देश दुनिया

COVID-19: क्या कोई मसीहा हमें इस संकट से बचाने आएगा?COVID-19: Will any Messiah come to save us from this crisis?

कोरोना की दूसरी लहर से मचे हाहाकार ने हर भारतीय को हिलाकर रख दिया है. सोशल मीडिया तो मरघट बन गए हैं. अगर आज हम उनके नाम मणिकर्णिका घाट, भैंसाकुंड, निगमबोध घाट या भदभदा रख दें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी. उसके बाद अगर नामकरण बचता है तो अस्पतालों के नाम हैं. चारों ओर मित्रों और परिजनों के चले जाने या संकट में पड़े होने की ही खबरें हैं. ऐसे में मांगलिक कार्यों में भी न खुशी मनाते बन रही है और न ही उन्हें टालने का आत्मविश्वास पैदा हो रहा है. यह स्थिति मनुष्य को या तो क्रांति के दर्शन की ओर ले जाती है या वैराग्य की ओर.

संकट के इस समय एक ओर श्रीमदभगवत गीता याद आती है जिसमें श्रीकृष्ण ने साफ कहा है, यदा-यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवत भारत, अभ्युत्थानम अधर्मस्य तदात्मानम सृजाम्हम.. यानी जब संसार में धर्म की हानि होती है तब तक मैं उसकी रक्षा करने के लिए अवतार लेता हूं. भारत में बड़े पैमाने पर अवतारवाद का सिद्धांत प्रचलित है. बल्कि इस सिद्धांत का प्रभाव इतना ज्यादा है कि जो लोग आजीवन अवतारवाद का विरोध करते हैं उन्हें भी अवतार बना दिया जाता है. बुद्ध ने आजीवन अवतारवाद का विरोध किया लेकिन बाद में उन्हें भी विष्णु का दसवां अवतार सिद्ध कर दिया गया. विडंबना देखिए कि तार्किकता और बौद्धिकता के प्रकाशस्तंभ के रूप में खड़े बाबा साहेब आंबेडकर ने जब बौद्ध धर्म स्वीकार किया तो उनके अनुयायी भी उन्हें बुद्ध के समतुल्य रखकर अपने बौद्ध मंदिरों में उनकी मूर्ति या चित्र रखकर पूजा करने लगे. पिछले दिनों रामनवमी थी और इसे हिंदुओं ने बड़े पैमाने पर मनाया. राम के अवतार की अवधारणा यही है कि धरती से पाप का नाश करने और रावण का संहार करने के लिए ही उन्होंने जन्म लिया था. कृष्ण का जन्म भी उसी तरह का एक अवतार माना जाता है और कहा जाता है कि उन्होंने अधर्म के विनाश और धर्म की स्थापना के लिए ही महाभारत का आयोजन किया.

अगर हम 1918-20 तक चले स्पैनिश फ्लू के संकट को याद करें तो पाएंगे कि प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद आई इस भयंकर महामारी के बाद न तो अमेरिका की राजनीति वैसी रही, न ही यूरोप की और न ही एशिया की. अगर अमेरिका में 1913 से 1920 तक राष्ट्रपति रहे वुडरो विल्सन की इस बात के लिए कड़ी आलोचना हुई कि उन्होंने युद्ध जीतने के लिए अपने सैनिकों और नागरिकों में स्पैनिश फ्लू को जमकर फैलने दिया. बल्कि वे यूरोप में अलग अलग जगहों पर शिफ्ट किए जाने के कारण अपने सेना प्रमुख से नाराज भी हो गए थे. जितने लोग युद्ध में मारे गए थे उससे कई गुना लोग इस महामारी के कारण मरे. अमेरिका में इस महामारी से 6,75000 लोगों की मौत का ब्योरा मिलता है. इसके बावजूद विल्सन महामारी से होने वाली मौतों से बेखबर रहे और लोगों को युद्ध जीतने और नई विश्वव्यवस्था बनाने के लिए ललकारते रहे. उन्होंने कहा था, ‘युद्ध लड़ने के लिए क्रूर और निष्ठुर होना चाहिए. क्रूरता और निष्ठुरता की भावना हमारे राष्ट्रीय जीवन का अंग बननी चाहिए. यह भावना कांग्रेस, अदालत, पुलिस और सड़क पर चलने वाले व्यक्ति के भीतर भी आनी चाहिए.’

