती है. यही स्टीरियो सिस्टम है जो हमें ऊपर वाले ने पहले से दिया हुआ है. कानों तक आवाज पहुंचाने का यह काम स्टीरियो सिस्टम में दो स्पीकर करते हैं. इसलिए इसे 2.0 नाम से भी पुकारा जाता है. दो स्पीकर से 2.0 हुआ लेकिन ये 2.1 का फंडा क्या है. दरअसल .1 सब बूफर को इंडीकेट करता है. इसका इस्तेमाल सबसे पहले बॉस कंपनी ने किया था.
स्टीरियो सिस्टम तो बाद में आया पहले जो साउंड सिस्टम चलता था उसे मोनो के नाम से जानते थे, मोनो यानि सिंगल. साउंड रिकार्डिंग में जरूरी चीजें हैं , पहली सोर्स जहां से आवाज प्रोड्यूस होती है. फिर प्री एम्पीफायर, एम्प्लीफायर ओर स्पीकर. मोनो में इनका एक सेट होता है स्टीरियो में दो सेट. स्टीरियो के बाद आया सराउंड साउंड यानि 4 क्वाड्राफोनिक ऑडियो. इसमें चार सेट, चार स्पीकर होते हैं. दो आगे दो पीछे. इसे 4.0 भी कहते हैं, बूफर मिलाकर हुआ 4.1. बाद में 5.1 आया जिसमें सेंटर में एक स्पीकर और रख दिया गया. यानि हमारे ठीक सामने. फिर 7.1 और 9.1 सिस्टम सामने आए. सिनेमा हाल में इस सराउंड सिस्टम का बेहतरीन इस्तेमाल किया गया ओर बहुत से स्पीकर जगह-जगह फिट कर दिए गए. आगे, पीछे, ऊपर नीचे सब तरफ. सराउंड सिस्टम का सबसे बड़ा एडवांटेज ये है कि इसमें केरेक्टर की आवाज और श्रोता के कान में बेहतर सामंजस्य बना रहता है.
चलते-चलते कुछ फिल्मों की बातें और. शाहरूख, काजोल की ब्लॉक बस्टर मूवी ‘दिलवाले दुलहनिया ले जाएंगे’ का गीत संगीत बहुत पापुलर हुआ था. इसकी साउंड मिक्सिंग भी डॉल्बी एसआर पर हुई थी. साउंड मिक्सिंग की बात ‘स्लमडॉग मिलियनेयर’ के बिना अधूरी रहेगी. भारतीय कलाकारों से सजी और भारतीय पृष्ठभूमि की इस फिल्म को सर्वश्रेष्ठ ध्वनि मिश्रण का आस्कर अवार्ड मिला है. साउंड मिक्सिंग की इस टीम में रिचर्ड और ईआन के साथ भारत के रसूल पूकुट्टी भी शामिल थे. ‘जय हो’ गीत के लिए एआर रहमान ओर गुलज़ार को तथा संगीत के लिए एआर रहमान को आस्कर मिला था. स्लमडॉग में साउंड मिक्सिंग एसडीडीएस, डॉल्बी डिजि़टल और डीटीएस पर हुआ था.
एक भविष्य की फिल्म की बात भी कर लें. बॉण्ड की आने वाली फिल्म ‘नो टाइम टू डॉय’ में मिक्सिंग के लिए डॉल्बी सराउंड 7.1, डॉल्बी डिजि़टल, 12-ट्रेक डिजि़टल साउंड, डीटीएस (डीटीएस :एक्स), 11.1 और डॉल्बी एटमॉस का इस्तेमाल किया गया है. यह फिल्म प्रदर्शन के लिए तैयार है. बॉण्ड की फिल्में अपने एक्शन सिक्वेंस और तेज़ रफ्तार के लिए जानी जाती हैं, जिसमें संगीत ओर साउंड अहम भूमिका निभाते हैं. उम्मीद कर सकते हैं कि साउंड मिक्सिंग की नई तकनीक सिनेमा हाल में धमाल मचाने में सफल होगी.