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निर्मला सीतारमण की नई बजट ‘रणनीति’ सुधारेगी आर्थिक हालात! 4 सवालों में समझें पूरी तस्वीर Nirmala Sitharaman’s new budget ‘strategy’ will improve the economic situation! Understand the whole picture in 4 questions

नई दिल्ली. संसद (Parliament) में मंगलवार को बजट पेश करने पहुंची वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण (Nirmala Sitharaman) के सामने कई चुनौतियां थी. इनमें से सरकार का राजकोषीय घाटा या फिस्कल डेफिसिट (फिस्कल डेफिसिट उस स्थिति को कहा जाता है, जब सरकार कमाई से ज्यादा खर्च करती है) चिंता बढ़ा रहा था. वहीं, कमजोर वर्गों को लगातार मदद देने की मांग भी जोर पकड़ रही थी. ऐसे में वित्त मंत्री ने ऐसी रणनीति को चुना, जिसके तहत पूंजीगत व्यय बढ़े और राजस्व व्यय को कम किया जा सके. अब विस्तार से समझते हैं-सीतारमण की तरफ से समाज के अलग-अलग वर्गों को सीधी आर्थिक मदद दी जाती, तो फिस्कल डेफिसिट के मामले में स्थिति और बिगड़ जाती. वहीं, अगर वे खर्च के मोर्चे पर कटौती करतीं, तो पहले ही कोविड के कारण मुश्किलों से जूझ रहे समाज के बड़े वर्ग के सामने फिर चुनौतियां खड़ी हो जाती. इन सवालों के जरिए बजट की पूरी तस्वीर को समझने की कोशिश करते हैं-वित्त मंत्री ने किस रणनीति का किया चुनाव
सीतारमण की तरफ से 2022-23 बजट में राजस्व खर्च को रोककर पूंजीगत खर्च (कैपेक्स) को बढ़ाने का फैसला किया है. खास बात है कि पूंजीगत व्यय कुल जीडीपी पर अच्छे रिटर्न देता है. अलग-अलग स्टडीज के अनुसार, पूंजीगत व्यय के लिए खर्च किया गया एक रुपया 2.5 रुपये और 4.8 रुपये के बीच रिटर्न्स दे सकता है. जबकि, राजस्व व्यय के मामले में यह 0.54 रुपये से 0.98 रुपये के बीच रिटर्न दे सकता है.इसके अलावा पूंजीगत व्यय नई नौकरियां ही नहीं, बल्कि नई संपत्तियों के मामले में भी फायदेमंद होता है, जो भविष्य में उत्पादकता बढ़ती है. बजट रणनीति के अनुसार, सरकार की तरफ से कैपेक्स को दिया गया जोर देश को मौजूदा मंदी में से बाहर निकालने और विकास का पहिया तैयार करने में मदद कर सकता है.

यह रणनीति अमेरिका जैसे देशों की तरफ से उठाए हुए कदमों से अलग क्यों है?
कोविड के मामले में अमेरिका जैसे देशों ने जमकर आर्थिक मोर्चे का सहारा लिया. जबकि, भारत में अधिकांश मदद अनाज, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के रूप में थी. ऐसे में विकासित देशों की तरफ से उपलब्ध कराई गई आर्थिक मदद और भारत में मुहैया कराई मदद की कोई तुलना नहीं है. यही कारण है कि कई अनुमान भारत में कोविड के बाद गरीबी और असमानता में वृद्धि के संकेत देते हैं. जबकि, अमेरिका उन देशों में शामिल जहां ‘V’ आकार में स्थिति बेहतर होते देखी गई. हालांकि, अमेरिका जैसे देशों को भी महंगाई का सामना करना पड़ा था.

क्या कैपेक्स पर जोर देना सफल साबित होगा?
कुछ लोग सरकार की तरफ से किए जाने वाले पूंजीगत व्यय के गुणों पर सवाल उठाएंगे. खासतौर से तब जब विकास के सभी इंजन मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. इसके बाद भी कई बिंदु बताते हैं कि इस कदम से निवेश का चक्र बना रहेगा. हालांकि, इसके कई और कारण भी है, जो बताते हैं कि शायद यह कदम सफल न हो. इसका मुख्य कारण मौजूदा समय हो सकता है, जब अर्थव्यवस्था मुश्किल दौर से गुजर रही है. खासतौर से अनौपचारिक क्षेत्र में हालात ज्यादा खराब हैं, जहां कुल नौकरियों का 90 प्रतिशत शामिल है. साथ ही कुल मांग भी काफी कमजोर है. रिपोर्ट के अनुसार, कैपेसिटी यूटिलाइजेशन का स्तर उस बिंदु से काफी नीचे है, जहां कंपनियां शायद निवेश बढ़ाने पर विचार कर सकती हैं. अर्थशास्त्रियों का मानना है कि इस रणनीति का सफल होना परियोजनाओं के क्रियान्वयन पर निर्भर करता है.पीएम मोदी के कार्यकाल में यह 9वां बजट था. क्या कोई नया पैटर्न सामने आ रहा है?

 

 


बीते 8 सालों में मोदी सरकार ने बगैर किसी स्थिर विचारधारा के सहारे के कई आर्थिक रणनीतियां पेश की हैं. 2017 से पहले उन्होंने कृषि कर्ज माफी का विरोध किया, लेकिन यूपी चुनाव से ठीक पहले इसका वादा भी किया. मनरेगा जैसे कई कार्यक्रमों में सरकार के U टर्न देखने को मिले.इसी तरह पिछले बजट में निजीकरण और विनिवेष पर जोर दिया गया था, लेकिन इस साल के बजट में ये चीजें नदारद रहीं. अगर प्रधानमंत्री सरकारी निवेश के आधार पर वृद्धि में भरोसा करते हैं, तो यह साफ नहीं है कि उन्होंने कंपनियों को 1.5 लाख करोड़ के टैक्स की कटौती के बजाए यह 2019-20 में खुद ही क्यों नहीं किया.

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