इसी भावना के चलते विल्सन ने प्रेस को दबाया, लोगों की अभिव्यक्ति की आजादी का गला घोंटा, असंतुष्ट लोगों को जेल भेजा, युद्ध के पक्ष में प्रचार चलाया और अपने नागरिकों की जासूसी की. इस बारे में ब्रिटिश पत्रकार लौरा स्पिनी की किताब पेल राइडरः द स्पैनिश फ्लू आफ 1918 एंड हाउ इट चेंज्ड््ड

 

जान बेरी की किताब में अमेरिकी फौजों, समाज और विज्ञान के संदर्भ ज्यादा हैं तो स्पिनी की पुस्तक यूरोप में चल रही क्रांतियों का वर्णन है. सन 1920 में हुए अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में विलियम हार्वर्ड टैफ्ट जीते जिन्हें 1913 में हराकर वुडरो विल्सन जीते थे. टैफ्ट ने युद्ध के विरोध में लंबे समय तक अभियान चलाया था.

उधर युद्ध से निकले और गृहयुद्ध और क्रांति में फंसे रूस के सर्वोच्च नेता व्लादिमीर ईलीच लेनिन पर फैनी कैपलान नामक एक युवती ने जानलेवा हमला किया. लेनिन बच गए लेकिन उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि जनता में कितनी नाराजगी है. उन्होंने क्रांति का रुख जनसेवा और स्वास्थ्य की ओर मोड़ा. स्पैनिश फ्लू से रूस में लाखों लोगों की मौत हो गई थी. लेनिन के दाएं हाथ कहे जाने वाले याकोव सैरडालोव की मौत इसी बीमारी से हुई थी. इन हालात से सबक लेते हुए उन्होंने देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा लागू की. कहते हैं उससे पहले दुनिया के किसी भी देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा नहीं थी. ज्यादातर डाक्टर या तो खुद अपनी पहल पर काम करते थे या फिर चर्च की चैरिटी से लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल की जाती थी. रूस की इसी सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का ही प्रभाव था कि यूरोप के कई देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं शुरू हुईं. तेजी से मेडिकल कालेज खोले गए. डाक्टर क्रांति से डरे थे क्योंकि बोल्शेविक उन्हें बुर्जुआ मानते थे और उन्हें या तो भगा सकते थे या उनकी हत्या कर सकते थे. लेनिन को उनकी जरूरत समझ में आई. क्रांति से डरे डाक्टरों को लेनिन ने स्वास्थ्य सेवा में लगाया. रूस ने वैक्सीन बनाई और उसे फैक्ट्री मजदूरों को मुफ्त में लगाया गया. हालांकि रूस की यह स्वास्थ्य सेवा अपने में सार्वजनिक नहीं थी. क्योंकि इसके तहत गांव के लोगों को स्वास्थ्य की सुविधा न के बराबर मिलती.

लेकिन महामारी की इस लहर का असर ब्रिटेन और उसके उपनिवेश भारत पर गहरा पड़ा. युद्ध से उलझ कर निकला ब्रिटेन महामारी की ओर ध्यान ही नहीं दे रहा था. वहां महामारी से 2,24,000 लोग मरे. इधर ब्रिटेन के सबसे बड़े उपनिवेश भारत में महामारी से 1.8 करोड़ लोगों की मौत हुई. उसी समय सूखा भी पड़ा हुआ था. यहां भुखमरी की भी स्थिति थी. फिर भी ब्रिटेन गेहूं के निर्यात पर पाबंदी लगाने को तैयार नहीं था. कहते हैं कि भारत में नदियां लाशों से पट गई थीं. क्योंकि लोगों को जलाने के लिए लकड़ियां पर्याप्त नहीं थीं. अगर विश्व युद्ध से पूरी दुनिया में 1.7 करोड़ लोगों की मौत हुई तो 5 से 10 करोड़ लोग महामारी से.

खास बात यह है कि भारतीय जनता के तारणहार बनकर आए अंग्रेजों ने इस महामारी की ओर ध्यान ही नहीं दिया. एक ओर ज्यादातर डाक्टर विश्व युद्ध में घायल सैनिकों का इलाज करने बाहर चले गए थे तो भारत में डाक्टरों की संख्या भी कम ही थी. युद्ध और उसके बाद की व्यवस्था को संभालने में उलझे ब्रिटिश कैबिनेट ने महामारी पर चर्चा ही नहीं की. उस पर चर्चा हाउस आफ कामन्स में जरूर हुई. इन स्थितियों ने भारतीय जनमानस में गहरा असंतोष पैदा किया. हालांकि इसी दौरान 1919 में अंग्रेजों ने भारत को शासन की प्रांतीय स्वायत्तता देने के लिए साउथबरो कमेटी बनाई जिसके सामने डा भीमराव आंबेडकर पेश हुए.

भारत सूखा, युद्ध और महामारी नामक तीन असाधारण चुनौतियों से टूट गया था और यहां जनता त्राहि त्राहि कर रही थी. यही वह समय था जब स्वाधीनता संग्राम लड़ने वालों ने आगे बढ़कर न सिर्फ लोगों की सेवा की बल्कि उन्हें आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया. यही वह समय है जब महात्मा गांधी जनता के समझ एक महानायक बन कर उभरे. एक ओर तिलक बूढ़े हो रहे थे और उनका स्वास्थ्य जवाब दे रहा था तो दूसरी ओर महात्मा गांधी उभर रहे थे. गांधी का नेतृत्व अपने में असाधारण और मसीहाई इसलिए है क्योंकि वे परदेशियों के शासन को हटाकर अपने लोगों पर राज नहीं करना चाहते थे. वे उन्हें स्वराज देना चाहते थे और उनके लिए स्वराज का अर्थ सेवा से ही है. जब उन्हें किसी ने राजा कहा तो उन्होंने कहा, ‘मैं समाज का सेवक हूं राजा नहीं हूं. खुदा और ईश्वर से यही प्रार्थना करता हूं कि मुझे सदा सेवा करने की शक्ति और बुद्धि दें. मेरी मुराद तभी पूरी होगी जब समाज की सेवा करते करते मेरी मृत्यु हो जाए…’

सेवा का यही भाव गांधी के असहयोग आंदोलन में भी दिखाई पड़ रहा था और उसी पर आधारित कल्याणकारी राज्य का सृजन वे करना चाहते थे. हालांकि इस ऐतिहासिक तथ्य पर विवाद है कि गांधी को स्पैनिश फ्लू हुआ था या नहीं. लेकिन उनके पोते गोपालकृष्ण गांधी और दूसरा दस्तावेजी साक्ष्य साफ कहते हैं कि यह बीमारी गांधी को नहीं हुई थी. हालांकि उन्हें उस दौरान पेचिस की भयंकर दिक्कत हुई थी और वे मरते मरते बचे थे. लोग इसी को फ्लू समझ लेते हैं. यह बात जरूर है कि इसी महामारी के चलते गांधी के बेटे हरिलाल की पत्नी गुलाब और उनके बेटे शांति की मृत्यु हो गई थी. यह बीमारी गांधी के मित्र और सहयोगी खान अब्दुल गफ्फार खान के बेटे को हुई थी लेकिन मृत्यु उनकी पत्नी की हुई. इस बीमारी से गांधी के मित्र चार्ल्स एंड्र्यज भी प्रभावित हुए थे लेकिन वे भी बच गए थे.

अगर हम धर्मग्रंथों से निकले अवतारवाद को मानते हैं तो का जा सकता है कि महामारी या महासंकट किसी मसीहा को भेजता है और महात्मा गांधी या उनके नेतृत्व में कई नायक पैदा हुए जिन्होंने भारत को आजादी दिलवाई. अगर हम तर्कवादी सिद्धांत को मानते हैं तो कहा जा सकता है कि ऐसे समय समाज स्वयं उठता है और या तो क्रांति करता है या फिर नीतियों और स्थितियों में बदलाव करता है. क्रांति के लिए भी कोई नेता आएगा इसकी कोई गारंटी नहीं है. इसीलिए फैज अहमद फैज ने अपनी नज्म में कहा है… शीशों का मसीहा कोई नहीं क्या आस लगाए बैठे हो. …..उठो सब खाली हाथों को इस रन से बुलावे आते हैं.

आज भारत और दुनिया जिस तरह से इस महामारी के कारण संकट में फंसी है उससे युद्ध जीतने की मानसिकता से नहीं निकला जा सकता. युद्ध की मानसिकता से काम किया जाएगा तो अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरो विल्सन और ब्रिटिश राष्ट्रपति डेविड लायड जार्ज की तरह दुनिया को संकट में डालेंगे. अगर सेवा और सहयोग की भावना से काम करेंगे तो इस संकट से दुनिया को निकाल सकते हैं और भविष्य में आने वाले किसी बड़े संकट को कम कर सकते हैं या उससे बचा भी सकते हैं.

यह सही है कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस बारे में लापरवाही और अहंकारी नजरिए का प्रदर्शन किया और देश को गंभीर संकट में डाला. उसी तरह ब्राजील के राष्ट्रपति बोल सोनारो ने भी बीमारी के अस्तित्व को खारिज करके अपने देश को संकट में डाला. लेकिन आज अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने किसी अहंकार के बिना सेवा सहयोग और लोकतांत्रिक भावना से देश के संभाला है तो उसका असर भी दिख रहा है. भारत में जहां पहली लहर को नियंत्रित किया गया लेकिन दूसरी लहर ने कहर बरपा रखा है. अगर पहली लहर के दौरान पलायन की पीड़ा उभरती तो दूसरी लहर को बढ़ाने में चुनावी रैलियों और धार्मिक आयोजनों को संचालित न कर पाने की व्यवस्था की लापरवाही और स्वास्थ्य सेवाओं की कमी ने हालात को बेकाबू कर दिया है.

सबसे ज्यादा आवश्यकता इस बात की है कि इस लड़ाई से लड़ने में वैज्ञानिक समुदाय को आगे किया जाए. उनके साथ प्रकृति प्रेमी और मानव सेवी संस्थाओं को लगाया जाए और सबसे पीछे लेकिन मजबूती से राजनीतिक बिरादरी खड़ी हो. राजनीतिक बिरादरी को अपने स्वार्थ को त्यागना होगा और सत्ता से ज्यादा सेवा का भाव पैदा करना होगा. कटुता और दोषारोपण की भाषा छोड़नी होगी. जहां दो दिवसीय जलवायु शिखर सम्मेलन में अमेरिका ने कार्बन उत्सर्जन कम करने की घोषणा करते हुए धरती के लिए एक नई उम्मीद जताई है वहीं नई नई वैक्सीनों के आविष्कार में लगे वैज्ञानिक समाज ने भी मानवता की निराशा को नियंत्रण में रखा है. महामारी के इस दौर में गांधी ही नहीं बाबा साहेब आंबेडकर की भी वह बात याद आती है कि हम जातिगत भेदभाव से मानवता को कष्ट में डालते हैं और दलित वर्ग पर महामारी का ज्यादा असर होता है. उन्होंने बुद्ध और उनका धम्म में बुद्ध की शिक्षाओं का विस्तार करते हुए कहा था महामारी से बचना है तो आत्मनियंत्रण रखें, आसक्ति को त्यागें और इंद्रिय सुखों के पीछे लापरवाही से न भागें. इन विचारों को अपनाना भी मसीहा के आगमन जैसा ही होगा.

 

 

 

 

Related Articles

Back to top button